एक दास्ताँ: वी के मूर्ति
सुदेशना रुहान
1940 का दशक. हिंदुस्तान आज़ाद है. आज़ाद हैं कश्मीर और केसर, साहित्य और सिनेमा. भोर के सपने लिए देश जाग रहा है. फिल्मों के समीकरण रातों रात बदल रहे हैं. हिमांशु राय, के.आसिफ, सुरैय्या और सहगल बम्बई पहुँच चुके हैं, स्थापित हैं. उन्हीं की तरह एक पूर्व स्वतंत्रता सेनानी निकल पड़ा है सुदूर कर्नाटक से. उसके पास है कैमरे का व्याकरण और अँधेरे, उजाले की चाबियां.
आज कोई नहीं जानता, पर कुछ वक़्त बाद दुनिया उसे वी.के.मूर्ति के नाम से जानेगी. अगले छह दशकों तक यह नौजवान बना रहेगा भारतीय फिल्मों का अजेय छायाकार. और जब तक फ़िल्में जीवित हैं, पीढ़ियां विस्मृत होती रहेंगी इनके रचित सिनेमा और संभावनाओं से.
मैसूर और वायलिन
वेंकटराम कृष्ण मूर्ति, उर्फ़ वी के मूर्ति का जन्म हुआ था 26 नवंबर 1923 को मैसूर, कर्नाटक में. आठ वर्ष की आयु में माँ का देहांत हो गया और पिता पर परिवार की ज़िम्मेदारी आ गई. वह सरकारी महकमे में वैद्य थे. जब तक मूर्ति की स्कूली शिक्षा पूरी हुई, तब तक उनके पिता 30 रूपए के मासिक पेंशन के साथ रिटायर हो चुके थे.
मूर्ति का सपना था फिल्मों में कुछ करना. मगर 30 रूपए के मासिक आय में सपना पूरा होना तो दूर, उसे देखने की भी मनाही थी. ऐसे में एक रिश्तेदार के पास वो पूना भाग गए, जिन्होंने उन्हें कुछ लोगों से मिलवाया जो फिल्मों में काम करते थे.
पर यहाँ बात जमी नहीं, और एक रिश्तेदार की मदद से वह बैंगलोर में सिनेमेटोग्राफी की पढ़ाई करने लगे. संघर्ष के दिन जारी थे. आय का कोई ज़रिया नहीं था. ऐसे में, कई समारोहों में मूर्ति वायलिन बजाने लगे. उन्होंने स्कूल के समय में इसकी विधिवत शिक्षा ली थी. इसे बजाकर जो थोड़े पैसे मिलते, उसी से गुज़र चलती.
कम ही लोग जानते हैं के फिल्मों में कैमरामैन होने से पहले वे संगीतकारों के लिए वायलिन बजाया करते थे. उन में से एक थे सरदार मलिक. मोहन सहगल (रंगकर्मी और मशहूर अदाकारा ज़ोहरा सहगल के पति) ने दोनों का परिचय करवाया था.
मूर्ति, तुम हो न!
वी के मूर्ति के मुख्य छायाकार बनने से पहले ऐसी फिल्मों की लम्बी फेहरिस्त है, जिसमें उन्होंने सहायक के रूप में काम किया. ये फ़िल्में प्रायः द्रोणाचार्य, फली मिस्त्री और वी. रात्रा द्वारा शूट की गई थीं. फिर आयी सन 1951 की एक फ़िल्म ‘बाज़ी’. इसे गुरुदत्त निर्देशित कर रहे थे और हीरो थे देव आनंद.
इसमें एक गाना था- ‘सुनो गजर क्या गाये’ जिसे गुरुदत्त एक ख़ास स्टाईल में शूट करना चाहते थे. पर फिल्म के मुख्य कैमरामैन, वी.रात्रा ऐसे किसी भी संभावना से इंकार कर दिया था. अचानक रात्रा के सहयोगी मूर्ति आगे आये, और निर्देशक को उनके मन का शॉट लेकर चौंका दिया.
गुरुदत्त बेहद ख़ुश हुए और वादा किया की अगली फिल्मों से वे मूर्ति के साथ ही काम करेंगे. इस सीन के बाद रात्रा अपने सहयोगी से इतने प्रभावित हुए के शूटिंग के दौरान वह अक्सर कहते- मूर्ति, तुम हो न, बस!
बाज़ी के बाद गुरुदत्त की सभी फ़िल्में को वी के मूर्ति ने ही शूट किया. इसमें आर-पार, सी.आई.डी प्यासा, कागज़ के फूल, मि.एंड मिसेज़ 55, एक (अनाम) बांग्ला फिल्म, साहब बीवी और ग़ुलाम, और चौदहवीं का चाँद जैसी फ़िल्में प्रमुख हैं.
इन फिल्मों को याद करते ही वहीदा रहमान, मीना कुमारी और मधु बाला का माधुर्य ध्यान आता है. यकींनन वे सभी सुंदर थीं, पर इस ख़ूबसूरती में कैमरे के ख़ास एंगल्स, लेंस और लाईट का महत्वपूर्ण योगदान होता था. फिल्म ‘कागज़ के फूल’ का कालजयी बीम शॉट भला कौन भूल सकता है?
इसे याद करते हुए मूर्ति कहते थे- ‘मैं और गुरुदत्त एक दोपहर मेहबूब स्टूडियो में थे, और हमने तभी रौशनी की एक किरण देखी. वह सच में अकल्पनीय थी. दत्त ने कहा- मूर्ति, वो करो न! बस, मैं सोचने लगा और अगले दिन दो आईने की मदद से हमने वो ख़ूबसूरत शॉट कैमरे में कैद कर लिया. उस वक़्त फिल्म शोले के कैमरामैन द्वारिका दिवेचा भी स्टूडियो में मौजूद थे. जब मैंने उन्हें बताया के मैं क्या करने जा रहा हूँ, तो वो मुस्कुराकर बोले- तुम मद्रासी लोगों का दिमाग चलता है.’
मूर्ति ब्लैक एंड व्हाईट फिल्मों के जादूगर थे. परछाई और उजाले का संयोजन, उनसे बेहतर शायद ही कोई जानता हो. गुरुदत्त जब तक जीवित रहे, उन्होंने कोई बाहर की फिल्म नहीं की. दत्त की असमय मृत्यु वी के मूर्ति के लिए एक निजी क्षति रही. कुछ समय के लिए वह अवसाद में चले गए.
फ्रेंच रुमाल
गुरुदत्त के बाद, वी के मूर्ति ने काफी काम निर्देशक प्रमोद चक्रवर्ती के लिए किया. ज़िद्दी, लव इन टोक्यो और तुमसे अच्छा कौन है कुछ ऐसी फ़िल्में हैं. साठ का दशक आ चूका था. फ़िल्में अब रंगीन बनने लगी थीं, और ब्लैक एंड व्हाईट फिल्मों का दौर लगभग ख़त्म हो रहा था. पर रंगीन फिल्मों के साथ कई मुग़ालते भी जुड़े थे- विशेषकर अभिनेत्रियों के साथ.
उन्हें लगता था के ढेर सारा मेकअप लगाना स्क्रीन पर सुन्दर दिखने के लिए अनिवार्य है. पर इसका नतीजा बिलकुल उल्टा हो रहा था. वे सभी कृत्रिम दिखने लगीं. ये मूर्ति ही थे जिन्होंने अभिनेत्रियों को ‘नैचरल मेकअप’ का सुझाव दिया था. उनकी सौम्यता बढ़ाने, वे कैमरे के आगे नायलॉन के बड़े और पारदर्शी रुमाल लगाते जो वे अपने साथ पेरिस से लाये थे.
एक बार फिर मूर्ति फिल्मों में मसरूफ़ हो गए. फिल्मों में छायांकन के अलावा उनका एक और प्रेम था- थिएटर. अपने जीवन काल में वे कई कन्नड़ा नाटकों का सफल निर्देशन करते रहे और यह क्रम सन 1982 तक जारी रहा. 80 के दशक में टीवी और वीडियो फिल्म्स का पदार्पण हुआ और श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलाणी जैसे दिग्गज उभर कर सामने आये. मूर्ति, दोनों निर्देशकों की ही पहली पसंद थे. जवाहरलाल नेहरू की किताब पर आधारित- भारत एक खोज और तमस इसका प्रबल उदाहरण हैं.
तमस में निहलाणी के साथ काम करने के विषय में उन्होंने कहा था- ‘गोविन्द मेरे शिष्य थे और कई फिल्मों में सहायक रह चुके थे. उनका हमारे घर आ जाना था. तमस की परिकल्पना के दौरान वो घर आये और मुझसे बोले- ‘मूर्ति साहब, तमस की कहानी तैयार है. और मुझे क्षमा करें, पर मैं चाहता हूँ के इसमें कैमरे का ज़िम्मा आप संभालें.’ इसे 16 mm फिल्म पर शूट करना था. मैंने कोई जवाब देने से पहले तीन दिन का समय माँगा. मेरी पत्नी का सुझाव था कि गोविन्द बेहद प्रतिभावान होने के साथ-साथ हमारे अपने हैं. गुरु शिष्य की झिझक से बाहर निकलकर मुझे उनके लिए ये काम करना चाहिए. अंत में मैंने गोविन्द को हाँ कहा.’
जीवन संध्या
नब्बे के दशक में वी के मूर्ति की कुछ फ़िल्में थीं नास्तिक, खुलेआम और दीदार. प्रमोद चक्रवर्ती के लिए वे अंत तक काम करते रहे. 1948 से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी सफर सन 2001 तक जारी रहा. इस दौरान उन्होंने फिल्मों के अलावा, डॉक्यूमेंट्री, विज्ञापन और टीवी के लिए भी काम किया.
जीवन का आखरी दशक उनका बैंगलोर में बीता. साल 2005 में पत्नी संध्या के देहांत के बाद वह अकेले हो चले थे. शायद बेहद. बेटी छाया मूर्ति शेष दिनों में उनका संबल रहीं . फिल्मफेयर और आईफा अवार्ड के अलावा, साल 2010 में फिल्मों में किये गए योगदान के लिए, उन्हें सम्मानित किया गया ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार से.
भारतीय फिल्म इतिहास में मूर्ति इकलौते सिनेमाटोग्राफर हैं जिन्हें इस पुरस्कार से नवाज़ा गया. दर्शकों के प्रेम, पुरस्कार और अनगिनत सम्मान लिए 7 अप्रैल 2014 को वेंकटराम कृष्ण मूर्ति चले गए अनंत यात्रा पर. पीछे रह गईं चंद कालजयी फ़िल्में और उनकी जगमगाती यादें. पर ऐसे कलाकार छूटते कहाँ है? न जाने कौन सी उम्मीद लिए, हम आज भी ढूंढते हैं उन्हें कैफ़ी आज़मी की नज़्म में-
‘क्या तलाश है, कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं दिल ख़्वाब दम-ब-दम’