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गरीबों का मिट्टीतेल प्रतिबंधित न हो

बेंगलुरू | एजेंसी: मिट्टीतेल से जलने वाले परिष्कृत लालटेन के आविष्कारक भारतीय वैज्ञानिकों ने सरकार को सलाह दी है कि पर्यावरण को आधार बनाकर गरीबों के ईंधन को बाजार से न हटाएं. गांवों में मिट्टीतेल का उपयोग पारंपरिक लालटेन या स्टोव जलाने में होता है.

अब महाराष्ट्र के फल्टान स्थित निंबकर कृषि शोध संस्थान (एनएआरआई) ने एक ऐसे लालटेन का विकास किया है, जो एक साथ 300 वाट के बिजली के बल्ब के बराबर रोशनी भी देता है और पांच लोगों के लिए रोटी सहित संपूर्ण भोजन पका सकता है. इस लालटेन को लैस्टोव कहा जा रहा है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के पूर्व छात्र और एनएआरआई के निदेशक अनिल राजवंशी ने कहा कि इस प्रकार लैनस्टोव मिट्टीतेल को गांव के गरीबों का आदर्श ईंधन बना देता है.

उन्होंने कहा कि यह दुखद है कि पर्यावरण को आधार बनाकर पश्चिमी देशों द्वारा लगातार की जा रही आलोचना के कारण सरकार ने मिट्टीतेल को बाजार से हटाने का फैसला कर लिया है.

राजवंशी ने कहा कि कोई भी ईंधन अपने आप में स्वच्छकर या प्रदूषणकारी नहीं होता है. यह उसके जलने या दहन के तरीके पर निर्भर करता है. तरल प्राकृतिक गैस (एलपीजी) और संपीड़ित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) इसलिए स्वच्छ ईंधन है, क्योंकि इसके जलने के लिए सर्वोत्तम तकनीक मौजूद है.

उन्होंने कहा कि बेशक पारंपरिक लालटेन एक अस्वच्छ दहन उपकरण है.

विज्ञान पत्रिका ‘करेंट साइंस’ के ताजा संस्करण में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, प्रदूषण कम करने के लिए ही लैनस्टोव का विकास किया गया है. लैनस्टोव में जलने वाले मिट्टीतेल से प्रदूषण नहीं फैलता है. पिछले आठ महीने से पश्चिमी महाराष्ट्र के 25 ग्रामीण घरों में इसका परीक्षण किया जा रहा है.

परीक्षण में देखा गया कि यह पारंपरिक बायोमास चूल्हे जितना प्रदूषण नहीं फैलता है और एक पारंपरिक लालटेन से अधिक रोशनी भी देता है.

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