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आजादी की पहली लड़ाई- ‘हूल क्रांति’

रांची | समाचार डेस्क: संथाल नायक तिलका माझी ने 1789 में अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाया था उसके बाद 1855 में संथालों ने अंग्रेजी हूकुमत के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी. यूं तो स्वतंत्रता संग्राम में वर्ष 1857 की लड़ाई ‘मील का पत्थर’ साबित हुई, मगर संथाल परगना क्षेत्र (वर्तमान के झारखंड राज्य का एक क्षेत्र) में यह लड़ाई काफी पहले शुरू हो गई थी. संथाल परगना में ‘संथाल हूल’ और ‘संथाल विद्रोह’ के द्वारा अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी. सिद्धू और कान्हू दो भाइयों के नेतृत्व में 30 जून 1855 को वर्तमान साहेबगंज जिले के भगनाडीह गांव से इस विद्रोह का प्रारंभ किया गया था. इस घटना की याद में प्रतिवर्ष 30 जून को ‘हूल क्रांति दिवस’ मनाया जाता है.

संथाल परगना के भगनाडीह में हूल के मौके पर अंग्रेजों के खिलाफ लोगों ने ‘करो या मरो, ‘अंग्रेजो हमारी माटी छोड़ो’ के नारे दिए गए थे. भगनाडीह गांव में चुनका मुर्मू के घर जन्मे चार भाइयों सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव ने साथ मिलकर ‘संथाल हूल’ यानी ‘संथाल विप्लव’ अंग्रेजी सम्राज्य के खिलाफ लड़ा गया था.

इतिहासकारों ने संथाल हूल को मुक्ति आंदोलन का दर्जा दिया है. हूल को कई अर्थो में समाजवाद के लिए पहली लड़ाई माना गया है. इसमें न केवल संथाल जनजाति के लिए, बल्कि समाज के हर शोषित वर्ग के लोग सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में आगे आए. इस आंदोलन में शामिल लोग गांव-गांव जाकर ‘हूल’ का लोगों को निमंत्रण देते थे.

रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा के प्रोफेसर उमेश चंद्र तिवारी कहते हैं, “30 जून 1855 को दामिन-ए-कोह (संथाल परगना) में छेड़ा गया हूल का संग्राम एक विद्रोह का इतिहास मात्र नहीं है. यह देश की आजादी का संभवत: पहला संगठित जन अभियान हासिल करने के लिए तमाम शोषित-वंचितों ने मुखर स्वर जान की कीमत देकर बुलंद किया.”

उन्होंने बताया कि इस संग्राम में संथाल आदिवासियों के साथ-साथ अन्य ग्रामीण समूह के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. इन्हीं अर्थो में इसे यदि इतिहास के दो संगठित वर्गो के टकराव के निर्देशक के रूप में देखा जाए, तो आज भी हूल की प्रासंगिकता मायने रखती है.”

डॉ़ भुवनेश्वर अनुज की पुस्तक ‘झारखंड के शहीद’ के मुताबिक, इस क्षेत्र में अंग्रेजों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुजारी लगा दी. इसके बाद न केवल यहां के लोगों का शोषण होने लगा था, बल्कि उन्हें मालगुजारी भी देनी पड़ रही थी. इस कारण यहां के लोगों में विद्रोह पनप रहा था.

पुस्तक में लिखा गया है कि यह विद्रोह भले ही ‘संथाल हूल’ हो परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेजों एवं उसके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था.

झारखंड के इतिहास के जानकार बी पीक केशरी कहते हैं कि सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप बनाया.

उस समय संथालों को बतलाया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा जिनके हाथों में बीस अंगूलियां थी ने बताया है कि ‘जुमीदार, महाजोन, पुलिस आर राजरेन अमलो को गुजुकमा.’ (जमींदार, पुलिस, राज के अमले और सूदखोरों का नाश हो).

वे बताते हैं कि बोंगा की ही संथाल पूजा-अर्चना करते थे. इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर तथा गांवों-गांवों तक पहुंचाया गया. इस दौरान लोगों ने साल की टहनी को लेकर गांव-गांव यात्रा की.

आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शस्त्रों से लैस होकर 30 जून 1855 को 400 गांवों के लोग भगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ. इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे. इसके बाद अंग्रेजों ने इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया, परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहां भेजा गया था संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी. इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय प्राप्त हो गया था.

इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया था. अंग्रेजों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए जमकर गिरफ्तारियां की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं. आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए पुरस्कारों की घोषणा की गई.

बहराइच में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए. प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर पने अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ रूलर बंगाल’ में लिखा है कि संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे.

पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो. इस युद्ध में करीब 20 हजार वनवासियों ने अपनी जान दी थी. साथियों के स्वार्थ के कारण सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई.

झारखंड के विनोबा भावे विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर विमलेश्वर झा कहते हैं कि संथाल हूल के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जर्मनी के समकालीन चिंतक कार्ल मार्क्‍स ने अपनी पुस्तक ‘नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में जून 1855 के संथाल क्रांति को जनक्रांति बताया है.

झारखंड के इतिहास के पन्नों में जल-जंगल-जमीन, इतिहास-अस्तित्व बचाने का संर्घष के लिए जून महीना शहीदों का महीना माना जाता है.

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