प्रसंगवश

अब अर्थ निकालते रहिये

सुरेश महापात्र
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दंतेवाड़ा से वापस लौट चुके हैं. बस्तर में करीब 30 बरस बाद और दंतेवाड़ा में करीब 45 बरस बाद किसी प्रधानमंत्री का दौरा हुआ. सार्वजनिक सभा हुई. धुर नक्सल प्रभावित इलाके में, बदली हुई परिस्थितियों में ताक़तवर कहे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा से बहुत उम्मीद बंधी थी.

अब की बार मोदी सरकार के जुमलों के बीच दंतेवाड़ा में प्रधानमंत्री की सभा को देखना-सुनना अच्छा अनुभव रहा. 1970 के दशक में जब इंदिरा जी आईं थीं तब वे भी इतनी ही ताकतवर थीं. पर बस्तर को उस दौरे से क्या हासिल हुआ था, अब भी कोई बताने वाला नहीं है. हो भी तो कैसे? कुछ हुआ होता तो दिखता भी. यानी ऐसे प्रवासों से उम्मीदें बंधती हैं और बंधनी भी चाहिए आखिरकार वे हमारे प्रधानमंत्री हैं. अब तो प्रधानसेवक हैं.

करीब पौने तीन घंटे तक भारत के प्रधानमंत्री दंतेवाड़ा में रहे. 22 किलोमीटर सड़क मार्ग से चलकर दिखाया कि यहां पहुंचने वाले दिगर मंत्री और मुख्यमंत्री भी ऐसा करें. ताकि जनता को सुरक्षा का भरोसा दिलाया जा सके. नरेंद्र मोदी एजुकेशन सिटी पहुंचे, वहां करीब एक घंटे का वक्त बिताया. इसी परिसर के सक्षम आवासीय शाला में पहुंचे, वहां शारीरिक रूप से कमजोर बालकों से बातें की. एक बच्चे के गुनगुनाते गीत के साथ ताल मिलाया. उन बच्चों को क्या मालूम कि उनसे मिलने भारत के प्रधानमंत्री आएं हैं? उनके लिए नरेंद्र मोदी भी वही थे, जो बाकि हुआ करते हैं. इसके बाद इसी परिसर के ऑडिटोरियम में बच्चों से मन की बात की. इसमें किसके मन की बात थी, यह अंत तक समझ में नहीं आया.

बच्चों के सवालों के आध्यात्मिक जवाब मिले. सीख देने की कोशिश की. सफलता—विफलता, सेवा, धर्म आदि संस्कारों को प्रस्तुत किया. शायद यह कार्यक्रम बच्चों को चाकलेट देकर लुभाने जैसा ही था. यहां नक्सल पीड़ित बच्चों से भी मिले. पर शायद ही उन्हें यह पता रहा हो कि जो बच्चे उनसे सवाल कर रहे हैं, उनमें से कौन नक्सली हिंसा का शिकार रहा? यानी इस बातचीत पर पेश की गई तस्वीर और सच्चाई अलहदा है.

हालांकि प्रधानमंत्री मोदी से पूछे जाने वाले सारे सवाल तीन दिन पहले से ही मीडिया के पास थे. बेहतर होता, बच्चे मन का सवाल करते और पीएम के मन से जवाब मिलता. उम्मीद थी कि बच्चे नक्सली हिंसा और उसे लेकर अपना सवाल रखेंगे. पर ऐसा नहीं होना दर्शाता है कि जब सवाल ही वैसे नहीं था तो बच्चों को वैसा जवाब कैसे मिलता, जैसा हम सोचकर बैठे थे?

जो बातें प्रधानमंत्री जी ने सभा में कही उसके निहितार्थ निकाले जा रहे हैं. यह समझने की कोशिश की जा रही है कि आखिर क्या संदेश दे गए. क्या सरकार नक्सलियों से बात करे? क्या नक्सली सरकार से बात करे? क्या नक्सली मानवतापूर्वक सोच विकसित करें? क्या नक्सली इस विचार को आगे बढ़ाएं कि उनके द्वारा की गई हिंसा से जो बच्चे अनाथ हो गए हैं उनकी पीड़ा को समझना चाहिए?

इसके बाद प्रधानमंत्री ने नक्सलबाड़ी का उदाहरण दिया और बताने की कोशिश की कि लोग तंग आकर ऐसी विचारधारा को छोड़ चुके हैं. यानी जैसा नक्सलबाड़ी में हुआ वैसा बस्तर में होने तक इंतजार किया जाए. तीसरी बात प्रधानमंत्री मोदी ने पंजाब के आतंकवाद का उदाहरण देते कहा कि अब वहां शांति है, विकास है, खुशहाली है. यानी जो कांग्रेस ने पंजाब में किया वह सही था? एक प्रकार से यह नक्सलवाद से निपटने का तीसरा तरीका. शायद, यही संकेत वे देना चाह रहे हों.

पहले तरीके में यह उम्मीद बेमानी है कि माओवादी मानवतावादी बनकर अपना नया नजरिया प्रस्तुत करेंगे. दूसरे तरीके में नक्सलवाद का खात्मा गीता के सूत्र पर होगा यानी परिवर्तन संसार का नियम है. इसमें 100 बरस लगे या पांच सौ बरस इंतजार करें. तीसरा तरीका जो संकेतात्मक है, क्या इस तरीके के लिए सरकार विचार कर रही है ?

हालांकि प्रधानमंत्री दंतेवाड़ा पहुंचे और विकास के नाम पर 24 हजार करोड़ के एमओयू उनके सामने हस्ताक्षरित हुये.

प्रधानमंत्री की मेक इन इंडिया योजना में यही माओवाद सबसे बड़ी बाधा है. जिसे दूर किए बगैर ना तो शांति आएगी ना ही विकास आएगा. प्रधानमंत्री के दौरे के ठीक पहले माओवादियों ने बहिष्कार का ऐलान कर यह जता दिया कि वे सरकार के पहल के साथ तो कतई नहीं हैं. ऐसे में जो एमओयू किए गए हैं, वह ज़मीन पर कैसे उतरेगा ?

बस्तर में औद्योगिकरण के लिए राज्य सरकार ने दस बरस पहले टाटा और एस्सार से एमओयू किया था. जिसकी अवधि ही बढ़ाने में पसीने छूट रहे हैं. आज तक इन उद्योगों की एक ईंट तक नहीं रखी जा सकी है.

जिस नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कार्पोरेशन के साथ ताज़ा एमओयू हुआ है, उसी नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कार्पोरेशन ने इसी बस्तर के नगरनार में स्टील प्लांट लगाने में प्रगति दिखाई है, उसमें डेढ़ दशक लग चुके हैं. जबकि वह माओवाद प्रभावित इलाका नहीं था. भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया भी अविभाजित मध्य प्रदेश के दौर में पूरी की जा चुकी थी.

जब लालकृष्ण आडवानी ने इसका शिलान्यास किया था तो कहा गया था कि तीन बरस में उत्पादन प्रारंभ हो जाएगा. सात बरस हो गए, अभी भी करीब दो बरस का काम पूरा होना बाकि है. यानी बस्तर में औद्योगिकरण की राह उतनी आसान नहीं है जितनी मोदी मंत्र में कही गई है. रोजगार, स्किल, स्टील जैसे सारे शब्द तब तक बेमानी है जब तक केंद्र सरकार यह ना बताए कि बस्तर को हिंसा मुक्त करने का रोड मैप क्या है !
* लेखक दंतेवाड़ा से प्रकाशित ‘बस्तर इंपैक्ट’ के संपादक हैं.

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