छत्तीसगढ़ में उतेरा खेती अब बीते दिनों की बात
रायपुर|संवाददाताः छत्तीसगढ़ में उतेरा की खेती अब बीते दिनों की बात हो गई है. उतेरा खेती से किसानों को मुख्य फसल के साथ दूसरी फसल भी आसानी से मिल जाती थी. प्रदेश में आज से लगभग 12-15 साल पहले उतेरा की खेती बहुतायत होती थी. लेकिन समय के साथ अब इसमें परिवर्तन आ गया है. अब किसानों ने उतेरा खेती करना लगभग बंद ही कर दिया है.
किसान उतेरा खेती में मुख्य रूप से दलहन और तिलहन की खेती करते थे.
दलहन में तिवरा, मूंग, उड़द, करायत और तिलहन में अलसी, सरसों की फसलें ली जाती हैं. इसमें से उतेरा खेती में तिवरा जिसे छत्तीसगढ़ में लाखड़ी भी कहा जाता है, कम लागत की सफलतम फसल होने के कारण इसकी खेती बड़े क्षेत्र में की जाती थी.
उतेरा खेती छत्तीसगढ़ के रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर संभाग के किसान ज्यादा करते थे.
क्या है उतेरा खेती
मुख्य रूप से उतेरा की खेती उसे कहते हैं, जो मुख्य फसल के पकने या कटाई के ठीक पहले, उसी खेत में दूसरी फसल की बुवाई कर दी जाती है. उतेरा खेती मुख्यतः डोरसा एवं कन्हार भूमियों में सामान्यतः धान की फसल के साथ की जाती थी.
धान की फसल कटाई के लगभग 20-25 दिन पहले जब बालियां पकने की अवस्था में हों, उसी समय उतेरा के बीज धान की खड़ी फसल में छिड़क दिए जाते थे. लेकिन ये भी ध्यान रखा जाता था कि बीज छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए. जिससे बीज गीली मिट्टी में चिपक जाए.
साथ ही यह भी देखा जाता था कि खेत में पानी ज्यादा ना हो अन्यथा बोए गए बीज के सड़ने और खराब होने की आशंका बनी रहती थी.
जब धान की कटाई की जाती थी, तो इस समय तक उतेरा फसल अंकुरित होकर दो से तीन पत्ती वाली अवस्था में आ जाती था. सिंचाई के सीमित संसाधन होने के कारण से छत्तीसगढ़ के किसान उतेरा विधि लंबे समय से अपनाते चले आ रहे थे.
तिवरा छत्तीसगढ़ की प्रमुख दलहनी फसल है. सीमित पानी वाले क्षेत्रों में तिवरा को उतेरा विधि द्वारा लगाया जाता था. जहां पर अन्य दलहन फसल नहीं हो पाती, वहां पर तिवरा अच्छे से हो जाता था.
इसकी दाल के साथ-साथ इसकी कोमल पत्तियों को भाजी के रूप में बहुत पसंद किया जाता था और इसको सुखाकर भी रखा जाता है. किसानों को मुख्य फसल के साथ दूसरी फसल भी आसानी से मिल जाती थी. मेहनत और मजदूर की भी बचत होती थी.
छत्तीसगढ़ का देश में था पहला स्थान
भारत सरकार के एक आंकड़े के अनुसार देश में 4.93 लाख हेक्टेयर में तिवरा की फसल लगाई जाती रही है. जिसमें लगभग 3.84 लाख टन उत्पादन होता रहा है.
तिवरा के क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से छत्तीसगढ़ पूरे देश में पहले स्थान पर था.
पूरे देश में जितने क्षेत्रफल में तिवरा लगाया जाता था, उसका 67.26 प्रतिशत क्षेत्रफल अकेले छत्तीसगढ़ में था.
इसी तरह देश में तिवरा का 59.52 प्रतिशत उत्पादन छत्तीसगढ़ में होता था. छत्तीसगढ़ में 2.5 लाख हेक्टेयर में तिवरा की फसल लगाई जाती थी और लगभग 12.5 लाख क्विंटल इसका उत्पादन होता था.
हार्वेस्टर ने किया चौपट
किसानों का मानना है कि जब से हार्वेस्टर से धान कटाई शुरू हुई, उसके बाद से उतेरा की खेती में कमी आई है. पहले किसान हाथ से धान की कटाई करते थे तो उतेरा में लगाई फसल खराब नहीं होती थी.अब अधिकांश किसान हार्वेस्टर से ही धान काटना पसंद करते हैं.
इससे किसानों का समय और मेहनत बचता है. साथ ही कटाई लागत भी आधे से कम हो जाती है. उतेरा बोनी के बाद हार्वेस्टर से धान कटाई कराने से फसल हार्वेस्टर के चक्के में दबकर खराब हो जाती है. साथ ही पैरा भी पूरे खेत में फैल जाता है. जिसे किसान तत्काल उठाते भी नहीं है.
यही वजह है कि उतेरा खेती से किसान पीछे हट रहे हैं. इसके अलावा उतेरा खेती से उत्पादन भी कम आता है, जिसे देखते हुए किसान दलहन-तिलहन का फसल लेने के लिए बुआई विधि को ज्यादा पसंद कर रहे हैं.
अधिक मात्रा में सेवन से लकवा का डर
हालांकि कुछ वैज्ञानिकों ने आशंका जताई कि तिवरा दाल की लगातार अधिक मात्रा में सेवन से मनुष्यों में तंत्रिका संबंधी बीमारी हो सकती है. लकवा हो सकता है.
वैज्ञानिकों के शोध के आधार उस दौर के थे, जब अकाल और भूखमरी के दौरान कुछ इलाकों में लोगों ने लंबे समय तक और मुख्य आहार की तरह तिवरा दाल का उपयोग किया था. कहा गया है कि ओडीएपी या बीओएए के कारण इस दाल में विषाक्तता होती है. इसके बाद कृषि वैज्ञानिकों ने तिवरा की नवीन किस्मों का विकास किया. जिसमें हानिकारक तत्व की मात्रा ना के बराबर रह गई.
हालांकि अकाल और भूखमरी के दौर में तिवरा दाल ही लोगों के लिए जीवन रक्षक बनी.भारत में आजादी के बाद पड़े अकाल में भी यही हाल रहा. 1959 में रीवा के 18 गांवों में 6192 लोगों की जांच के बाद तैयार एक रिपोर्ट से पता चलता है कि इन लोगों में से लगभग 250 लोग लकवा या उससे मिलती-जुलती बीमारी से ग्रस्त थे. लेकिन इन सब में एक समान बात थी कि इन सबने लंबे समय तक लगातार तिवरा दाल का सेवन किया था.
इसके बाद भारत सरकार ने 1961 में इस दाल पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया. दाल की खरीद बिक्री पर रोक लगा दिया गया. जिन खेतों में यह दाल लगी मिली, उसकी पूरी फसल में आग लगा दी गई. लेकिन छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड और बंगाल जैसे राज्यों ने इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया और पशु चारा के नाम पर इसकी खेती होती रही.
तिवरा पर हुए तरह-तरह के शोध
तिवरा दाल पर पिछले 50 सालों से भी अधिक समय से प्रतिबंध रहा है. दुनिया भर के अध्ययन बताते हैं कि तिवरा दाल से होने वाली बीमारी का अंतिम मामला 1995-97 में इथियोपिया में अकाल के दौरान मिला, जहां लोगों ने भारी मात्रा में केवल और केवल इसी दाल का सेवन किया था. पिछले 60 सालों में यानी इस दाल पर प्रतिबंध के बाद से तिवरा पर तरह-तरह के शोध हुए और इस बात की कोशिश हुई कि तिवरा की दाल में लकवा वाले तत्व यानी ओडीएपी कैसे खत्म किया जा सकता है.
रायपुर की इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने तिवरा की ऐसी किस्में विकसित की, जिसमें ओडीएपी की मात्रा 0.2 प्रतिशत से भी कम है. और इसे पूरी तरह से आहार के रुप में उपयोग के लिए सुरक्षित माना जाता है. इसमें रतन प्रजाति में ओएडीपी की मात्रा केवल 0.08 प्रतिशत, प्रतीक प्रजाति में 0.07 और महातिवड़ा में 0.074 प्रतिशत ओएडीपी की उपलब्धता है. तीनों किस्मों की उपज भी प्रति हेक्टेयर 15-16 क्विंटल से अधिक है. तिवरा की कई प्रजातियां हैं
प्रतीक प्रजाति में ओएडीपी की मात्रा 0.07
तिवरा की इस किस्म का विकास एल.एस.-8246 तथा ए.-60 के वर्ण संकरण विधि से इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा वर्ष 1999 में किया गया है.
इस किस्म में हानिकारक तत्व की मात्रा नगण्य (0.076 प्रतिशत) है.
इस किस्म के पौधे गहरे हरे रंग के 50-70 से.मी. ऊंचाई के होते हैं. दाने बड़े आकार एवं मटमैले रंग के आते हैं.
पकने की अवधि 110-115 दिन तथा औसत उपज 1275 कि.ग्रा. (बोता) एवं उतेरा में 906 किग्रा. है.
महातिवड़ा में प्रोटीन 28.32 फीसदी
यह किस्म गुलाबी फूलों वाली तथा कम ओएडीपी बड़ा दानों वाली (लाख) किस्म है.
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर से विकसित यह किस्म 2008 में जारी की गई तथा 90-100 दिनों में पकने वाली 12-14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उतेरा खेती उत्पादकता वाली किस्म है.
इस किस्म में प्रोटीन 28.32 प्रतिशत तक पाया जाता है.
उतेरा में रतन प्रजाति का उत्पादन कम
रतन प्रजाति के तिवरा में ओएडीपी की मात्रा केवल 0.08 प्रतिशत है.
इस किस्म का विकास ऊतक संवर्धन विधि से भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 1997 में किया गया है.
छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में किए गए परीक्षणों में इस किस्म की औसत उत्पादकता बोता में 1300 किलो प्रति हेक्टेयर तथा उतेरा में लगभग साढ़े 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई.
इस प्रजाति में प्रोटीन की मात्रा 27.82 प्रतिशत पाई गई है.