बजट 2016-17: हवा हवाई
प्रभात पटनायक
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 29 फरवरी को लोकसभा में जो संघीय बजट पेश किया है, उसे मीडिया ने ‘‘गरीबपरस्त’’ तथा ‘‘किसानपरस्त’’ करार दिया है. खेद की बात यह है कि इससे बड़ा झूठ दसरा नहीं हो सकता है. 2016-17 में कुल सरकारी व्यय में, 2015-16 के संशोधित खर्च की तुलना में 10.6 फीसद की बढ़ोतरी ही प्रस्तावित है, जबकि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्घि दर रुपयों में 11 फीसद आंकी गयी है. इसका अर्थ यह हुआ कि कुल मिलाकर यह बजट आर्थिक संकुचनकारी बजट है और यह भी तब है जबकि यह बजट विश्व आर्थिक संकट की पृष्ठïभूमि में पेश किया गया है, जिसका जिक्र खुद जेटली ने किया था.
बातें हैं बातों का क्या?
बेशक, इसके बावजूद कोई यह दलील दे सकता है कि कुल मिलाकर आर्थिक संकुचनकारी लगने के बावजूद, इस बजट में खर्चो के गठन को इस तरह बदल गया है कि वृहत्तर स्तर पर इस आर्थिक संकुचन के बावजूद, इस बजट के असर से रोजगार में तथा जन-कल्याण में बढ़ोतरी ही हो रही होगी. लेकिन, यह भी तो सच नहीं है. जिन कल्याणकारी प्रावधानों का बहुत ढोल पीटा जा रहा है उनके भी मामले में, खर्चों में प्रस्तावित बढ़ोतरी इतनी थोड़ी है कि इससे शायद ही कोई फर्क पडऩे जा रहा है.
मिसाल के तौर पर मनरेगा के लिए सिर्फ 38,500 करोड़ रु0 का प्रावधान किया गया है. 2014-15 में जहां बजट में 34,000 करोड़ रु0 का प्रावधान किया गया था, इस योजना के संचालन का पैमाना कहीं बड़ा था और इसके चलते कम से कम 6,000 करोड़ रु0 के मजदूरी भुगतान बकाया जमा हो गए थे. अगर इस योजना का पैमाना पहले वाले साल जितना ही रखा जाना होता, तब भी अगर मुद्रास्फीति को हम शून्य भी मान लें उसके बाद भी इसकी मद में पिछले साल ही 46,000 करोड़ रु0 का प्रावधान किया जाना चाहिए था. इसके बजाए, पिछले साल के बजट में 2014-15 जितनी ही राशि रख दी गयी, जिसका अर्थ यह हुआ कि पिछले वित्त वर्ष के दौरान ही इस योजना के पैमाने में कटौती की चुकी थी. इस बजट में रखे गए प्रावधान से, इस कटौती को और आगे चला दिया गया है. इस योजना को 2014-15 के पैमाने पर ही बनाए रखा जाना हो तब भी, अगर हम शून्य मुद्रास्फीति मान लें तथा मजदूरी भुगतान का बकाया कम से कम 6,000 करोड़ रु0 के स्तर पर मान लें तब भी, इस बजट में इस कार्यक्रम की मद में कम से कम 46,000 करोड़ रु0 का प्रावधान तो रखा ही जाना चाहिए था. इस मद में इस बार के बजट में 38,500 करोड़ रु0 का ही प्रावधान करने के जरिए सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि यह योजना, 2014-15 में रोजगार का जो पैमाना हासिल किया जा चुका था, उस पैमाने पर भी रोजगार मुहैया नहीं करा सकती है, फिर 100 दिन का रोजगार मुहैया कराने का तो सवाल ही कहां उठता है, जिसकी गारंटी यह ‘‘अधिकार-आधारित कार्यक्रम’’ करता है.
बीमा स्वास्थ्य का या निजी चिकित्सा सुविधाओं का
आइए, अब हम स्वास्थ्य बीमा योजना पर नजर डाल लें. पहली नजर में यह योजना बहुत ही चमकीली नजर आती है क्योंकि अपनी पूर्ववर्ती राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाइ) के विपरीत इसमें, प्रति परिवार प्रति वर्ष एक लाख तक का बीमा कवर मुहैया कराने की बात कही गयी है. जहां इस योजना के अंतर्गत लाए जाने वाले परिवारों की ठीक-ठीक संख्या तो स्पष्ट नहीं है, जेटली ने इस सिलसिले में देश के कुल परिवारों में से एक-तिहाई के करीब की संख्या का जिक्र किया है, जो गरीबी की रेखा के नीचे आने वाले परिवारों के हिस्से के बराबर है. यह संख्या करीब 8 करोड़ परिवारों की बैठती है.
जहां यह तर्क पेश किया गया है और सही ही पेश किया गया है कि स्वास्थ्य रक्षा सहायता मुहैया कराने के लिए स्वास्थ्य बीमा का रास्ता अपनाना अपने आप में ही निजी स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं को पैसा देना है, नकि जरूरतमंदों को सच्ची मदद हासिल कराना. जरूरतमंदों को सच्ची मदद हासिल कराने के लिए तो यूरोप की जैसी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था ही खड़ी करनी होगी. फिर भी इस योजना के अंतर्गत लाए जाने वालों की संख्या बहुत बड़ी है. स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि क्या उन्हें वाकई इस योजना से कोई फायदा मिलने जा रहा है? अगर फायदा मिलने भी जा रहा है, तो कितना?
संबंधित योजना, आरएसएसवाइ के लिए 2016-17 के लिए कुल 19,000 करोड़ रु0 के करीब का आवंटन रखा गया है. अब हम यह माने लेते हैं कि सरकार यह पूरी की पूरी राशि, स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम भरने में ही लगाने जा रही है. अब सोचने वाली बात यह है कि बीमा कंपनियां कोई घाटे के लिए तो यह कारोबार करेंगी नहीं. इसका मतलब यह हुआ कि बीमा कंपनियां कम से कम इतना तो सुनिश्चित करेंगी ही कि इस बीमा कवरेज के लिए अस्पतालों को वे जो भुगतान करेंगी, बाकी अगर खर्चों को छोड़ भी दिया जाए तब भी, कुल प्रीमियम के रूप में मिलने वाली राशि से ऊपर नहीं निकलने पाए. दूसरी ओर, प्रीमियम की उक्त कुल राशि को जब हम 8 करोड़ लाभ पाने वाले परिवारों के बीच बांटते हैं, तो प्रति परिवार मोटे तौर पर 2,500 की राशि बैठती है. यह रकम उक्त योजना के पैनल में रखे जाने वाले अस्पतालों में साल भर में ज्यादा से ज्यादा पांच बार ओपीडी (बाहरी रोगी उपचार) सेवा का लाभ लेने के लिए काफी पड़ेगी.
बेशक, अगर सरकार की स्वास्थ्य रक्षा सुविधाएं भी फल-फूल रही होतीं और प्रस्ताविक एक लाख रु0 की सुरक्षा, इन सुविधाओं में जनता को पहले ही उपलब्ध मुफ्त या बहुत सस्ती चिकित्सा के ऊपर से दी जा रही होती, तब तो बात दूसरी ही होती. लेकिन, यहां तो हो यह रहा है कि यह स्वास्थ्य बीमा मुहैया कराने के आधार पर ही सरकार अपनी स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं को कमजोर कर रही है. चालू बजट तक में, जहां इस बीमा योजना का बड़े धूम-धड़ाके के साथ एलान किया गया है, स्वास्थ्य बजट में वास्तविक बढ़ोतरी सिर्फ 9-10 फीसद के स्तर पर रही है. इसका अर्थ यह है कि सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में तो इसके हिस्से में कमी ही हुई है. इसी को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य रक्षा के मामले में बीमा का रास्ता अपनाया जाना, न सिर्फ निजी अस्पतालों की जेबों में पैसा पहुंचाने का काम करेगा बल्कि जिस जनता को कथित रूप से इसका लाभ पहुंचना है उसके लिए, स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं की वास्तविक उपलब्धता को कम ही करने का भी काम करता है.
हवा ज्यादा रसोई गैस कम
आइए, हम जेटली द्वारा जिस तीसरी बड़ी योजना की घोषणा की गयी है, उस पर नजर डाल लें. यह योजना है, ग्रामीण परिवारों को रसोई गैस के कनैक्शन मुहैया कराने की. इसके लिए कुल 2000 करोड़ रु0 की मामूली राशि रखी गयी है और यह योजना, तीन साल में पूरी होने वाली बतायी गयी है. अब सवाल यह उठता है कि अगर तीन साल की अवधि तक इस मामूली आवंटन के बल पर, इस अवधि के आखिर तक 5 करोड़ परिवारों को इस योजना के दायरे में ले आया जाने वाला है, तो क्यों वित्त मंत्री ने इस एक साल में ही इस मद में 6,000 करोड़ रु0 की राशि नहीं रख दी और इस साल में ही इन सभी परिवारों को रसाई गैस के दायरे में नहीं खींच लिया?
बहरहाल, इस योजना का जो मौजूदा रूप है उस पर नजर डाल लें. अगर हम प्रति परिवार गैस सिलेंडरों के उपभोग पर आने वाला खर्चा ही करीब 8,000 रु0 सालाना मानें, तो इन परिवारों के गैस के कुल खर्चे के करीब छठे हिस्से की ही इस योजना के जरिए भरपाई हो पाएगी. अगर सरकार वाकई इन परिवारों को गैस के खर्चे के बोझ से बरी करना चाहती थी तो उसे इन परिवारों के लिए गैस कनैक्शनों के लिए भारी सब्सिडी देनी चाहिए थी. इसकी जगह, अगर हम साल में जिन 1.5 करोड़ परिवारों को कनैक्शन मुहैया कराए जाने हैं उन पर, 2,000 करोड़ रु0 की इस राशि को बांट दें तो यह राशि प्रति परिवार 1,300 रु0 बैठती है. इसके बाद भी इन परिवारों को अपने कुल खर्च का करीब सातवां हिस्सा गैस सिलेंडर पर खर्च करने का भारी बोझ उठाना पड़ रहा होगा. इसी के चलते अनेक संभावित लाभार्थी तो शायद रसोई गैस को अपनाने की स्थिति में भी नहीं होंगे. संक्षेप में यह कि इस मामले में सरकार द्वारा दी गयी राहत इतनी थोड़ी है कि उससे इस पहलू से गरीब परिवारों की स्थिति में कोई खास सुधार होने वाला नहीं है.
वास्तव में यही बात इस बजट में घोषित एक-एक कल्याणकारी कदम पर लागू होती है. वास्तव में बहुत छोटी सी राशियां रखने के बावजूद, बढ़-चढक़र ढोल पीटने के जरिए सरकार ऐसी छवि बनाने की कोशिश कर रही है, जैसे उसने कोई बड़ा ‘‘गरीब-हितैषी’’ बजट पेश कर दिया हो. उल्टे स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, दोपहर का भोजन तथा एकीकृत बाल विकास सेवा जैसे, अनेक प्रमुख सामाजिक क्षेत्रों के मामले में तो, सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के पैमाने से तो 2016-17 के बजट में आबंटन में कटौती ही हुई नजर आती है.
कृषक-हितैषी या कृषकघाती
अब हम कृषि क्षेत्र पर आते हैं. इस क्षेत्र के मामले में 2016-17 के बजट में मदों का जो पुनर्वगीकरण किया गया है, उसके ही बल पर पिछले साल के आवंटन के मुकाबले बड़ी भारी बढ़ोतरी हुई नजर आ रही है. बहरहाल, अगर इस वर्गीकरण के बदलाव को हम हिसाब में ले लेते हैं और ‘‘कृषकों के अल्पावधि ऋणों पर ब्याज सब्सिडी’’ का हिस्सा, 2015-16 के ‘‘कृषि, सहकारिता तथा कृषक कल्याण’’ के आवंटन के साथ जोड़ देते हैं, तो हम पाते हैं कि 2016-17 के बजट में इस पूरे क्षेत्र के लिए रुपयों में आवंटन में भी कुल 33 फीसद की बढ़ोतरी हुई है. इस तरह के मामूली स्तर के आवंटन के बल पर पांच साल में किसानों की आय दोगुनी कैसे हो जाएगी, यह अब भी रहस्य ही बना हुआ है.
बहरहाल, जेटली ने अपने बजट भाषण में इस क्षेत्र के संबंध में दो और महत्वपूर्ण घोषणाएं की हैं. पहली घोषणा, सरकारी खरीदी का विकेंदीकरण करने की है. इसका अर्थ बुनियादी तौर पर यही है कि देश के बड़े हिस्से से सरकारी खरीद के काम से भारतीय खाद्य निगम हट जाएगा और यह जिम्मा या तो राज्य सरकारों पर डाल दिया जाएगा या फिर राज्य सरकारों द्वारा अधिकृत की गयी निजी एजेंसियां इस क्षेत्र में आ जाएंगी. इस तरह, वास्तव में एक बार फिर वही करने की कोशिश की जा रही है, जो अब से करीब एक दशक पहले केंद्र सरकार करने की कोशिश कर रही थी. लेकिन, उस समय खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में जो अचानक तेजी से बढ़ोतरी आयी, उसने तब सरकार को अपने पांव पीछे खींचने के लिए मजबूर कर दिया था. बहरहाल, अब फिर से खाद्यान्न की खरीद तथा वितरण की उस व्यवस्था को ध्वस्त करने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं, जिसे इतनी मेहनत से लंबे अर्से में खड़ा किया गया था.
इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली की क्या गत बनने जा रही है, यह पहले ही साफ हो चुका है. ऐसा लगता है कि शायद भारतीय खाद्य निगम, खाद्यान्न के घाटे वाले राज्यों में वितरण के लिए खाद्यान्न की एक न्यूनतम राशि जुटाने के लिए, कम से कम अभी कुछ समय तक तो जरूर ही, एक न्यूनतम व्यवस्था बनाए रखेगा. लेकिन, अगर खाद्यान्न के घाटे वाले राज्य को इससे ज्यादा अनाज की जरूरत हुई, तो उसे या तो खुले बाजार से अपनी जरूरत का खाद्यान्न खरीदना पड़ेगा, जिसके लिए उसे अनाप-शनाप दाम देने पड़ेंगे, जिनका बोझ उठाना उसके लिए मुश्किल होगा या फिर उसे फालतू पैदावार करने वाले राज्यों के दरवाजे-दरवाजे भटकना पड़ेगा, जिनसे उसे अपनी जरूरत का अनाज हमेशा मिल ही जाए यह भी जरूरी नहीं है. संक्षेप में यह कदम, अनाज जैसे सबसे महत्वपूर्ण माल के मामले में, सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर बहुत भारी प्रहार ही करने जा रहा है.
किसान अंतर्राष्ट्रीय खाद्य व्यापारियों के रहमो-करम पर
लेकिन, यह किस्सा इतने पर भी खत्म नहीं हो जाता है. हमारे देश में ऐसे अनेक राज्य हैं, मिसाल के तौर पर प0 बंगाल, जहां फिलहाल तो सरकारी खरीद करने वाली कोई एजेंसी ही नहीं है. ऐसे राज्यों को, औपनिवेशिक शासन के जमाने की तरह, खाद्यान्न की निजी खरीददारी का ही सहारा लेना होगा. इसका सीधा सा मतलब यह हुआ कि पैदावार की कीमतों के बैठने से किसानों के बचाव की व्यवस्था काम ही नहीं कर रही होगी. इसलिए, एनडीए सरकार के वादे के अनुरूप पांच साल में किसानों की आय दोगुनी होना तो दूर रही, कृषि संकट ही और गहरा हो जाएगा और इसकी चपेट में खाद्यान्न उत्पादक किसान भी आ जाएंगे जिन्हें अब तक, पैदावार के दाम बैठने से हद तक बचाव तो हासिल रहा ही था.
जेटली की दूसरी घोषणा का संबंध, कृषि उत्पादों की की खरीद-बिक्री में 100 फीसद विदेशी मिल्कियतवाली फर्मों के लिए इजाजत देने से है. पुन: इसके भी दो नतीजे होंगे. पहला, अब पैदावार की खरीद-बिक्री के मामले में भी किसानों को बहुराष्ट्रीय निगमों के रहमो-करम पर छोड़ दिया जाएगा. दूसरा, घरेलू बाजार को ‘‘गूंगा’’ कर दिया जाएगा यानी देश के अंदर ही एक साथ, कहीं पर अनाज की कमी बनी रहेगी, तो कहीं और अनाज का निर्यात चल रहा होगा. इतना ही नहीं, इससे भी बेतुके हालात भी पैदा हो सकते हैं जहां बहुराष्ट्रीय निगम हमारे ही देश के एक हिस्से से (जहां किसान सस्ते दाम पर अपनी पैदावार बेचने पर मजबूर हों) खाद्यान्न खरीद रहे होंगे और उसी अनाज को, हमारे देश के ही किसी दूसरे हिस्से में, जहां खाद्यान्न की कमी के चलते दाम ज्यादा हों, अनाप-शनाप दामों पर बेचते नजर आएं.
ये दोनों घोषणाएं वास्तव में आपस में जुड़ी हुई हैं. कृषि-विपणन क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस बात को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की है कि भारतीय खाद्य निगम की मौजूदगी के चलते ही वे, आम तौर पर भारतीय कृषि बाजारों से बाहर ही बने रहे हैं. उनके रास्ते की इस बाधा को अब सरकार हटाने जा रही है. और अगर जेटली तथा एनडीए सरकार को यह लगता हो कि उसके ऐसा करने से किसानों की आय बढऩे जा रही है, तो इसका मतलब यह है कि उन्हें विश्व अर्थव्यवस्था के बारे में और औपनिवेशिक दौर की खुद भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में भी कुछ अता-पता ही नहीं है.
इस तरह, ‘‘गरीबपरस्त’’ तथा ‘‘किसान-हितैषी’’ बजट के सारे शोर-शराबे की आड़ में हम, बड़े पैमाने पर उस समूची व्यवस्था के ही ध्वंस से दो-चार हो रहे हैं, जो कुल-मिलाकर अब तक पैदावार करने वालों को एक सुनिश्चित दाम दिलाती थी और उपभोक्ताओं को बंगाल के 1943 के भयावह अकाल जैसी स्थितियों से बचाती थी.
मौका गंवाने वाला बजट
बजट के आंकड़ों पर गंभीर रूप से सवाल उठाए गए हैं, लेकिन मैं यहां इस मुद्दे में नहीं जा रहा हूं. उत्पाद शुल्क से राजस्व का अनुमान इतना ज्यादा है कि हमें यह मानने पर मजबूर होना पड़ता है कि ये अनुमान यह मानकर लगाए गए हैं कि तेल की कीमतों में आगे भी गिरावट हो रही होगी. वास्तव में पिछले साल के अर्थव्यस्था के प्रदर्शन को लेकर जेटली साहब की सारी शेखी, मिसाल के तौर पर चालू खाता घाटे तथा मुद्रास्फीति का नियंत्रण में होना, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में गिरावट का ही फल है, न कि एनडीए सरकार के किसी कदम का. लेकिन, इसका अर्थ यह भी है कि अगर अगले वित्त वर्ष में तेल की कीमतों में थेाड़ी भी बढ़ोतरी होती है, पूरा का पूरा बजट ही चरमरा जाएगा.
2016-17 के बजट के बारे में अगर कोई बात खासतौर पर ध्यान खींचने वाली है तो यही कि यह मौका चूकने वाला बजट है. अगर 2016-17 में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3.9 फीसद के स्तर पर ही रखा जा रहा होता, जिस स्तर पर 2015-16 में रखा गया था, जिससे अर्थव्यवस्था को जाहिर है कि कोई नुकसान नहीं पहुंचा था, तब भी इस एक स्रोत से ही सरकार के पास लगाने के लिए पूरे 60,000 करोड़ रु0 अतिरिक्त उपलब्ध होते और जिन कल्याणकारी कदमों के नाम पर जेटली ने महज बातें की हैं, उन्हें वाकई जमीन पर उतारा जा सकता है. लेकिन, मौजूदा एनडीए की सरकार से इसकी उम्मीद ही कैसे की जा सकती है?