राष्ट्र

किसान आत्महत्या पर मंथन जरूरी

नई दिल्ली | विचार डेस्क: राजनीति का धर्म और मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना है. देश का किसान फसलों पर बेमौसम की पड़ी मार से आत्महत्या कर रहा है. लेकिन बिडंबना देखिए कि राजनीति के लिए यह वसंत और वैशाखी का मौसम है. किसान की फसल चौपट हो चली है, लेकिन राजनीति की खेती लहलहा रही है.

किसान दमतोड़ रहा है, लेकिन सियासतदानों की जमीन को खैरात में खाद-पानी उपलब्ध हो रहा है. वाह रे अन्नदाता, तू कितना कारसाज है! तेरी दयालुता कितनी महान है. तेरी मौत हो पर कोई आंसू बहाने वाला नहीं है. लेकिन तू इस दुनिया से अलविदा होने के बाद भी राजनेताओं के लिए रोजी, रोजगार और रोटी उपलब्ध करा रहा है.

उफ! भारतीय राजनीति के लिए यह मंथन और चिंतन का सवाल है. सत्ता खिलखिला रही है और किसान राज प्रासाद के सामने फंदे पर लटक अपने प्राणों की आहुति कर रहा है.

70 फीसदी किसानों वाले देश के लिए इससे बड़ी क्षोभ और बिडंबना की बात और क्या हो सकती है. राजस्थान के दौसा जिले के नांगल झरवदा गांव का किसान गजेंद्र सिंह की चिता जली और संसद में इस संवेदनशील मसले पर चिंतन के बजाय हंगामा खड़ा किया जा रहा है.

दिल्ली के जंतर-मंतर पर गजेंद्र सिंह अपनी जान दे देता है. हजारों की भीड़ के सामने वह फांसी के फंदे पर लटक जाता है और आम आदमी के मसीहा अरविंद केजरीवाल का भाषण जारी रहता है. वे चिल्लाते हैं कि ‘उसे बचाओ’ लेकिन पुलिस तमाशबीन बनी रहती है. यह सत्ता की नपुंसकता का कैसा घिनौना चेहरा है.

केंद्र सरकार के अधीन रहने वाली दिल्ली पुलिस किसान को बचाने के बजाय तमाशा क्यों देखती रही? हादसे के बाद भी केजरीवाल का भाषण क्यों चलता रहा? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिसका कोई जबाब नहीं है. देश में 12,000 किसान प्रति वर्ष फसल की बार्बादी, कर्ज की अधिकता, राजस्व वसूली और बैंकों के दबाव के कारण आत्महत्या को मजबूर होते हैं.

देश में 1.2 करोड़ हेक्टेयर पर बोई गई गेहूं की फसल बर्बाद हो चली है. इसकी कीमत तकरीबन 65,000 करोड़ रुपये बैठती. 4.5 करोड़ किसान इस आपदा से प्रभावित हैं. कृषि के लिए ढांचागत विकास न होने से किसानों की संख्या घट रही है. किसान अब मजबूर बन रहा है. वर्ष 2001 में किसानों की संख्या 12.73 करोड़ थी, जबकि 2011 में यह घटकर 11 करोड़ 88 लाख पर पहुंच गई. देश में साल 2011 में 14027, 2012 में 13754 और 2013 में 11772 किसानों ने विभिन्न कारणों से आत्महत्या की.

महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा शासन के बाद सत्ता की कमान संभालने वाली भाजपा की फड़नवीस सरकार में अब तक 600 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. एक हेक्टेयर में बोई गई गेहूं की फसल पर 90 हजार रुपये से अधिक की लागत लगती है. इसमें सबसे अधिक खर्च 68 हजार रुपये श्रम पर आती है, लेकिन मुवावजे पर सरकरों की ओर से किसानों के साथ कितना भद्दा मजाक किया जा रहा है. उन्हें मुवावजे के नाम पर 62 और 72 रुपये के चेक दिए जा रहे हैं. वह भी बाउंस हो रहे हैं.

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? किसी के पास है इसका जबाब? देश में अब तक लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन सियासी गलियारे में इस मसले पर कभी इतनी गरमाहट नहीं देखी गई. लेकिन गजेंद्र सिंह की मौत में आखिर वह कौन सा राज छुपा है, जिस पर हंगामे के चलते संसद ठप करनी पड़ रही है.

क्या इसलिए कि गजेंद्र सिंह आम किसानों से अलग था, या वह जिस इलाके से आता है, वहां ‘सबका साथ सबका विकास’ वाली भाजपा की सरकार है!

गजेंद्र की मौत इसलिए खास बनी, क्योंकि उसने जहां मौत को गले लगाया, वह दिल्ली की सत्ता का राज प्रासाद है, संसद से बिल्कुल नजदीक है. उसकी मौत राज प्रासाद के दरवाजे पर हुई है. इसलिए सरकारों के मुंह पर कालिख पुत गई है. सत्ता के लिए राजनीति करने वालों का मुंह काला हो गया है, क्योंकि वह दिल्ली है.

दिल्ली का आम आदमी जब बोलता है तो उसकी आवाज दूर तक जाती है. वहां का मीडिया विमर्श मजबूत है. इसलिए यह मौत देशव्यापी हो चली है. अगर यही मौत दिल्ली के बजाय विदर्भ, बुंदेलखंड या राजस्थान या आंध्र प्रदेश के गांवों में होती तो इतना हंगामा न बरपता. अंत्येष्टि में काफी संख्या में सफेदपोश न पहुंचते.

हमें दलीय सीमा से बाहर आना होगा. सत्ता हो या प्रतिपक्ष सबको अपनी नैतिक जिम्म्मेदारी तय करनी होगी. ‘मेरा कुर्ता सफेद, तेरे पर दाग’ की विचार नीति को त्यागना होगा. देश की रणनीतिकारों के लिए यह चिंतन और चिंता का सवाल है.

हम भारत निर्माण और ‘मेक इन इंडिया’ का खोखला दंभ भरकर भारत का विकास नहीं कर सकते. देश की 70 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है. हमारे पास ऐसा कोई विकल्प नहीं जिससे हम कृषि और उसके उत्पादन को प्राकृतिक आपदा से बचा पाएं. भारत की अर्थ व्यवस्था में कृषि और उसके उत्पादनों का बड़ा योगदान है. खाद्यान्न के मामले में अगर आज देश आत्मनिर्भर है तो यह अन्नदाताओं की कृपा से. उफ! लेकिन यह दर्दनाक तस्वीर है.

बुंदेलखंड का किसान परिवार अनाज के अभाव में सूखे बेर और पापड़ बनी पूड़िया खाने को मजबूर है. चरखारी में किसान दयाराम की आत्महत्या हमारे लिए बड़ी चुनौती खड़ी करती है. खेती और किसानों पर सिर्फ और सिर्फ राजनीति. सब कुछ धोखा, हर जगह छलावा.

भारत में दो देश बसते हैं. एक वह, जिसे हम ‘इंडिया’ कहते हैं और दूसरा वह जिसे हम ‘भारत’ कहते हैं. इंडिया बलवान और धनवान हो रहा है, जबकि भारत निरंतर निर्बल और गरीब.

प्राकृतिक आपदा ने हमारी व्यवस्था को जमीन पर ला दिया है. सरकार और उसकी ब्यूरोक्रेसी कटघरे में है. किसानों को मदद पहुंचाने के अलावा कुछ भी सार्थक नहीं है. कुछ है तो सिर्फ मंचीय भाषण, जांच और रपटें..जिसका कभी अंत नहीं होता.

कृषि के लिए आज तक सरकारें कोई ढांचागत विकास नहीं खड़ा कर पाई हैं. कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं मिल सका है. किसानों की फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है. बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए हमारे पास कोई नीतिगत नीति नहीं है. अगर कुछ है तो बस आश्वासनों की घुट्टी और मुवावजे के लिए ’63 से 70′ रुपये का चेक. वह भी ऐसा कि बैंकों में जमा करने के बाद बाउंस हो जाता है. इससे बड़ा भद्दा मजाक और क्या हो सकता है.

देशभर से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं, लेकिन अभी तक सरकारें केवल मुआवजे और फौरी राहत की सियासत कर रही हैं. किसानों की दशा और दिशा बदलने के बजाय प्रतिपक्ष के हंगामे की चिंता पर पतली हो रही हैं.

राजनीति की प्रतिस्पर्धा में एक-दूसरे को पीछे रह जाने का डर रहता है. सियासी दलों के लिए किसानों की आत्महत्या थोक वोट बैंक का आधार है. सभी को लगता है कि अगर इस पर घड़ियाली आंसू नहीं गिराए गए तो वोट बैंक हाथ से फिसल जाएगा.

राजनीति का हालिया विमर्श भी यह कहता है कि किसी भी नीतिगत मसले पर कुछ करो या न करो, लेकिन आंसू टपकाना और चर्चा में बने रहना मत भूलो.

प्राकृतिक आपदा से सबसे अधिक मध्य और पश्चिम भारत में नुकसान हुआ है. देश में खेती का मूल केंद्र यही इलाका है. मौसम वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाला मानसून भी कमजोर होगा. इससे किसानों की चिंता और बढ़ गई है.

सिर्फ सत्ता और सरकार बदलने से किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता. इसके लिए संसद में व्यापक बहस होनी चाहिए. कृषि विकास के लिए ठोस नीति बनाई जाए, जिससे प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए हमारे किसानों के पास पर्याप्त संसाधन हों. उन्हें कर्ज के बोझ तले मौत की चुनौती न स्वीकारनी पड़े. खेतों तक सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराई जाए, जैविक खेती पर जोर दिया जाए.

किसान हित में संचालित संस्थाओं और योजनाओं को धरातलीय बनाया जाए. सस्ते कर्ज और खाद-बीज के साथ उर्वरकों की सुलभता सुनिश्चित की जाए. किसानों के लिए मुद्रा बैंक की तर्ज पर कृषि बैंक की स्थापना की जाए, जिससे विषम परिस्थितियों में किसानों को फौरी राहत उपलब्ध हो सके.

लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की ओर से की गई टिप्पणी जमीनी हकीकत के करीब है. उन्होंने कहा कि जब किसान आत्महत्या कर रहा था, उसे क्या कोई बचाने गया था? अगर नहीं तो क्या सिर्फ बहस करना ही आपका दायित्व है?

उन्होंने यह भी कहा कि सभी दल राजनीति कर रहे हैं. देश की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ की मुखिया की यह चिंता वाजिब है. देश में किसानों की आत्महत्या राजनीति और हंगामे का विषय नहीं, यह मंथन का सवाल है.

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