कितना नेहरू बचा रहेगा?
कनक तिवारी
27 मई 1964 की भरी दोपहर खामोश हुए हिन्दुस्तान के सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय सियासती किरदार प्रधानमंत्री नेहरू आज़ादी के बाद से लिहाफ की तरह भारतीय चेतना ओढे़ हुए थे. इसकी तुलना हो सकती है, जब श्रीरामकृष्ण देव के शिष्य विवेकानन्द गुरु के चेतना संसार को बहुआयामी बनाते अवाम के घर घर अध्यात्म की दस्तक दे रहे थे. अपना अभियान लेकिन विवेकानन्द ने गुरु के 1886 में अवसान के बाद शुरू किया.
कद्दावर काठी के नेहरू अपने गुरु गांधी के जीवित रहते ही उनसे मतभेद और अलग रास्ते चलने की हैसियत उजागर कर चुके थे. किसी लीक पर नहीं चलते नेहरू ने चट्टानी राजनीति को तोड़ते अपनी राह खुद बनाई. समकालीन वक्त और भविष्य भले ही उनसे हमख्याल नहीं रहे हों, जवाहरलाल ने अपने प्रभाव का लगातार विस्तार और परिष्कार किया. इस अभियान में उनसे कई गलतियां भी हुईं.
उनका खमियाजा राजनीति और नेहरू के भविष्य को भी भुगतना पड़ा. फिर भी नीयत में कभी खोट नहीं रही. वे अपनी प्रतिबद्धताओं में प्रामाणिक और ईमानदार रहे. उन्होंने कई समझौते किए, लेकिन अपनी समझ का बुनियादी चरित्र कभी नहीं धूमिल किया.
देश में दक्षिणपंथी नस्ल की सत्ता आते और आने पर सबसे ज्यादा वैचारिक हमला नेहरू के सोच और रास्ते पर किया जाता रहा है. वे भारत के अकेले बुद्धिजीवी हुए हैं जो सत्ताविहीन गांधी के अलावा तमाम आलिम फाजिल लोगों की अगुवाई करते चले गए.
उनसे महान समकालीन राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन, गोविन्द वल्लभ पंत, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल, राजगोपालाचारी और उनके कनिष्ठ सहयोगी जयप्रकाश, लोहिया और नरेन्द्र देव-सबके सब प्रेरित और संदर्भित होते रहे. बेटी इंदिरा गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष होकर केरल की पट्टमाथानु पिल्ले की सरकार को गिराने को लेकर जवाहरलाल की बेखयाली की.
नेहरू ने पंचशील के सिद्धांत प्रचारित करने के बावजूद पड़ोसी देश चीन से धोखा खाया. वह कलंक नेहरू के निष्कलंक चरित्र पर चस्पा हो गया. अंतरिम सरकार के गठन के वक्त उन्होंने आबादी के अनुपात में मुसलमानों को सीट दिए जाने के जिन्ना का प्रस्ताव खारिज किया. उससे मुस्लिम लीग के उदय का रास्ता खुलने लगा. लोकतंत्र के प्रति अपनी निष्ठा के चलते नेहरू ने कई बार खुद को फैसलाकुनिंदगी में पीछे किया.
मसलन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाने के विवाद में उन्होंने सरदार पटेल के दखल को इज्ज़त बख्शी. यह उनकी दूरंदेशी थी कि नौजवान लोहिया को कांग्रेस के विदेश विभाग की सुपुर्दगी सहित कई उत्तरदायित्वों से लैस किया.
इतिहास का सच है कि बेटी के रहते उन्होंने कहा कि जयप्रकाश नारायण उनके उत्तराधिकारी हैं. सत्ताधीश हो जाने पर नेहरू की प्रखर समाजवादियों से नहीं पटी. वह भारत के इतिहास का ढलान की ओर जाता हुआ रास्ता भी हुआ.
नेहरू ने संविधान के मुख्य निदेशक की हैसियत में सब कुछ बयान करने के बावजूद समाजवाद शब्द को आईन के मकसद के रूप में लिखने से पूंजीपतियों और राजेरजवाड़ों के ऐतराज के कारण संकोच किया. आज़ादी के लिए कांग्रेस के महान सर्वधर्म आंदोलन के बावजूद पंथनिरपेक्षता शब्द भी अपनी अभिव्यक्ति संविधान के सिरनामे में नहीं पा सका.
उन्हें आदिवासी नेता जयपाल सिंह द्वारा बार बार कुरेदे जाने के बावजूद आदिवासियों के अधिकारों को लेकर नेहरू, अंबेडकर और पटेल की त्रयी ने वह भविष्यमूलक संवैधानिक भूमिका नहीं की जिसकी इतिहास को उनसे उम्मीद रही है.
तमाम मनुष्यगत कमजोरियों और लक्षणों के रहते जवाहर लाल ने भारत का चेहरा दुनिया में सबसे ज्यादा उजला किया.
उनकी अंतर्राष्ट्रीय शख्सियत के सामने भारत के शासक रहे इंग्लैंड और दुनिया के सबसे मजबूत देश अमेरिका सहित तमाम बड़े मुल्कों ने नेहरू का लगातार सम्मान किया. जवाहरलाल की महान पुस्तकों ‘विश्व इतिहास की झलक,‘ भारत की खोज‘, ‘आत्मकथा‘ और ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम‘ की रॉयल्टी से उनके परिवार का पीढ़ियों का खर्च चला.
आनंद भवन सहित करोड़ों, अरबों रुपयों की संपत्ति को देश के नाम दान कर देने वाले नेहरू बापू के शिष्य की हैसियत में लगातार चरखा चलाते और अपने कपड़े बुनते रहे. कभी कभी फट जाने पर उन्हें अपने हाथों सिलते भी रहे. यह नेहरू थे जिन्हें कभी कभी किसी की आर्थिक मदद करने खुद अपने अजीज लोगों से उधार तक लेना पड़ता था.
भविष्य के भारत का आर्थिक, औद्योगिक और राजनीतिक ढांचा खड़ा करने का असाधारण इल्म सबसे ज्यादा नेहरू में ही दिखा. उनके बाद किसी प्रधानमंत्री ने वे बुनियादी परिवर्तन और अन्वेषण नहीं किए, जो नेहरू के श्रेय में दर्ज हैं. यह दुखद हुआ कि गांधी और नेहरू दोनों को उनकी पार्टी कांग्रेस ने धीरे धीरे इस कदर भुला दिया कि पार्टी के लिए इन पुरखों का यश धूमिल होने लगा.
गांधी सत्ताविहीन होने से विपरीत विचारधाराओं द्वारा अपना लिए गए हैं. नेहरू साफगोई, पारदर्शिता, प्रतिबद्धता और आधुनिक वैज्ञानिक सोच के कारण कई तरह के हमलों का शिकार हो रहे हैं. देश को अतीतजीवी बनकर अंधकार युग में ले जाने वालों के लिए जवाहरलाल आज भी असाधारण बौद्धिक चुनौती बने भविष्योन्मुख अपने वक्त के सबसे जहीन युवा विचारक भगतसिंह ने यह लिख दिया कि भविष्य के भारत के लिए नेहरू से बेहतर वैज्ञानिक समझ का कोई नेता नहीं है. और देश के नवयुवकों को उनके पीछे चलना चाहिए. प्रधानमंत्री का पद नेहरू के कद्दावर व्यक्तित्व के लिए केवल यादध्यानी का संदर्भ है. उनका नाम वक्त के आयाम में आज भी चमकदार और रोशन है. यह भी इतिहास का सच है.
नेहरू के आर्थिक विचार वामपंथी और समाजवादी थे. कट्टर माक्सवादी नहीं थे, लेकिन माक्स के प्रति समर्थन उनके भाषणों, लेखों और अन्य अभिव्यक्तियों में बार बार झलकता है. उन्होंने सोवियत रूस सहित कम्युनिस्ट देशों की यात्राएं भी कीं. शायद संविधान में समाजवाद शब्द नहीं लिख पाने का नेहरू को बाद में मलाल रहा था.
इसी भावना के नतीजतन उन्होंने जमींदारों और मालगुजारों की प्रथा और हैसियत का उन्मूलन किया. बाद में उनकी बेटी ने आगे बढ़कर राजाओं की थैली और टाइटिल को बर्खास्त किया.
बाप बेटी ने मिलकर हिन्दुस्तान की आर्थिक व्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की फसल को लहलहाने का मौका दिया. फलस्वरूप जनता ने इंदिरा गांधी के कुछ फैसलों से राजनीतिक नाराजगी के बावजूद बार बार सत्ता सौंपी. कांग्रेस की यह हालत हुई कि चाचा नेहरू, लाल गुलाब और पंडित जी जैसे मुहावरों में सिमट गई.
सूरते हाल है कि सरदार पटेल की व्यावहारिक कूटनीतिक बुद्धि की उपेक्षा कर उन्हें कट्टर हिन्दू बताते संसार की सबसे ऊंची मूर्ति बना दिया गया. इंसानी बिरादरी के सबसे बडे सूरमा गांधी को शौचालय की दीवारों पर चस्पा कर दिया गया है. फेबियन समाजवाद का पाठ नेहरू ने द्वितीय विश्व युद्ध की खंदकों में कृष्णमेनन जैसे बुद्धिजीवी से विमर्श कर जज्ब किया था.
कांग्रेस के दफ्तर, जिला और संभाग दफ्तर में नेहरू की तस्वीर भर है. किराए के बुद्धिजीवियों को बुलाकर कांग्रेस नेता नेहरू नाम छोड़ते रस्मअदायगी कर लेते हैं. जवाहरलाल के सपनों का भारत रोज कुचला जा रहा है. पंथनिरपेक्षता के नाम पर कहा जा रहा है उनके पूर्वज मुसलमान थे. उनकी बुद्धिजीवी हैसियत से घबराकर आलोचक आसमान की ओर देखकर थूकते हैं. नतीजा गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत तय करते हैं.