हां, इसलिए संविधान खतरे में है
कनक तिवारी
संविधान संशोधन की एक कोशिश: 25 अक्टूबर 1999 को संसद में भाषण देते राष्ट्रपति के0 आर0 नारायणन ने कहा, “उद्देशिका के शानदार शब्द जो ‘हम भारत के लोग’ से शुरू होकर एकता, सम्पूर्ण प्रभुता, लोकतंत्र और समानता का युग-प्रवर्तक सन्देश देते हैं, आज भी हमारे कानों में गूंज रहे हैं.”
राष्ट्रपति के तैयार भाषण में जानबूझकर ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्द छोड़ दिए गए थे. ये दोनों शब्द उद्देशिका में इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में संविधान के बयालीसवें संशोधन द्वारा जोड़े गए हैं. इससे आशंका होने लगी कि सरकार संविधान की उद्देशिका के इन दोनों शब्दों से छेड़छाड़ जरूर करना चाहती है.
राष्ट्रपति से आगे कहलवाया गया, “विख्यात संविधान विशेषज्ञों और जनसेवकों का एक आयोग आधी सदी पुराने संवैधानिक अनुभव का अध्ययन तथा अगली सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए नियुक्त किया जाएगा ताकि वह मुनासिब सिफारिशें भी करे.”
राष्ट्रपति ने संविधान समीक्षा के लिए केवल आयोग के गठन का वायदा संसद के माध्यम से जनता को किया. आयोग में जनप्रतिनिधियों को रखने का भी ऐलान किया. इसके बाद केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री के स्तर पर संविधान संशोधन की मंशाओं की सुगबुगाहटें होने लगीं. राष्ट्रपति सतर्क हो गए. गणतंत्र दिवस 2000 के समारोह में राष्ट्रपति ने संविधान समीक्षा आयोग को लेकर आशंकाएं सार्वजनिक कर दीं. उन्होंने देशवासियों की गवाही में सीधा सवाल पूछा, “संविधान ने हमें असफल किया है या हमने संविधान को?”
संविधान की समीक्षा का बिगुल टोयोटा-रथ पर चढ़कर तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी 1989 से बजाते रहे. उनके कारण भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में संविधान समीक्षा का मुद्दा शामिल किया गया. 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राजग के घोषणा पत्र में संविधान समीक्षा की अपनी मांग शामिल करा दी. राष्ट्रपति का तैयार भाषण संविधान के खंडित उद्देश्यों की पैरवी का था. शायद इससे चिढ़कर राष्ट्रपति ने राजग सरकार को संविधान संशोधन को लेकर तीन चेतावनियां दीं. पहली यह कि सरकार देखे कि संविधान ने उसे विफल किया है या उसने सरकार को. दूसरी यह कि संसदीय प्रजातंत्र के ढांचे को बदलकर राष्ट्रपति प्रणाली सरकार की पैरवी न की जाए. तीसरी यह कि संविधान के बुनियादी ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जाए.
शक्ल में आडवाणी से ज्यादा सुस्त लेकिन अक्ल में उनसे चुस्त वाजपेयी ने राष्ट्रपति के विरोध से बचते संविधान समीक्षा करने के दो अजीब कारण बताए. पहला यह कि हाल के वर्षों के जनादेश के कारण संसद की अवधि और सरकारों में अस्थिरता है. दूसरा यह कि मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों को संविधान से समर्थन नहीं झलकता. अटल बिहारी वाजपेयी के कहने का असली अर्थ था कि एक धर्मसापेक्ष सरकार को संसद में बहुमत जुगाड़ लेने के बाद पांच साल हुकूमत करने की गारंटी संविधान द्वारा मिल जाए.
वैश्वीकरण, निजीकरण और आर्थिक उदारवाद को तो संविधान ’समाजवाद’ के घोषित उद्देश्य के रहते समर्थन नहीं दे सकता. इसलिए राजग सरकार की नीयत में संविधान से ’समाजवाद’ और ’धर्म निरपेक्षता’ की छुट्टी जरूरी रही. अयोध्या, मथुरा और काशी की घटनाओं के अतिरिक्त ईसाइयों पर तरह तरह के हमले इसलिए भी हुए जिससे संविधान की उपरोक्त दोनों उद्देशिकाओं से छुट्टी पाई जा सके.
“भाजपा ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसने हिंदुत्व में अपनी आस्था की खुलेआम घोषणा की है. 1998 के चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने संविधान समीक्षा का वादा किया. उसी में उसने आर एस एस के ‘एक राष्ट्र, एक जन और एक संस्कृति’ के नारे को भी दोहराया. हिंदुत्व को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की रीढ़ बताया, जिसे भारतीय शासन का सिद्धांत होना चाहिए. उसी चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने रामजन्मभूमि आंदोलन को आजादी के बाद के इतिहास का सबसे बड़ा जन आंदोलन बताया.
वास्तव में 1991 के चुनाव घोषणा पत्र में भाजपा ने साफ-साफ बताया था कि वह संविधान के साथ क्या करना चाहेगी. उस समय भाजपा ने कहा था, “इसका अध्ययन करने तथा अपनी रिपोर्ट देने के लिये एक आयोग नियुक्त किया जाएगा कि क्या राष्ट्रपति प्रणाली हमें, मौजूदा संसदीय प्रणाली की जगह ज्यादा स्थिर सरकार दे सकती है.”
उसी घोषणापत्र में दूसरी मांग संविधान की धारा-30 में संशोधन की थी जो कि अल्पसंख्यकों के अपनी शैक्षणिक संस्थाएं चलाने के अधिकार की गारंटी करती है. भाजपा इस धारा में इस तरह संशोधन करना चाहती थी कि अल्पसंख्यकों को संविधान में दिया गया संरक्षण ही खत्म हो जाय. संविधान में जो तीसरा संशोधन भाजपा लाना चाहती थी, संविधान की जम्मू-कश्मीर से संबंधित धारा 370 को निरस्त करने का था.
संविधानहंता कोशिश
राजनीति में ये शब्द बहुत प्रचलित हुए हैं- संघ-परिवार, यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिन्दू परिषद (विहिप), भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और बजरंगदल वगैरह. साम्प्रदायिकता, धार्मिक कठमुल्लापन और संकीर्णता से कोई अछूता नहीं बचा. परिवार के वंशजों को संविधान की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर संविधान पर अमल करने का प्रशासनिक उत्तरदायित्व भी मिला जबकि इस विचारधारा के प्रतिनिधियों को संविधान सभा में चुना ही नहीं गया था. हिन्दू महासभा के नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी कांग्रेस के सहयोग से संविधान सभा के लिए चुने गये थे. उन्होंने बाद में भारतीय जनसंघ की स्थापना की.
काले इरादों की गुलाबी पुस्तक: कथित अखिल भारतीय संत समिति द्वारा 68 पृष्ठों का एक कथित श्वेतपत्र स्वामी मुक्तानंद सरस्वती के नाम से प्रकाशित किया गया है. इस पत्रिका में संविधान, उसकी आत्मा और उसके निर्माताओं के विरूद्ध भद्दे, असभ्य और तर्कहीन फब्तियां कसी गई हैं.
राष्ट्रीय ध्वज, अशोक चक्र और राष्ट्र गीत का खुलेआम अपमान किया गया है. संविधान को भारतीय संस्कृति के नाशक की संज्ञा देते उसे लोकद्रोही करार दिया गया है. 13-14 अक्टूबर 1992 को अयोध्या में चार कथित संतों की एक समिति स्वामी मुक्तानंद सरस्वती की अध्यक्षता में संविधान का अध्ययन कर उसमें परिवर्तनों की सिफारिश करने के मकसद से गठित की गई.
पुस्तिका के आवरण पृष्ठ पर ही यह कटाक्ष है, “भारत की एकता, अखंडता, भाईचारे एवं साम्प्रदायिक सद्भाव को मिटानेवाला कौन है?” तथा “भारत में भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार एवं अधर्म को फैलानेवाला” भी वर्तमान ‘इंडियन’ संविधान को दोषी ठहराया गया है. ‘इंडियन’ शब्द को व्यंग्य के साथ लिखा गया है, मानो भारत का संविधान पश्चिमी मानसिकता की उपज मात्र है.
पुस्तिका अचानक नहीं लिखी गई. प्रकाशन से एक सप्ताह पहले एक भाजपा सांसद के निवास पर आयोजित पत्रवार्ता में लेखक ने स्वामी वामदेव महाराज के साथ राष्ट्र का आह्वान किया कि वह इस हिन्दू विरोधी संविधान का तिरस्कार करे. उन्होंने दम्भोक्ति भी कि उन्हें देश के कानूनों पर विश्वास नहीं है और यह भी कि साधु संत कानूनों के ऊपर हैं.
लेखक ने पुस्तिका में यह भी लिखा, “ब्रिटिश साम्राज्यवाद भारतीय समाज को 200 साल में इतना नहीं तोड़ सका, जितना आजादी के बाद बने संविधान ने कुछ ही सालों में तोड़ा है. आजादी के बाद भारत को इंडिया बनाने की साजिश बराबर चल रही है.”
मुक्तानन्द लिखते हैं यह दुःख की बात है कि भारतीयों को दुनिया में ‘इंडियन’ के नाम से जाना जाता है. पाठकों को याद दिलाते हैं कि आजादी की लड़ाई हिन्दुस्तान के नाम पर लड़ी गई और ‘वंदेमातरम्’ राष्ट्रीय गीत था. उनके अनुसार, ‘भारत का धर्म’ अंग्रेजों के ‘रिलीजन’ का समानार्थी शब्द नहीं है. भारतीय नागरिकता का कानून जिसके अनुसार भारत में पैदा हुआ प्रत्येक व्यक्ति इस देश का नागरिक है, काफी नहीं है. पूरे संविधान की भाषा इतनी जटिल है कि उसके आशय को समझना मुश्किल है.”
संघ-परिवार के इस प्रेरित दस्तावेज का कहना है कि हिन्दी अनुवाद में संविधान के उद्देश्य का तीसरा शब्द ‘पंथनिरपेक्ष’ है, जबकि उसे ‘धर्मनिरपेक्षता’ के अर्थ में आमतौर पर समझा जाता है. पंथ और धर्म, अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं.
संविधान का अनुच्छेद-30, जिसके अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा तथा धर्म के आधार पर शैक्षणिक संस्थाएं खोलने का अधिकार है, अलगाववादी ताकतों को बढ़ावा देता है. मुक्तानंद इस बात से बहुत परेशान हैं कि जब अनुच्छेद-16 में स्पष्ट लिखा है कि प्रत्येक नागरिक को किसी भी तरह की नौकरी मिलने के सिलसिले में बराबर की आजादी है, तो फिर पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण दिए जाने के प्रावधानों को संविधान में क्यों रखा गया? उन्हें सबसे अधिक गुस्सा अनुच्छेद-44 को लेकर है जिसके मुताबिक राज्य सभी नागरिकों के लिए समान संहिता बनाने का प्रयास करेगा.
वे झल्लाकर लिखते हैं, “यह अनुच्छेद संविधान के रचयिताओं ने भांग पीकर लिखा होगा.” मुक्तानंद को यह भी दुख है कि देशभक्त नक्सलवादियों के साथ राष्ट्रदोहियों जैसा बर्ताव किया जाता है.
उनके अनुसार, “संविधान निर्माताओं ने हिन्दी भाषा से संबंधित प्रावधानों के जरिए तुष्टिकरण (भाषायी अल्पसंख्यकों के), अनिश्चितताओं, पृथकतावाद, भय, संशय और अनुत्तरदायित्व की भावनाओं को बढ़ावा दिया है.”
धारा-370 पर कश्मीर संबंधी विशेष प्रावधान हैं. उस पर पुस्तिका में भाजपा की घोषित नीति के अनुकूल प्रहार किए गए हैं. नागालैंड से संबंधित अनुच्छेद-371(ए) को ईसाइयों के प्रभाव से युक्त कहा गया है. अनुच्छेद-51-क का जिसमें नागरिकों के कर्तव्यों का ब्यौरा दिया गया है, मखौल उड़ाया गया है.
लेखक के अनुसार, ‘जिस देश को इंडिया’ अर्थात् भारत कहा जाए, जिसके राष्ट्रध्वज पर साम्राज्यवादी अशोक का चक्र अंकित हो तथा जॉर्ज पंचम की प्रशस्ति में गाए गए ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रीय गीत बनाया जाए, वहां नागरिकों के कर्तव्यों की बात करना बेमानी होगा.” पश्चिमी जीवन पद्धति और मांसाहार के कारण भारत को नष्ट कर दिया गया है.