बेगम अख्तर ने गज़ल को अमर बनाया
नई दिल्ली | मनोरंजन डेस्क: ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं जिनकी मौत के चार दशक बाद भी उनकी आवाज़ फ़िजा में गूजती रहती है. उनमें से एक बेगम अख्तर हैं जिनकी आज 100वीं जयंती है. कहा जाता है कि यदि बेगम अख्तर न होती तो गज़ल, गज़ल न होती. बेगम अख्तर ने गज़ल को गायिकी के शीर्ष तक पहुंचाया. एक जमाना था जब बेगम अख्तर के गज़ल के दीवाने में प्रसिद्ध कवयित्री सरोजनी नायडू भी थी. हिंदुस्तान में शास्त्रीय रागों पर आधारित गजल गायकी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाली विख्यात गायिका बेगम अख्तर के परिचय में उर्दू के अजीम शायर कैफी आजमी की कही यह पंक्ति ही काफी है- “गजल के दो मायने होते हैं-पहला गजल और दूसरा बेगम अख्तर.”
बेगम अख्तर अपनी मखमली आवाज में गजल, ठुमरी, ठप्पा, दादरा और ख्याल पेश कर मशहूर होनेवाली एक सदाबहार गायिका थीं. सात अक्टूबर, 1914 को उत्तर प्रदेश राज्य के फैजाबाद में जन्मीं प्रतिभाशाली कन्या अख्तरी बाई यानी बेगम अख्तर आगे चलकर ‘मल्लिका-ए-गजल’ कहलाईं और पद्मभूषण से सम्मानित हुईं. उनका बचपन का नाम ‘बिब्बी’ था.
कुलीन परिवार से ताल्लुक रखने वाली अख्तरी बाई को संगीत से पहला प्यार सात वर्ष की उम्र में थियेटर अभिनेत्री चंदा का गाना सुनकर हुआ. उस जमाने के विख्यात संगीत उस्ताद अता मुहम्मद खान, अब्दुल वाहिद खान और पटियाला घराने के उस्ताद झंडे खान से उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत की दीक्षा दिलाई गई.
अख्तरी ने 15 वर्ष की बाली उम्र में मंच पर अपनी पहली प्रस्तुति दी थी. यह कार्यक्रम वर्ष 1930 में बिहार में आए भूकंप के पीड़ितों के लिए आर्थिक मदद जुटाने के लिए आयोजित किया गया था, जिसकी मुख्य अतिथि प्रसिद्ध कवयित्री सरोजनी नायडू थीं. वह अख्तरी की गायिकी से इस कदर प्रभावित हुईं कि उन्हें उपहार स्वरूप एक साड़ी भेंट की.
उस कार्यक्रम में उन्होंने गजल ‘तूने बूटे हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई, ताकता तेरी सूरत हरेक तमाशाई’ और दादरा ‘सुंदर साड़ी मोरी मायके मैलाई गई’ से समां बांधा था.
‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे..’, ‘कोयलिया मत कर पुकार करेजा लगे कटार..’, ‘छा रही घटा जिया मोरा लहराया है’ जैसे गीत उनके प्रसिद्ध गीतों में शुमार हैं. ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ उनकी सबसे मशहूर गजल है.
उनकी गायकी जहां एक ओर चंचलता और शोखी भरी थी, वहीं दूसरी ओर उसमें शास्त्रीयता और दिल को छू लेने वाली गहराइयां भी थीं. आवाज में गजब का लोच, रंजकता और भाव अभिव्यक्ति के कैनवास को अनंत रंगों से रंगने की क्षमता के कारण उनकी गाईं ठुमरियां बेजोड़ हैं.
अख्तरी के पास सब कुछ था, लेकिन वह औरत की सबसे बड़ी सफलता एक कामयाब बीवी होने में मानती थीं. इसी चाहत ने उनकी मुलाकात लखनऊ में बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी से कराई. यह मुलाकात जल्द निकाह में बदल गई और इसके साथ ही अख्तरी बाई, बेगम अख्तर हो गईं, लेकिन इसके बाद सामाजिक बंधनों की वजह से बेगम साहिबा को गाना छोड़ना पड़ा.
गायकी छोड़ना उनके लिए वैसा ही था, जैसे एक मछली का पानी के बिना रहना. वे करीब पांच साल तक नहीं गा सकीं, जिसके कारण वह बीमार रहने लगीं. यही वह वक्त था जब संगीत के क्षेत्र में उनकी वापसी उनकी गिरती सेहत के लिए हितकर साबित हुई और 1949 में वह रिकॉर्डिग स्टूडियो लौटीं. उन्होंने लखनऊ रेडियो स्टेशन में तीन गजल और एक दादरा गाया. तत्पश्चात उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े और उन्होंने संगीत गोष्ठियों में गायन का रुख किया. गायकी का यह सिलसिला उनकी आखिरी सांस तक जारी रहा.
बेगम साहिबा का आदर समाज के जाने-माने लोग करते थे. सरोजनी नायडू और शास्त्रीय गायक पंडित जसराज उनके जबर्दस्त प्रशंसक थे, तो कैफी आजमी भी अपनी गजलों को बेगम साहिबा की आवाज में सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे. वर्ष 1974 में बेगम अख्तर ने अपने जन्मदिन के मौके पर कैफी आजमी की यह गजल गाई-
‘वो तेग मिल गई, जिससे हुआ था कत्ल मेरा
किसी के हाथ का लेकिन वहां निशां नहीं मिलता.’
इसे सुनकर वहां मौजूद कैफी सहित तमाम लोगों की आंखें नम हो गईं. किसी को नहीं मालूम था कि इस गजल का यह मिसरा इतनी जल्द सच हो जाएगा. 30 अक्टूबर, 1974 को बेगम साहिबा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
कला क्षेत्र में योगदान के लिए भारत सरकार ने बेगम अख्तर को 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1968 में पद्मश्री और 1975 में पद्मभूषण से सम्मानित किया. अपनी जादुई आवाज से श्रोताओं के दिलों के तार झंकृत करने वाली यह महान गायिका 30 अक्तूबर 1974 को इस दुनिया को अलविदा कह गई. बेगम अख़्तर की तमन्ना आखिरी समय तक गाते रहने की थी जो पूरी भी हुई. मृत्यु से आठ दिन पहले उन्होंने मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की यह ग़ज़ल रिकार्ड की थी-
सुना करो मेरी जां, उनसे उनके अफ़साने.
सब अजनबी हैं यहां, कौन किसको पहचाने॥