अरुंधती रॉय और उनके लेखन पर हमले
त्रिभुवन | फेसबुक
अंरुधती रॉय इस देश की गर्व करने लायक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक हैं. रॉय की शैली की तुलना अक्सर विश्व स्तरीय लेखक सलमान रुश्दी से की जाती है. अरुंधती की लेखनी अपनी लय और कविता के साथ अनूठा नृत्य करती है. इसी से ‘गॉड ऑव स्मॉल थिंग्स’ की कथा विशिष्ट रूप से थोड़ा सेंसुअल हो सकी है.
शायद एक अधिक उपयुक्त तुलना ई.एम. फोर्स्टर की ‘अ पैसेज टू इंडिया’ से हो सकती है; क्योंकि रॉय प्राकृतिक दुनिया की अदम्य और रहस्यमय सुंदरता को लयबद्ध करती हैं.
अरुंधती की कलम में वह बौद्धिक पैनापन है, जो मानव व्यवस्था की नाजुक संरचनाओं और कभी-कभी कठोर अभिव्यक्तियों के साथ तुलना करने के साहस से लबरेज़ है. उनकी प्रतिभा उस विलक्षण स्पष्टता में झलकती है, जिसके साथ वह बच्चों के मन और उनके पात्रों के रिश्तों के माध्यम से बहने वाली गहन भावनात्मक धाराओं को चित्रित करती हैं.
‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ का राजनीतिक हृदय एक बेलौस उत्तेजक प्रश्न के इर्द-गिर्द धड़कता है कि जब प्रेम किया जाए तो कितना करना चाहिए और किसे करना चाहिए? रॉय की असाधारण कल्पनाशीलता और उनकी अतुलनीय सृजनधर्मिता को लांछित करने की कोशिशें शुरू से ही बहुत हुई हैं.
पहले उन पर वामपंथी रूढ़िवादियों ने हमले किए और बाद में जब उन्हें होश आया और हक़ीक़त पता चली तो उन्हें अपने क़दम वापस लेने पड़े. लेकिन इसके बाद वाम वैचारिकी वाले समृद्ध आंगन में अठखेलियां करने वाले वे लोग जो बड़े मूल्य के बदले दक्षिणपंथ की नींव को सुदृढ़ करने में जुट चुके हैं, अरुंधती रॉय पर हमले करने और उनके प्रति घृणा का वातावरण बनाने में अनवरत लगे हैं.
भारतीय सभ्यता और संस्कृति अपने मूल में स्त्री केंद्रित है और वह उसका विलक्षण सम्मान करती है. लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का नाम लेने वाले अधिकाशंत: लोगों के मनों और उनकी आत्मा को अब उत्तेजित करने के लिए इस डिज़ाइन किया जा रहा है कि वे उन सबको गरियाने लगें, जो उनकी सत्ता के ऐश्वर्य में बाधा बनें.
यह हर सत्ता करती है. पहले वाले भी यही कर रहे थे; लेकिन थोड़ा चातुर्य से. अभी का जितना भी राजनीतिक विद्रूप हमारे सामने है, उसकी हर शाखा का पल्लवन उत्तर नेहरू काल में ही हुआ है. बहुत कुछ नेहरू काल में संकेत भी मिलने लगे थे. अरुंधती रॉय ने इस पर भी बहुत स्पष्टता से अपने विचार लिखे हैं.
पुरातन भारतीय शब्द संकेतों में स्त्री, गाय और निर्धन को बहुत निरीह माना जाता है. लेकिन आधुनिक भारतीयता के शब्दबोध के भीतर नए अर्थबोध ने विस्तार पाया है.
ऐसे में अगर वैचारिक लोक की झांसी की बाई बनकर अरुंधती रॉय कॉरपोरेट कैपिलिस्टिक शक्तियों पर चैतन्य की असि से अविरल प्रहार कर रही हैं तो इससे प्रभावित वर्ग का विचलित होना अस्वाभाविक नहीं है.
उत्पीड़तों की एक सशक्त ढाल-तलवार के रूप में अरुंधती रॉय किसी तरह बची रह गई मानवता के भीतर सूक्ष्म; लेकिन उन शक्तिशाली शक्तियों की गहराई से पड़ताल करती हैं, जो मुक्ति और विनाश दोनों में सक्षम हैं.
वे अपनी रचनाओं के भीतर यथार्थ और अपने विश्वासों को मोहक जटिलताओं और आत्मिक गीतात्मकता के सौंदर्य का त्याग किए बिना कुशलता से बुनती है.
‘दॅ गॉड ऑव स्मॉल थिंग्स’ जिस समय छपकर आया था, पूरी दुनिया में विख्यात हो गया था. वह मिल नहीं रहा था. उन दिनों गंगानगर में मैं अपने पुलिस अधीक्षक बीजू जॉर्ज जोसेफ़ से मिला तो उनसे यह प्रति मिली. वे फिलहाल जयपुर में पुलिस कमिश्नर हैं और बहुत पढ़ाकू बौद्धिकों में हैं.
इस पुस्तक के बदले उन्होंने मुझसे नीदर सी चौधरी की ‘दॅ ऑटोग्राफ़ी ऑव अननॉन इंडियन’ लेकर पढ़ी थी. क़िताबों के एक्सचेंज़ का यह सिलसिला साल भर चला होगा कि अपराधियों की मुश्कें कसने वाली उनकी प्रणाली तत्कालीन सरकार को पसंद नहीं आई और उन्हें बदल दिया गया.
ख़ैर, अरुंधती रॉय समकालीन भारत ही नहीं, चैतन्यता से लबरेज़ पूरी दुनिया के उन गिनेचुने लेखकों में हैं, जो प्रेम, जीवन और राजनीति को सुपरिभाषित करने का अदम्य साहस रखते हैं.
‘दॅ गॉड ऑव स्मॉल थिंग्स’ ही नहीं, उनकी हर रचना पढी जानी चाहिए.
आप उन्हें नापसंद करते हों तो इसलिए पढ़ें कि वह आपको आपके संसार के भीतरी अंधेरों से रूबरू करवाती हैं. लेकिन इस दुनिया में किसी भी वैचारिकी में ऐसे साहसिक कम होते हैं, जो अपनी आलोचना को विवेकशील बौद्धिकता से देख सकें.