अब तो पिंड छोड़ो
कनक तिवारी
फिर 30 जनवरी कैलेण्डर की सतरों पर है. इसी तारीख ने 1948 में हमारे सबसे बड़े सिपहसालार की हत्या की. खुद को अमर बनाकर इतिहास में दर्ज कर लिया. इस दिन सूरज डूबने के कुछ पहले एक आदमी की याद कुरेदती है. ताजा जख्म पर नमक का छिड़काव होता है. वह नफरत का शिकार हो गया था. उसके सबसे प्रिय उत्तराधिकारी शिष्य ने उसके मरने के दो चार बरस पहले ऐसी चिट्ठियां लिखीं कि तिलमिलाहट होती है.
स्वप्रदेशीय शिष्य लौहपुरुष कहलाता बन्द कमरे में दो घंटे तक बापू के कानों में शीशा पिघलाकर डालता रहा. उदास चेहरा लिए वह आजा़दी की दहलीज़ पर दिल्ली से कलकत्ता चला गया. शिष्य की दृढ़ मुद्रा में मजबूरी के अहसास की झलक थी. दोनों शिष्यों ने मिलकर देश के बंटवारे पर सत्तामूलक मुहर लगा दी.
गांधी को कोई नहीं पूछता. मुश्किल तथा हिकमत से मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घरेलू शौचालयों की मर्दुमशुमारी का जिम्मा गांधी को दे दिया है. गांधी ने कुष्ठ रोग अभिशप्तों का मलमूत्र साफ नहीं करने के कारण बहन और पत्नी तक को साबरमती आश्रम से बेदखल कर दिया था. मोदी को गांधी के जीवन के बाकी संदेशों को सीखने की जरूरत तथा ताब महसूस नहीं हुई.
मलमूत्र साफ करने वाला गांधी उनकी समझ से ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे सपने का राष्ट्रीय माॅडल बनाया जा सकता है. हाथ में झाडू लिए गांधी का संदेश शारीरिक गंदगी को साफ करने का सरकारी जतन रह गया है.
नफरत गांधी के लिए एक खास विचारधारा के मन में थी, है और रहेगी. उसके वंशज ने गांधी की छाती पर गोलियां दागकर शरीर की इतिश्री कर दी. अनजाने में लेकिन आत्मा के पुनराविष्कार का युग स्थापित कर दिया. गांधी की ज़रूरत किसी को नहीं है. उनके संगठन कांग्रेस में कार्यकर्ता से लेकर केन्द्रीय अध्यक्ष तक गांधी की तोतारटंत ठंडे पानी से नहाने पर दांत कटकटाने की शैली में करते हैं.
हर कांग्रेसी राजनीतिक विचारों को धार देने ‘गांधी गांधी’ चीखने लगता है. इसकी हूबहू नकल में काॅरपोरेट मीडिया के बेताज रोल माॅडल के पक्ष में भक्त ‘मोदी मोदी‘ के नारे लगाते हैं. अनिवार्य अनिच्छुक सोहबत का गांधी भारत में अकेला उदाहरण हैं. उन्हें कोई गाली दे सकता है. थर्ड क्लास का समानार्थी बना सकता है. कह सकता है- “एक गाल पर चांटा खाओ. दूसरा गांधी के कहे अनुसार सामने कर दो.”
आलोचक कहते हैं ब्रह्मचर्य की आड़ में कामुक भी था. वह खुद स्वीकार करता है. पिता की मृत्यु वाली रात वासना के लिए पत्नी के साथ गुजारी थी. कई झूठ कहे जाते हैं. उसके कारण देश टूटा. वह मुसलमानों का ही हिमायती था. भगतसिंह को फांसी से बचाने का माद्दा नहीं दिखाया. चुनाव जीते सुभाष बोस की पीठ पर छुरा मारा.
39 बरस में उसने भविष्य के भारत के लिए मनुष्य की तासीर की किताब ” हिन्द स्वराज ” तामीर की. बाल प्राइमर की तरह सरल है. फिर भी कोई नहीं पढ़ता. उसकी ‘आत्मकथा’ दिगंबर जैन साधुओं की परम्परा में देह पार आत्मा का अवलोकन है. उसकी नंगी छाती पर अंगरेजों की बंदूकों की संगीनें तनी रहीं. मुल्क की आजा़दी के लिए आतताइयों से संघर्ष करने की तालीम उसने भारत नहीं बाईस बरसों तक दक्षिण अफ्रीका में ली.
ऐसा संयोग किसी दूसरे नेता का इतिहास में नहीं है. वह रोज अपने विचारों को परखता था. कहता था जो अंतिम बात आज मैंने कही है, वही अंतिम सच है. कल तक कुछ और कहा हो तो उसे खारिज कर सकते हो. तीसरे दर्जे के रेल के डिब्बे के संडास के पास बैठकर प्रिय सचिव महादेव देसाई को लगातार चिट्ठियां और लेख लिखवाता रहता था. सौ जिल्दों में लिखा कहा प्रकाशित होने के बाद भी अब भी बहुत कुछ कहीं न कहीं छूट गया होगा.
इंग्लैंड के आला दरजे और मझोले लेखकों को उसने पढ़ा, सुना और गुना था. कालजयी तॉलस्ताय ने गांधी का गुरु होना स्वीकार किया था. इतिहास के सबसे बड़े दार्शनिक वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने यहां तक कहा कि “आने वाली पीढ़ियां कठिनाई से विश्वास करेंगी कि हाड़ मांस का ऐसा कोई मनुष्य इस धरती पर आया भी होगा.”
अमरीका उसे असहमति के बावजूद मिलेनियम महापुरुष कहता है. गांधी का मर्म था शरीर हमारा शत्रु है और आत्मा हमारी मित्र. गांधी को पसीने की गंध अच्छी लगती थी. उसने चरखा नामक गुम हो रहे पारम्परिक यंत्र को मुख्यतः किसानों की पत्नियों के हाथों में थमा दिया. लोग समझते कपास की पोनी से सूत काता जा रहा है. दरअसल वह दयनीय मनुष्य की आत्मा के तंतुओं का पुनराविष्कार कर उसे साहस के सूत में बदलता था. फिर कपड़े की सामाजिकता में. फिर विचारों के वस्त्र विन्यास में. ऐसे विचार से लकदक भारतीय अंगरेज कौम के मुकाबले स्वराज्य को खड़ा करने का इंजीनियर बन जाता था.
गांधी काठियावाड़ी वणिक थे. व्यापार के गुर उनमें भरपूर थे. उन्होंने मुनाफा नहीं कमाने का स्वैच्छिक निर्णय लिया था. जानते थे उनके तीक्ष्ण लेखन की शब्दावली के मकड़जाल में अंगरेजों की बुद्धि की मक्खी फंस रही है. हिन्दुस्तान के विश्वविद्यालय तो यह भी नहीं जानते कि गांधी अपने दौर के और अब तक के सर्वश्रेष्ठ गद्यकार भी हैं. संविधान की डींग मारते न्यायविद कानून के चरित्र और चरित्र के कानून को समझने गांधी की पोथी पलटते तक नहीं हैं.
समझाया जाता है कि अपने हाथों बुनी और धुली खादी की धोती और चादर में लिपटे गांधी प्रतिगामी विचार हैं. कम्प्यूटर, इंटरनेट, जुकरबर्ग, स्टार्टअप, वाॅट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम वगैरह के युग में गांधी पिछड़ गए अतीत के विस्मरण हैं. लोग नहीं समझते वे भौतिक तरक्की के समानांतर लगातार चल रहे हैं. वे प्रेतछाया हैं. उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल है.
बेहतर है, रहस्यमय किवदंतियों का मिथक बुनने के बदले गांधी गुफा में घुसा जाए. देखें अंदर क्या है. कुछ मिलता भी है या नहीं. गुफा के बाहर हम मुक्तिबोध के शब्दों में दिमागी गुहाधंकार के ओरंग ओटांग हैं.