ख़बर ख़ासछत्तीसगढ़ विशेषताज़ा खबर

गंगरेल बांध: 50 साल बाद भी पुनर्वास की प्रतीक्षा

रायपुर | संवाददाता: छत्तीसगढ़ के धमतरी के जिस गंगरेल बांध यानी रविशंकर बांध में सरकार 5-6 अक्टूबर को ‘जल-जगार महोत्सव’ का आयोजन कर रही है, उस बांध के डूब से विस्थापित आदिवासियों की तीसरी पीढ़ी, 50 साल बाद भी पुनर्वास के लिए भटक रही है. हालत ये है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी पुनर्वास का काम आज तक पूरा नहीं हो पाया है.

इस बांध का निर्माण 1972 से 78 के बीच पूरा हुआ था. तब से ग्रामीण पुनर्वास की मांग कर रहे हैं. मांग करते-करते कई आदिवासियों की मौत हो गई. लेकिन 50 सालों में भी आदिवासियों का पुनर्वास नहीं हो पाया. कई ग्रामीणों को बागोडोर यानी जोगीडीह गांव में बसाने के लिए पट्टा दिया गया था. लेकिन उनकी ज़मीन का आज तक कहीं अता-पता नहीं है. दूसरे गांवों में भी ऐसी ही स्थितियां बनीं.

उदाहरण के लिए सोनाबाई पति रामकृष्ण राव को खसरा नंबर 192-193 दिया गया था. इसी तरह अंजना बाई पति हीरासिंह राव को खसरा नंबर 194-195 की ज़मीन आवंटित की गई थी. लेकिन उन्हें आज तक यह ज़मीन नहीं मिली. वामन राव को खसरा नंबर 261-262 आवंटित किया गया था. वामन राव को पता ही नहीं चला कि उनकी ज़मीन अब कहां है. तहसील कार्यालय का कहना है कि उनकी ज़मीन की फाइल ही कार्यालय में नहीं है.

राज्य सरकार ने तो पहले स्वीकार ही नहीं किया कि किसी का पुनर्वास बचा हुआ है. सरकार इसके लिए विस्थापन के समय पुनर्वास नियम नहीं होने का हवाला देती रही. यह सिलसिला अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक जारी रहा.

लेकिन मामला जब अदालत में पहुंचा तो इसकी परतें खुलने लगीं.

मंगलू हाजिर हो

32.150 टीएमसी क्षमता वाले इस बांध का शिलान्यास, 5 मई 1972 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था.

अविभाजित रायपुर, कांकेर और दुर्ग ज़िले में बनाए गए इस बांध से 52 राजस्व और 3 वन ग्राम यानी कुल 55 गांव के लोग विस्थापित हुए थे. जिनमें गंगरेल, चंवर, तासी, तेलगुड़ा, बारगरी, कोड़ेगांव, मोंगरागहन, सिंघोला, भिलई, मचांदूर, बरबांधा, सिलतरा, सटियारा, चापगांव, कोकड़ी, तुमाबुजुर्ग, कोलियारी, तिर्रा, चिखली, कोहका, माटेगहन, तुमाखुर्द, मुड़पार, कोरलमा, पटौद, हरफर, भैसमुंडी जैसे गांव शामिल थे. इस बांध में इन गांवों की 16704.2 एकड़ ज़मीन हमेशा-हमेशा के लिए डूब गई.

राज्य सरकार ने बार-बार दावा किया कि 1978 में मंगलू नामक एक व्यक्ति को छोड़ कर सबको मुआवज़ा दिया जा चुका है. सरकार के अनुसार मंगलू ने 1986 में अविभाजित मध्यप्रदेश में याचिका दायर की और उसके बाद अदालत के निर्देशों का पालन करते हुए मंगलू को भी मुआवज़ा दिया गया.

सरकार का तर्क था कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के प्रावधान के तहत भूमि विस्थापितों को पर्याप्त मुआवजे के भुगतान के अलावा कोई पुनर्वास नीति उपलब्ध नहीं थी. 2007 में पहली बार ज़मीन खोने वाले को रोजगार या मुआवजा को लेकर नीति बनी. जबकि गंगरेल बांध परियोजना का काम 1972 से 1978 तक संपन्न हो चुका था. हालांकि इसके बाद भी सरकार ने यथासंभव 55 गांवों के सभी विस्थापितों को इसका लाभ दिया.

मुआवजे के भुगतान के अलावा, कुछ विस्थापित परिवारों को गांव- जोगीडीह में पुनर्वासित किया गया है, लेकिन सैकड़ों लोग पुनर्वास के लिए भटकते रहे.

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में सरकार के तर्क

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में पुनर्वास के मामले कई साल चले
इस बांध से प्रभावित 8,560 परिवारों ने जबलपुर हाईकोर्ट में पुनर्वास और मुआवजे की मांग के साथ याचिका दायर की थी.

बाद में बांध से विस्थापित लोगों ने थक-हार कर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में 2008 और फिर 2016 में अलग-अलग याचिकाएं दायर की. 2008 में गंगरेल बांध प्रभावित जन कल्याण समिति ने एक याचिका दायर की और 2016 में 50 विस्थापितों की ओर से मामला दायर किया गया.

छत्तीसगढ़ सरकार ने तर्क दिया कि जिस समय गंगरेल बांध के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण हुआ था, तत्कालीन सरकार द्वारा 29.1.1976 की अधिसूचना जारी की गई थी. मध्यप्रदेश में राजस्व विभाग का एक परिपत्र था, जिसमें प्रावधान था कि यदि सिंचाई के लिए किसी कृषि भूमि की आवश्यकता हो तो प्रभावित भू-विस्थापितों को यथासंभव कृषि भूमि दी जाएगी और इसी परिपत्र के आधार पर वर्ष 1979-80 में 99 भू-विस्थापितों को उनकी मांग के अनुसार कृषि भूमि की उपलब्धता के अनुसार कृषि भूमि दी गई थी. अन्य भू-विस्थापित मुआवजा प्राप्त कर अन्यत्र चले गए और बस गए.

राजस्व विभाग के संसदीय सचिव की अध्यक्षता में 19.3.1978 को एक बैठक हुई थी, जिसमें विभिन्न विभागों के अधिकारी शामिल हुए थे. धमतरी के अनुविभागीय अधिकारी द्वारा महानदी सिंचाई परियोजना, रुद्री के अधीक्षण अभियंता को संबोधित एक अन्य पत्र दिनांक 29.5.1978 से भी पता चलता है कि विस्थापितों के पुनर्वास के लिए सरकार से निर्देश प्राप्त हुए थे और इस उद्देश्य के लिए सरकार को प्रभावित परिवारों की संख्या जानने के लिए सर्वेक्षण कराने की आवश्यकता थी.

इतना सब होने के बाद भी, पुनर्वास की नीति के नियम और शर्तें क्या होंगी, इसका न तो इस पत्र में उल्लेख किया गया था और न ही 1976 के पत्र के अनुसार कृषि भूमि के आवंटन तक सीमित प्रकृति की एक को छोड़कर कोई विस्तृत पुनर्वास नीति मौजूद थी. धमतरी के अनुविभागीय अधिकारी द्वारा महानदी परियोजना, रुद्री के कार्यपालक अभियंता को संबोधित पत्र दिनांक 3.6.1978 में फिर से उल्लेख किया गया था कि बागोडोर गांव में गंगरेल बांध में भूमि के डूब क्षेत्र के कारण प्रभावित परिवारों के पुनर्वास के लिए कलेक्टर रायपुर ने विस्थापित परिवार को आबादी भूखंड आवंटित करने के लिए 5.6.1978 की अंतिम तिथि तय की है, इसलिए निर्धारित अवधि के भीतर भूमि आवंटन पूरा होने पर पुनर्वास की कार्यवाही शुरू की जानी थी.

कार्यपालन अभियंता को विस्थापितों का विवरण/सूची प्राप्त करने के निर्देश दिए गए थे. गंगरेल बांध परियोजना के तहत विस्थापन के कारण उत्पन्न विभिन्न मुद्दों पर विचार करने के लिए 11.11.1978 को एक और बैठक आयोजित की गई, जिसमें उन लोगों का पुनर्वास भी शामिल था, जिनकी ज़मीन अधिग्रहित की गई थी. इस बैठक की अध्यक्षता तत्कालीन कमिश्नर रायपुर संभाग ने की और इसमें कलेक्टर, अपर कलेक्टर के साथ ही वन विभाग, सिंचाई विभाग, भू-अर्जन अधिकारी और अन्य अधिकारियों ने भाग लिया.

उक्त बैठक में फ़ैसला लिया गया कि विस्थापितों को परिपत्र दिनांक 29.1.1976 के अनुसार पुनर्वासित किया जाएगा और तदनुसार आस-पास के गांवों में उपलब्ध राजस्व विभाग की भूमि का उपयोग विस्थापितों को भूमि आवंटन के लिए किया जाएगा. तीन ज़िलों रायपुर, दुर्ग और कांकेर के कलेक्टरों को शीघ्र कार्यवाही शुरू करने और अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के निर्देश दिए गए.

वन भूमि हस्तांतरित करने के निर्देश

इस प्रस्ताव में विस्थापितों को भूमि आबंटन हेतु उपलब्ध कराने के उद्देश्य से राजस्व विभाग को 889 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित करने की कार्यवाही प्रारंभ करने का भी उल्लेख है, जिसमें केवल वे भूमि स्वामी शामिल हैं जिनकी भूमि अधिग्रहित की गई थी. यह प्रस्ताव ग्राम बागोडोर और सलौनी में पुनर्वास योजना तैयार करने के लिए था.

इस प्रस्ताव में यह भी उल्लेख किया गया कि चूंकि राजस्व विभाग को आबंटन हेतु प्रस्तावित 889 हेक्टेयर वन भूमि सभी विस्थापितों को आबंटन हेतु पर्याप्त नहीं हो सकती है, इसलिए रायपुर, कांकेर और दुर्ग वन मंडल के कार्यालयों को सर्वेक्षण करने और यह पता लगाने के निर्देश दिए गए कि विस्थापितों के पुनर्वास के लिए और भूमि उपलब्ध है या नहीं.

इन दस्तावेज़ों से यह बात साफ़ होती है कि न केवल विस्थापितों को कृषि भूमि आबंटन किया जाना था, बल्कि उनके पुनर्वास की दिशा में भी ज़रुरी कदम उठाए जाने थे. पुनर्वास के नाम पर 29.1.1976 के परिपत्र के अनुसार भूमि आवंटन का ही प्रावधान था लेकिन इसके अलावा भी विस्थापितों को पुनर्वास के दूसरे लाभ दिए जाने के लिए योजना बनी थी.

यही कारण है कि मुआवजे के भुगतान के अलावा, केंद्र सरकार की मंजूरी की प्रत्याशा में 889 हेक्टेयर वन भूमि के हस्तांतरण की कार्यवाही शुरू की गई थी और फिर विस्थापित व्यक्तियों को भूमि आवंटित करने का प्रस्ताव था. लेकिन केंद्र सरकार ने कभी कोई मंजूरी नहीं दी और अंततः जंगल की ज़मीन का हस्तांतरण नहीं हो सका.

लेकिन इस दौरान बागोडोर यानी जोगीडीह में 159 विस्थापितों को भूमि आवंटित की गई और कई विस्थापितों के आवेदन पर विचार भी चलता रहा.

सरकार का दावा है कि वर्ष 1979-80 में बांध निर्माण के कारण 99 भू-विस्थापितों को कृषि भूमि उपलब्ध होने तथा उन भू-विस्थापितों द्वारा मांगी गई भूमि दी गई. उसके बाद जब छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई, उसके बाद तक यानी 2009-10 तक राजस्व अधिकारियों द्वारा 71 व्यक्तियों को जमीन आवंटित की गई.

क्या कहा था छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने

मामले की सुनवाई के बाद 16 दिसंबर 2020 को जस्टिस एमएम श्रीवास्तव की पीठ ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि यदि 1980 के बाद कोई और आवंटन नहीं हुआ होता, तो याचिकाकर्ता 29.1.1976 के परिपत्र के अनुसार आवंटन के लिए कोई मांग प्रस्तुत किए जाने के प्रमाण के बिना आवंटन के लिए किसी राहत का दावा नहीं कर सकता था. लेकिन वर्तमान मामले में, 2004-05 से 2009-10 तक आवंटन का दूसरा चरण हुआ है, जिसमें 70 भू-विस्थापितों को भूमि आवंटन से लाभ हुआ है.

अदालत ने कहा कि ऐसी स्थिति में राज्य सरकार अपनी सुविधानुसार, विस्थापित लोगों का पुनर्वास लाभ के लिए चयन नहीं कर सकती. सरकार ‘पिक एंड चूज़’ पद्धति नहीं अपना सकती. यदि 70 भू-विस्थापितों को भूमि आवंटित की गई है, तो याचिकाकर्ता, जो वास्तव में भू-विस्थापित भी थे, वे भी पुनर्वास से जुड़े अधिकार के हकदार हैं और उन्हें इस आधार पर प्रतिफल से वंचित नहीं किया जा सकता कि भूमि अधिग्रहण और मुआवजा लेने के समय, उन्होंने 29.1.1976 के परिपत्र के अनुसार कोई मांग पत्र प्रस्तुत नहीं किया था.

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता-सोसायटी के सदस्यों को भूमि आवंटन के मामलों पर विचार करने की कार्यवाही कलेक्टर, दुर्ग, धमतरी और कांकेर के कार्यालय द्वारा शुरू की जानी चाहिए.

अपने फ़ैसले में अदालत ने कहा कि पट्टे के माध्यम से भूमि के आवंटन की कार्यवाही तीनों जिलों अर्थात दुर्ग, कांकेर और धमतरी के संबंधित कलेक्टर के आदेश के तहत सक्षम प्राधिकारी द्वारा शुरू की जाए.

अदालत ने कहा कि यदि 2004-05 से 2009-10 के बीच किए गए आवंटन को रद्द नहीं किया जाता है तो याचिकाकर्ताओं द्वारा भूमि आवंटन के दावे की जांच सक्षम राजस्व अधिकारियों द्वारा तीन माह के भीतर की जाएगी.

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के इस फ़ैसले को चार साल होने को आए. गंगरेल में इस दौरान जाने कितना पानी बह गया होगा. लेकिन 50 सालों से भी अधिक लंबी पुनर्वास की प्रतीक्षा, अब तक ख़त्म नहीं हुई.

error: Content is protected !!