प्रसंगवश

चेतन भगत कितना जानते हैं छत्तीसगढ़ को

दिवाकर मुक्तिबोध
राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष सुनील कुमार की मंशा के अनुरूप आयोग के परम्परागत स्वरूप में बदलाव की प्रक्रिया पूरी हो गई है.

छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव रह चुके सुनील कुमार की सिफारिश पर अशासकीय सदस्यों के रूप में कुछ बड़े नामों को शामिल किया गया है जिसमें देश के मशहूर लेखक एवं चिंतक चेतन भगत भी हैं. चेतन भगत की नियुक्ति को भले ही सामान्य माने किन्तु उन पर भाजपा समर्थक होने का ठप्पा चस्पा है तथा वे अपने लेखों के माध्यम से नरेन्द्र मोदी की पैरवी करते नजर आते रहे हैं.

अब चूंकि केन्द्र में मोदी सरकार है लिहाजा चेतन भगत की सेवाएं सलाहकार या विशेषज्ञ के रूप में स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ राज्य योजना आयोग में उनकी नियुक्ति को इस नजरिए से भी देखा जा सकता है. बहरहाल आयोग के अन्य नामचीन अशासकीय सदस्य हैं डॉ. दामोदर आचार्य, डॉ. दिनेश मरोठिया तथा अरविंद पनगरिया. विभिन्न क्षेत्रों के इन विशेषज्ञों के अलावा तीन मंत्री एवं कुछ शासकीय अधिकारी भी आयोग में हैं. मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह अध्यक्ष हैं. योजना आयोग को सुदृढ़ बनाने की सरकार की कवायद पूरी हो गई और अब बैठकों एवं विचार-विमर्श का दौर चलने वाला है.

राज्य योजना आयोग का काम राज्य के लिए विकास योजनाएं बनाना तथा फंड के लिए केन्द्रीय योजना आयोग में पैरवी करना है. राज्य की पंचवर्षीय योजनाएं सभी क्षेत्रों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तैयार की जाती हैं. काम महत्वपूर्ण है क्योंकि इन्ही योजनाओं के आधार पर राज्य के विकास की दिशा तय होती है. इस लिहाज से आयोग का जनता की आवश्यकताओं एवं समस्याओं से भिज्ञ रखना अतिआवश्यक है. जो आयोग इस सन्दर्भ में जितना चैतन्य होगा, उसी के अनुरूप योजनाओं का खाका तय हो सकेगा. चूंकि छत्तीसगढ़ राज्य योजना आयोग में पहली बार विशेषज्ञों को शामिल किया गया है अत: उम्मीद की जानी चाहिए उसे एक नई दृष्टि मिलेगी, जिसकी झलक उसके कामकाज में नजर आएगी.

लेकिन सवाल है, राज्य से बाहर के विशेषज्ञ छत्तीसगढ़ को कितना जानते हैं. चेतन भगत उपन्यासकार हैं. यह तय शुदा बात है कि साहित्यिक कल्पना में ज्यादा जीते हैं. किन्तु आयोग को कल्पनाशीलता के साथ-साथ यथार्थ को जानने-पहिचानने वाले लोगों की जरूरत हैं. चेतन भगत, कोलम्बिया विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री अरविंद पनगरिया, आईआईटी खड़गपुर के पूर्व निदेशक दामोदर आचार्य तथा राज्य के बाहर के अन्य सदस्यों को अपना कामकाज शुरू करने के पूर्व छत्तीसगढ़ की समस्याओं, जनता की आवश्यकताओं एवं विभिन्न क्षेत्रों में विकास की संभावनाओं पर गौर करना होगा, यानी उन्हें पहले राज्य की भौगोलिक, आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति से रूबरू होना चाहिए. जब तक वे समग्र रूप से छत्तीसगढ़ को ठीक से नहीं समझेंगे, अपने दायित्व के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे.

चूंकि आयोग के उपाध्यक्ष सुनील कुमार छत्तीसगढ़ को बेहतर जानते हैं. अत: उम्मीद की जा सकती है कि वे सबसे पहले इस ओर ध्यान देंगे. योजना आयोग विकास के प्रारूप को लेकर अब तक महज औपचारिकता का निर्वाह करता रहा है. उसमे दृष्टि का अभाव रहा है. अब उम्मीद की जानी चाहिए नए सदस्यों की मौजूदगी में एक दृष्टिपरक विकास का दस्तावेज तैयार किया जा सकेगा.

सुनील कुमार ने विकास योजनाओं को जिले में ले जाने का इरादा जाहिर किया है अर्थात वे जिलों के विकास के लिए जिलेवार योजनाएं बनाना चाहते हैं. यह कोई नया विचार नहीं है. अविभाजित मध्य प्रदेश में जिला सरकारों का गठन इसी उद्देश्य से प्रेरित रहा है जिसमें जिला प्रशासन के अधिकारियों के अलावा राजनीति एवं अन्य क्षेत्रों के महत्वपूर्ण व्यक्ति शामिल रहे हैं. ये जिला सरकारें जिले के विकास की दिशा तय करने के साथ-साथ उसके क्रियान्वयन पर भी निगाह रखती थीं. यह एक अच्छा प्रयोग था किन्तु राजनीति के चक्रव्यूह में फंसकर वांछित नतीजे नहीं दे सका.

कांग्रेस के जमाने की 20 सूत्रीय समितियां भी लगभग इसी दिशा में काम करती थीं. इनमें सबसे अच्छी बात यह थी कि इनका जनता से सीधा सरोकार था. आम लोगों की आवश्यकताओं, उनके सवालों, समस्याओं एवं प्रशासन से जुड़े मसलों पर ये ध्यान केन्द्रीत करती थीं. यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि लोकशाही के प्रतीक के रूप में ये समितियां सर्वांगीण विकास को मजबूत आधार दे सकती थी. किन्तु राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव के साथ-साथ यह प्रयोग धीरे-धीरे नेपथ्य में चला गया. अब चुनाव आयोग लगभग उसी अवधारणा को जीवित करने का प्रयास कर रहा है.

जहां तक राज्य के विकास का सवाल है, पिछले एक दशक में आधारभूत संरचनाओं का निर्माण तो हुआ है, पर आम आदमी, विशेषकर सर्वहारा वर्ग को न तो योजनागत सुविधाएं मिल पा रही हैं और न ही उनका जीवन स्तर सुधरा है. विशेषकर आदिवासी बहुल इलाकों में जीवन अभी भी अत्यंत कठिन है. राज्य में लगभग 33 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. उनके नाम पर तथा उनके क्षेत्रों में अधोसंरचना के विकास के लिए अब तक करोड़ों की योजनाएं बनीं लेकिन अधिकांश या तो कागजों तक सीमित रहीं या आबंटित धनराशि का दुरूपयोग हुआ या फिर अन्यान्य कारणों से, जिनमें नक्सलवाद प्रमुख है; उनका उपयोग नही किया जा सका.

जाहिर है बस्तर, सरगुजा जैसे इलाकों का विकास सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है, जो दशकों से चली आ रही है. योजना आयोग के प्रखर बुद्धिजीवियों को इस तथ्य पर भी गौर करना होगा हालांकि योजनाओं का सीधा संबंध उनके क्रियान्वयन से है. फिर भी जमीनी हकीकत को ध्यान में रखा जाए तो भरोसा किया जा सकता है कि वे सफल रहेंगी.

बहरहाल योजना आयोग को एक तरह से वैचारिक संगठन के रूप में तब्दील किया जाना स्वागतेय है. उसे विकास का ऐसा दस्तावेज तैयार करना चाहिए, जो राज्य की अगले 25-30 सालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखे. हालांकि वे पांच साला होती है. इसके साथ यह उम्मीद करना चाहिए कि राज्य सरकार प्राथमिकताएं तय करके उनके क्रियान्वयन पर विशेष ध्यान देगी. वर्षों से आधी-अधूरी योजनाएं भी सरकार के लिए चुनौती के रूप में है. क्या राज्य सरकार इन चुनौतियों को स्वीकार करेगी?
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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