प्रभाष जोशी: बेतकल्लुफ रिश्ता
कनक तिवारी
प्रभाष जोशी से इतना बेतकल्लुफ रिश्ता बना नहीं पाया कि उन्हें यार कह सकूं. मैं उनसे तीन वर्ष छोटा लेकिन अंगरेजी कैलेन्डर के हिसाब से हमारी राशियां एक हैं. उन्हें बड़े भाई की तरह भी नहीं देख पाया. हम दोनों अनौपचारिक रिश्ते से छिटकना नहीं चाहते थे.
‘हमारी राजनैतिक, सामाजिक और गांधीवादी विचारधाराओं में टकराव नहीं है‘-ऐसा जब मैं उनसे कहता तो वे कहते ‘टकराव नहीं, ठहराव शब्द का इस्तेमाल करो.‘ मुस्कराने तथा ठहाका लगाने के बीच बोलते बोलते हंसते और हंसते हंसते बोलते रहते.
भोपाल में मैं महात्मा गांधी 125 वां जन्मवर्ष समारोह समिति का चार पांच वर्ष राज्य समन्वयक रहा था. तब गांधी स्मृति आयोजनों में कई बार प्रभाष जोशी आए. भोपाल में कई बार महेश पाण्डेय के घर प्रभाष जोशी ठहरते. कभी कभी इतनी जल्दी फोन आ जाता कि मेरे पहुंचने पर वे गुसलखाने से बाहर भी नहीं आ पाते थे.
नई दिल्ली में एक बार उनसे मिलने का जब मैंने समय मांगा तो दूसरे दिन सुबह अम्बेसडर होटल के दासप्रकाश रेस्टोरेन्ट में मिलना तय किया. वहां का स्टाफ मानो उनसे परिचित था. उन्होंने अपने हाथ से मैसूर बड़ा चम्मच से काटते हुए मुझे खिलाया और लगभग डेढ़ घंटे गपशप करते रहे. फिर कहा कि आज की यह सुबह हम दोनों को याद रहेगी क्योंकि बहुत सी ऐसी अनौपचारिक बातें उस दिन हुईं. वे सीने में दफ्न ही हो गई हैं.
मैंने दम्भ में कहा था मुझसे ज्यादा हिन्दुत्व पर किसी ने लिखा नहीं होगा. एक रविवार की सुबह जनसत्ता के कार्यालय जब मैं पहुंचा तो उन्होंने अपने हिन्दुत्व संबंधी लेखों का पुलिन्दा थमा दिया. मैं उन्हें देखता और विस्मित तथा पराजित होता रहा. मैंने कहा, ‘आप मध्यप्रदेश के लेखक कहां रहे. आप तो राष्ट्रीय लेखक हैं.‘ वे झेंपते हुए से बोले. ‘इससे क्या मैं मध्यप्रदेशीय नहीं रहा?‘ बिहारी उच्चारण में उनको महारत हासिल थी. उसी ध्वनि मुद्रा में वे बोले ‘का हो, लालू यादव राष्ट्रीय नेता हो जाने से बिहारी नहीं रहेगा?‘
2003 के विधान सभा चुनावों के प्रचार अभियान को देखने प्रभाष जोशी कई पत्रकारों के साथ बिलासपुर भी आए. दैनिक भास्कर के कार्यालय में जब उन्हें पता लगा कि मेरा चेम्बर बगल में ही है, तो प्रिन्ट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के कई साथियों को यह कहते हुए उठा लाए कि चलो आज की चाय एक वकील की तरफ से रहेगी. परिचित अपरिचित पत्रकार मित्र बोले कांग्रेस की सरकार तो फिर बनने जा रही है. मैं उनसे सहमत नहीं हुआ. अचानक मुझे कुछ कौंधा. मैंने प्रभाष जी के हाथ से विधानसभा क्षेत्रों की सूची लेकर वे सीटें गिन दीं जहां से कांग्रेस हारने वाली थी. वे स्तब्ध रह गए. पता नहीं क्यों जो मैंने कहा था, वह सही हो गया. अचानक दिल्ली से उनका फोन आया. अपनी चिर परिचित शैली में वे हंस बोल उठे ‘भगवन! क्या आप अंतर्यामी हैं?
प्रभाष जोशी मनुष्यता का मौसम थे. ‘हिन्दू होने का धर्म‘ मेरी दृष्टि मेें हिन्दुत्व का एक छोटा मोटा आधुनिक एनसाइक्लोपीडिया है. उसमें अंतर्निहित दार्शनिक बहस का स्तरीय विमर्श है. उसमें केवल तर्क नहीं हैं.
नर्मदा मुझे भारत की अकेली आधुनिका लगती है. छोटी बहन ताप्ती को अपने आगोश में समेटेे हुए वह अकेली नहीं है जो पश्चिम की ओर जाती है अरब सागर में भारतीय संस्कृति का अक्स प्रवाहित करती है. नर्मदा को लेकर जब ये सब उक्तियां कहता तो उनकी आंखों में जैसे नर्मदा का जल उछल उछल आता. प्रभाष जोशी नर्मदा-सुत होने में गौरव अनुभव करते थे. अंततः मां की गोद में ही समा गए.
सार्वजनिक उपक्रम के सत्रह अध्यक्षों को एक साथ कांग्रेस पार्टी ने कथित अनुशासनहीनता के लिए कांग्रेस अध्यक्ष नरसिंह राव के आदेश पर निलंबित कर दिया. मैं भी एक था. मैंने प्रभाष जी से भी इसका जिक्र किया. निलंबन वापस होना था और हुआ. बहुत दिनों बाद पता चला कि प्रभाष जी ने मेरे इस मामले को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री नरसिंह राव से भी बचाव के वकील की तरह जिरह की थी. मुकदमा जीता लेकिन फीस नहीं ली.
बहुत से मित्र हैं जो उनके क्रिकेट प्रेम को लेकर अचंभित और परेशान रहे हैं. कहां गांधीवादी, समाजवादी चेहरा, ग्रामीण सुगंधि में रचा बसा व्यक्तित्व, ठेठ देशज भाषा और संस्कारों का वाणी विलास और कहां यह अंगरेजी दासता का खेल!
प्रभाष जी के लिए क्रिकेट केवल खेल नहीं, जीवन के आरोह-अवरोह की लय बन चुका था. वे क्रिकेट के खेल को देखते नहीं उसमें डुबकियां लगाते थे. रनों को अंजुलि भर भर उलीचते थे. उंगलियों की पोरों से बह जाने वाले रनों को कभी न पकड़ में आने वाली पानी की बूंदें समझते थे लेकिन उनमें भी आर्द्रता महसूस करते थे.
क्रिकेट उनके हृदय में धक धक करता था. सचिन तेंदुलकर के एक्शन रीप्ले देख देखकर वे इस तरह पुलकित होते मानो कोई बच्चा अपने पिता का व्यवसाय संभाल लेने के लिए काबिल हो गया हो. क्रिकेट की धौंकनी ने उनके दिल की धड़कनों को अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था. प्रभाष जी लौह पुरुष नहीं थे. उनका दिल तो मोम का बना था. तेंदुलकर की गेंद लपकी गई, तब उन्होंने उस धौंकनी की ओर नहीं देखा होगा जिसने नो बाॅल फेंककर अचानक अपनी मृत्यु लय तेज करते हुए इस मोम को पिघला दिया.
यह मोम जब तक पिघला नहीं था, दीपक की तरह आलोकित करता रहा. मोम पिघल गया. बाती गुल हो गई.