आप की नौटंकी
अपूर्वानंद/ बीबीसी
तो आम आदमी पार्टी के नाटक के एक लंबे होते जा रहे और घिसटते दृश्य का अंत हो ही गया. विद्रोहियों को पार्टी से निकाल दिया गया है.
इसके अभिनेता निर्देशक के निर्णय के ग़ुलाम थे और उन्होंने तय किया कि अगले दृश्य में जाने का वक़्त हो गया है. दर्शक इससे अधिक शायद इसे झेल भी नहीं सकते थे.
और यह इसलिए कि आम आदमी पार्टी ने ख़ुद को एक बड़े राजनीतिक तमाशे के तौर पर शुरू किया था जो चौबीस घंटे के टीवी चैनलों के सहारे अनवरत चलने वाला था.
वैसे भी ‘आम आदमी पार्टी’ के जनतंत्रवादियों और पारदर्शितावादियों को पहले सर्वोच्च समिति से निकालने और उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी करने के बाद और उनके द्वारा स्वराज संवाद के एलान के बाद अब इस दृश्य में ऊब भरे इंतजार के अलावा कुछ बचा न था.
निकाले गए अभिनेता शिकायत कर रहे हैं कि अभी नाटक में आगे उनकी भूमिका बची हुई थी. यह निर्देशक की बेईमानी है कि उसने उन्हें नाटक से ही निकाल दिया है.
लेकिन निर्देशक का काम नाटक आगे बढ़ाना है न कि अभिनेताओं की लोकतांत्रिक इच्छा की पूर्ति करना. अभिनेता एक और अजीब सी मांग कर रहे हैं.
वह यह है कि निर्देशन में उनका स्थान भी था. लेकिन जिसने नाटक किया है वह जानता है कि यह निर्देशक का माध्यम है.
यहां तक कि नाटक की पटकथा जिन्होंने लिखी है वह भी निर्देशक की इच्छा के आगे कुछ नहीं कर सकते.
जो भी ‘आम आदमी पार्टी’ का नाटक देखते आ रहे हैं और अगर शुरू से देख आ रहे हैं तो वे जानते हैं कि यह पार्टी बनने के समय से शुरू नहीं हुई थी.
इसके एक दृश्य से, जो शुरुआती था, यह भ्रम हुआ था कि इसके मुख्य अभिनेता रामदेव होनेवाले हैं. उस दृश्य में ही प्रवेश कराया गया था किरण बेदी को.
नाटक के आगे बढ़ते ही प्रशांत भूषण का प्रवेश हुआ. लेकिन जल्दी ही रामदेव मंच से ग़ायब हो गए.
यह निर्देशक का ही कमाल था कि उसने विदूषक को मुख्य भूमिका में उतारा और वह नाटक का केंद्रीय दृश्य था.
दर्शकों को तो भ्रम हुआ ही, स्वयं विदूषक को ख़ुशफ़हमी हो गई कि दृश्य की लंबाई का कारण उसका मुख्य अभिनेता होना है.
लेकिन जैसे ही उसे यह भ्रम हुआ वह मंच से उतार दिया गया और अपने असली रूप में, यानी विदूषक, दिखाई पड़ने लगा.
इस समय नाटक ने नया मोड़ लिया और योगेंद्र यादव का प्रवेश हुआ. फिर यही भ्रम हुआ कि दरअसल अभिनेता तो अरविंद केजरीवाल है, निर्देशक योगेंद्र हैं.
उन्हें चाणक्य आदि की उपाधि दी गई. उन्हें रणनीतिकार कहा गया. आश्चर्य की बात यह है कि मीडिया के साथ खुद योगेंद्र भी इस ग़लतफ़हमी के शिकार हो गए.
नाटक भावनाओं का दोहन करता है लेकिन एक आँसू बहाऊ नाटक का निर्देशक भी भावुक नहीं होता. भावुकता उसकी रणनीति का हिस्सा भर होती है.
आंसू कैसे खींचे जाएँ, इसके लिए उसे अपनी आँखें सूखी ही रखनी पड़ती हैं. सो, उसने अब लाइट पर बैठे बंदे को इशारा कर दिया है कि इस सीन को फेड आउट करे.
अंधेरे में डाल दिए गए अभिनेता विरोध कर रहे हैं. लेकिन यह उनकी नियति है. अब वे विंग्स में भी नहीं रह सकते. उन्हें हॉल से ही निकलना है.
वे यह न भूलें कि दर्शक अभिनेता नहीं देखता है. या, टेलीविज़न का दर्शक सीरियल देखता है. उसी भूमिका में एकता कपूर एक के बदले दूसरे अभिनेता को ले आएं, उसे इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता.