प्रसंगवश

इंतिहा ए इश्क में रोता है क्यों ?

कनक तिवारी
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त होते मुख्य न्यायाधीश यतीन्द्र सिंह अपने ही अदालत कक्ष में अपने बिदाई समारोह में कई बार फूट फूटकर रोए. न्यायिक इतिहास के जानकारों के अनुसार यह संभवतः पहला भावुक उदाहरण था. यतीन्द्र सिंह लगभग दो वर्षों तक बिलासपुर में पदस्थ रहे थे. उनके ठीक पहले मुख्य न्यायाधीश रहे राजीव गुप्ता का कार्यकाल तीन वर्षों का था. बाकी किसी मुख्य न्यायाधीश को इतने लम्बे कार्यकाल नहीं मिले.

सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश एच. एल. दत्तू छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में ही मुख्य न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत होकर आए थे. वे बमुश्किल तीन माह रहे. छत्तीसगढ़ से दूसरे मुख्य न्यायाधीश अनंग कुमार पटनायक भी छह माह रहकर मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने. फिर वहां से सुप्रीम कोर्ट के जज हुए.

छत्तीसगढ़ के बाकी किसी मुख्य न्यायाधीश को तरक्की के नियमों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट पहुंचने का मौका नहीं दिया गया. न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह को इस बात का अलबत्ता संतोष था कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट भवन को सूर्यशक्ति से जोड़ने के अतिरिक्त व्यवस्था को ऑनलाइन करने, न्यायाधीशों और वकीलों के बीच सामंजस्य बढ़ाने के लिए क्रिकेट मैच और आनन्द मेला आयोजित करने, न्यायाधीशों के रिहायशी परिसर में रेलवे आरक्षण का कार्यालय खुलवाने तथा इंडियन लॉ इंस्टीट्यूट की शाखा खुलवाने जैसे कई काम किए हैं. वे इस बात को लेकर भावुकता में तल्ख हुए कि कई मसलों पर वकीलों के प्रतिनिधि संगठन ने अपेक्षित सहयोग नहीं किया. उन्होंने यह संकेत भी किया कि सभी सहयोगी न्यायाधीशों की सहमति नहीं होने के कारण शायद कुछ कार्य अधूरे रह गए.

मुख्य न्यायाधीश के अनायास उमड़े आंसुओं के पीछे छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग की बहुलता के प्रदेश की न्यायिक प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर कई बौद्धिक सवाल फन काढ़ते रहे हैं. उनका उत्तर देने के पहले उनकी जांच आवश्यक है. बिलासपुर में उच्च न्यायालय का मुख्यालय राजनीतिक समझौतों के तहत किया गया प्रचारित किया गया. बिलासपुर के हवाई यातायात से वंचित होने के कारण कई न्यायाधीश स्थानांतरण पर छत्तीसगढ़ आने से सकुचाते रहे.

अमूमन सफल वकील पैंतालीस वर्ष की उम्र के बाद उच्च न्यायाधीश बनाए जाते हैं. तब तक उनके छोटे बच्चों की शिक्षा का सवाल उठ खड़ा होता है जिन्हें वे अपने से अलग नहीं रखना चाहते. इसके अतिरिक्त उनके साथ यदि माता पिता भी हों तो उनकी चिकित्सा सुविधाएं सरलता से उपलब्ध होना चाहिए. देश के चुनिंदा वकील बौद्धिक नस्ल सुधारने की भूमिका का मुखौटा लगाए नई दिल्ली और अन्य महानगरों से उड़कर एक ही दिन में बहस निपटाकर हवाईजहाज से लौटने में असमर्थ होने के कारण छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय आने में सकुचाते रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत न्यायाधीश भी बड़ी मुश्किल से कभी कभार आए हैं. कई निजी कंपनियों ने इसी कारण महानगरों में अपने मुख्यालय बना लिए हैं ताकि छत्तीसगढ़ में व्यवसाय करने के बावजूद यहां मुकदमा दायर नहीं करना पड़े.

नए बने प्रदेश छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायालय में जबलपुर उच्च न्यायालय से कुछ इने गिने वे वकील लौटे जो छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं. तकरीबन वे सभी अब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं. राज्य बनने के वक्त जो वकील छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिला न्यायालयों में प्रैक्टिस कर रहे थे उनमें से एक दो अपवादों को छोड़कर न्यायाधीश बनने के लिए विचारित नहीं हो पाए. वकीलों और न्यायाधीशों की न्यायिक समझ की गुणवत्ता का परिष्कार करने के लिए न्यायाधीशों और वकीलों ने सार्थक प्रयत्न नहीं किए.

न्यायिक समझ को तो इस बात के लिए रोना आता है कि छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के ऐसे बहुत से न्यायिक दृष्टान्त नहीं हैं जो न्यायिक निर्वचन की मौलिकता के दरवाजे़ पर दस्तक देते हैं. न्यायमूर्ति अनंग कुमार पटनायक अकेले अपवाद थे जिन्होंने अपने संक्षिप्त कार्यकाल में न्यायिक अनुसंधान की दिशा में योगदान करने की कोशिश की. यह दुखद है कि जिन न्यायाधीशों को बड़ा कार्यकाल मिला उनके वक्त भी ऐसे प्रयोजन नहीं हुए जिससे छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय परिसर को न्यायिक आभा से प्रदीप्त किया जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट के कई जज और देश के विधि विचारक लगातार मांग कर रहे हैं कि उच्चतर न्यायिक नियुक्तियों में पिछड़े वर्गों और महिला न्यायाधीशों को सम्मानजनक प्रतिनिधित्व दिया जाए. यह दुर्भाग्यजनक है कि न्यायाधीशों को आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग और महिला वकीलों में सिफारिश के लायक प्रतिनिधि नहीं मिले. फिर छत्तीसगढ़ को इन वर्गों की बहुलता के प्रदेश के रूप में प्रचारित करने की परम्परा क्यों कायम रखी जाती है.

सरकारी व्यवस्था में भी विधि सचिव के पद पर एक जिला न्यायाधीश को नियुक्त किया जाता है. जिला न्यायालय तक संविधान की पोथी का कोई व्यावहारिक प्रशासनिक उपयोग नहीं होता. ऐसे विधि सचिव से सरकार संवैधानिक उपपत्तियों को सुलझाने की उम्मीद करती है. उस पद पर किसी संविधान विशेषज्ञ, प्राध्यापक या वकील को नियुक्त नहीं किया जाता. इस कारण कई मुद्दों पर सरकार के निर्णयों की भद्द पिटती है. राज्य सरकार है कि फिर भी मरी हुई व्यवस्था को चिपकाए बैठी है.

कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और देश के सबसे बड़े उच्च न्यायालय इलाहाबाद के भवनों से ज्यादा भव्य भवन बिलासपुर उच्च न्यायालय का बनाया गया है. शहर से दस पन्द्रह किलोमीटर से दूर बनाए इस भव्य राजप्रासाद के अवलोकन से जनतांत्रिक न्याय का निर्झर बहता नहीं दिखाई देता. गरीब मुवक्किलों, रिक्शा वालों, छोटे दुकानदारों जैसे कई लोगों का आर्थिक नुकसान हुआ है जो उच्च न्यायालय के पुराने भवन में रहने तक अपने कामकाज से लगे थे.

न्याय व्यवस्था को इतनी तड़क भड़क की क्या जरूरत थी कि एक गरीब देश के करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते. नए न्यायिक रिहायशी परिसर के तैयार होने के बावजूद उच्च न्यायालय के अधिकांश न्यायाधीश उन बंगलों को खाली कर नहीं जा रहे हैं जो अन्यथा राज्य सरकार ने सरकारी अधिकारियों से लेकर उच्च न्यायालय को अस्थायी तौर पर आवंटित किए थे. न्यायिक व्यवस्था के अन्य अधीनस्थ कर्मचारियों को लेकर भी ऐसी ही स्थिति है.

मुख्य न्यायाधीश हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के चांसलर भी होते हैं. इस यूनिवर्सिटी के आने से छत्तीसगढ़ को एक गौरवशाली संस्थान मिला है. उसके कुछ स्नातक छात्र इसी तरह की अन्य यूनिवर्सिटियों के स्नातकों की तरह छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में बेहतर प्रैक्टिस कर रहे हैं. वे भविष्य के न्यायाधीश हैं.

इसके बरक्स राज्य की सरकारी यूनिवर्सिटियों में जिस तरह की लचर पढ़ाई विधि विभाग में हो रही है उसे देखकर शर्म आती है. अमूमन ऐसे उच्च शिक्षा मंत्री होते हैं जिन्हें यह अनुत्पादक विभाग सुहाता नहीं है. केन्द्रीय यूनिवर्सिटियों में बहुत जहीन, अमीर तथा अंग्रेजीदां परिवारों के ज्यादा नवयुवक चयनित होते हैं. छत्तीसगढ़ के गरीब और मध्यवर्गीय परिवारों के नवयुवक विधि की स्नातकोत्तर कक्षाओं में इस तरह भर्ती होते हैं कि अध्यापक, विश्वविद्यालय प्रशासन और सरकारी उपेक्षाएं मिलकर उनके भविष्य को जिबह कर देते हैं. सूचना के अनुसार पिछले लगभग चालीस वर्षों से रंविशंकर विश्वविद्यालय के एल.एलएम. पाठ्यक्रम में हर वर्ष चालीस विद्यार्थी भर्ती होते हैं. लेकिन औसतन एक या दो पास होते हैं. विश्वविद्यालय संतुष्ट है.

इंग्लैंड के महान न्यायाधीश और दार्शनिक बेकन ने कहा था कि न्यायाधीशों को साधु संतों की तरह होना चाहिए. केन्द्रीय विधि आयोग ने बार बार कहा है कि वकीलों को उसी उच्च न्यायालय में जज नहीं बनाना चाहिए जहां वे तथा उनके रिश्तेदार लगातार प्रैक्टिस करते रहे हैं. इसके बावजूद कोई नया न्यायाधीश यह लिखकर नहीं देता कि उसे अन्य न्यायालय में स्थानान्तरित कर दिया जाए. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश तो अपनी संपत्ति की जानकारी तक सार्वजनिक करने में हीला हवाला करते मुकदमा तक लड़ने में उतारू रहे हैं. इस लिहाज़ से न्यायमूर्ति यतीन्द्र सिंह ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में बेहतर परम्पराएं स्थापित की हैं.

उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों की कार्यावधि भी एक चिंताजनक कारण है. कई न्यायाधीश एक वर्ष से कम की अवधि के लिए पदस्थ होते हैं. उससे प्रदेश के उच्च न्यायालय को कोई लाभ नहीं होता. बेहतर व्यवस्था तो यह हो सकती है कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश अन्य राज्यों के वकीलों में से बनाए जाएं और उसी प्रदेश के वरिष्ठतम न्यायाधीश को अपने प्रदेश के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाया जाए. मौजूदा व्यवस्था इसके ठीक उलट है. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को भारतीय संविधान ने इतनी अधिक सुरक्षा दी है जिसके कारण बहुत सी कठिनाइयां खड़ी हो गई हैं. हर परेशानी को लेकर हर व्यक्ति संसद के दो तिहाई सदस्यों को जुटाए तब कहीं जाकर आरोपी न्यायाधीश के विरुद्ध कोई कार्यवाही हो सके.

राज्य के बड़े वकीलों, कार्यरत और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों आदि में विधि छात्रों को पढ़ाने की कोई परम्परा या ललक नहीं दिखाई देती. कनिष्ठ वकीलों की आर्थिक सुरक्षा के लिए कोई कारगर प्रबन्ध नहीं होते. वरिष्ठ वकील भी उनके लिए सही मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह नहीं कर पाते. सरकारी वकीलों के मनोनयन में न्यायाधीशों और आई.ए.एस. अधिकारियों से जुड़े वकीलों का बहुमत होता है. मौजूदा केन्द्र सरकार ने न्यायाधीशों की नियुक्तियों और जवाबदेही आदि को लेकर जो नया विधायन किया है उससे कुछ तो उम्मीद जगी है. उच्च न्यायालयों में न्यायिक भ्रष्टाचार अब अपरिचित रिश्तेदार नहीं है.

वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने तो यह आरोप लगाया ही है कि उच्चतम न्यायालय के आधे से अधिक मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट रहे हैं. उन पर उच्चतम न्यायालय की अवमानना का प्रकरण भी चल रहा है. निर्धनों को मुफ्त कानूनी सहायता के जुमले पर सफल वकील आचरण नहीं करते. ‘मरी बछिया बाम्हन‘ की शैली में निर्धनों को ऐसी कानूनी सहायता मुहैया कराई जाती है कि यदि नहीं कराई जाती तो बेहतर होता.

जिला न्यायालयों की कार्यवाही की जांच उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा पूर्व सूचना के बदले यदि अचानक पहुंचकर की जाए तो व्यवस्था में सार्थक धड़कनें सुनाई पड़ सकती हैं. एक महत्वपूर्ण वकील परिवार के वंशज के रूप में सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश की आंखों में उमड़े आंसुओं में शायद ऐसी बहुत सी विसंगतियों की किरकिरी होगी जिन्हें दूर करने के लिए किसी तरह के राष्ट्रीय न्यायिक स्वच्छता अभियान की झाड़ू कौन ईजाद करेगा?

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