बस्तर में चुनाव का हाल
दंतेवाड़ा | सुरेश महापात्र: छत्तीसगढ़ में पहले चरण में मतदान की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा चुका है. 10 अप्रेल की सुबह 7 बजे से यहां मतदान शुरू हो जाएगा.
इस बार चुनाव मैदान में बस्तर लोक सभा से कुल आठ प्रत्याशी मैदान पर हैं. इनमें से तीन का जिक्र हो रहा है. पहले स्थान पर भारतीय जनता पार्टी के दिनेश कश्यप, दूसरे स्थान पर कांग्रेस के दीपक कर्मा और तीसरे स्थान पर आम आदमी पार्टी से सोनी सोरी ही चर्चा में हैं. यों कहें कि ये तीन ही प्रत्याशी हैं, जिन्होंने पूरे बस्तर लोकसभा क्षेत्र में प्रचार अभियान चलाया. चौंथे स्थान पर भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की विमला सोरी भी हैं पर उनका जिक्र पहले जैसा नहीं हो रहा है.
लगातार विधानसभा चुनाव में सीपीआई की पराजय के बाद एक समय सीपीआई का आधार क्षेत्र रहा दक्षिण—पश्चिम बस्तर उनके हाथ से फिसल चुका है. आम आदमी पार्टी का जिक्र इसलिए क्योंकि यह राजनैतिक दल फिलहाल देश में चर्चा में बना हुआ है. प्रत्याशी सोनी सोरी को लेकर बस्तर के आम जन मानस के भीतर भी चर्चा होती रही है. भले ही उसका रूप कुछ भी क्यों ना हो? इस प्रकार मुझे लगता है कि बस्तर में केवल तीन प्रत्याशियों के बारे में चर्चा सही होगी.
भारतीय जनता पार्टी से प्रत्याशी दिनेश कश्यप दूसरी बार अपना भाग्य आजमा रहे हैं. कश्यप परिवार की राजनीति बस्तर में भाजपा के इर्द गिर्द घूमती रही है. पहले बलीराम कश्यप अब उनके पुत्र केदार और दिनेश बस्तर के भाग्य विधाता की भूमिका में हैं. बलीराम कश्यप के वंश को आगे बढ़ाते कश्यप पुत्रों के लिए बस्तर की विरासत को संभालना बड़ी चुनौती है.
एक समय था जब यहां की 12 विधानसभा सीटों में 9 और 11 सीटों पर भाजपा का कब्जा था. ये वो दौर था, जब बलीराम कश्यप जीवित थे और यहां उनकी ही चलती थी, टिकट से लेकर प्रचार तक. अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं. बस्तर में रायपुर की राजनीति का सीधा हस्तक्षेप होने लगा है. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह पहले से ज्यादा मजबूत भूमिका में बस्तर की कमान संभालने में जुटे हैं. पर परिणाम उल्टा पड़ा. बस्तर की 12 में से केवल चार सीटों पर भाजपा के विधायक निर्वाचित हुए.
बस्तर में पराजय की वजहों को काफी खंगालने की कोशिश की गई. प्रत्याशियों के खिलाफ एंटी इनकंबैंसी फेक्टर को अभी तक नकारा नहीं जा सका. इसका मतलब साफ है कि बस्तर में यह फेक्टर पहले काम नहीं कर रहा था अब सीधा असर दिखा रहा है. यही वजह है कि बदली हुई इस परिस्थिति में हो रहे लोकसभा चुनाव को लेकर अब वैसा सीधा दावा करने की स्थिति में भाजपा भी नहीं है कि हम जीत रहे हैं. इसलिए रोचकता बनी हुई है.
रही बात मोदी लहर की तो यहां विधानसभा चुनाव के दौरान जिन क्षेत्रों में मोदी की रैलियां हुईं थीं, वहां भाजपा का प्रत्याशी हार गया. इसे किस पर थोपा जाए. तय करना कठिन है. पर साफ है कि मोदी की लहर जैसी कोई स्थिति यहां दिखाई नहीं दे रही है. बावजूद इसके दूसरा पहलू यह है कि यहां भाजपा का प्रचार अभियान मोदी लहर को लेकर ही चल रहा है.
दस साल तक सत्ता में रहने के बाद भाजपा के कार्यकर्ता अब नेता बन चुके हैं. वहीं मंत्री केदार का कद अब पहले से बड़ा हो चुका है. वर्तमान सांसद दिनेश कश्यप बड़े भाई होने के बाद भी कद के मामले में केदार के सामने बौने हैं. विशेषकर राजनीतिक समझ और कार्यकर्ताओं के बीच पकड़ के मामले में. प्रचार अभियान का नेतृत्व केदार कश्यप कर रहे हैं. उन्होंने सभी विधानसभा क्षेत्रों में अपनी पकड़ और राजनीतिक सामथर्य के अनुसार कोई कसर नही छोड़ा है. मतलब साफ है भाजपा चुनावी मैदान पर तगड़ा मुकाबला देने की स्थिति में हैं.
कांग्रेस ने युवा दीपक कर्मा को प्रत्याशी बनाया है. कर्मा परिवार की राजनीतिक सक्रियता को कोई नकार नहीं सकता. मां देवती कर्मा को दंतेवाड़ा के लोगों ने इस बार विधायक चुना है. बहन सुलोचना जिला पंचायत सदस्य हैं. भाई छविंद्र कर्मा पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष रहे. स्वयं दीपक कर्मा दंतेवाड़ा नगर पंचायत में लगातार दूसरी बार निर्वाचित अध्यक्ष हैं. कुल मिलाकर पिता महेंद्र कर्मा की शहादत और स्वयं की राजनीतिक समझ के सामथर्य से दीपक कर्मा लोक सभा चुनाव में जोर लगा रहे हैं.
बीते 25 मई को दरभा—झीरम घाट पर कांग्रेस के परिवर्तन यात्रा पर नक्सलियों के हमले में मारे गये महेंद्र कर्मा 1996 में बस्तर लोक सभा क्षेत्र से निर्दलीय सांसद निर्वाचित हुए थे. वह दौर बस्तर में राजनीतिक परिवर्तन का दौर था. तब सीपीआई की छठवीं अनुसूची लागू किए जाने की मांग का विरोध करते हुए महेंद्र कर्मा बड़े नेता बने थे.
निर्दलीय सांसद निर्वाचित होने के बाद पूरे बस्तर में कांग्रेस के भीतर कर्मा गुट भी बना. जो आगे जाकर तत्कालीन दिग्गज कांग्रेस नेता अरविंद नेताम और मानकूराम सोढ़ी के लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदायक साबित हुआ. झीरम कांड के बाद फिर से महेंद्र कर्मा का राजनीतिक महत्व बढ़ा. कांग्रेस ने शहादत का सम्मान दिया. विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद यह माना जा रहा है कि कांग्रेस के सम्मान का बस्तर ने सकारात्मक संदेश दिया. इस परिस्थिति में हो रहे लोक सभा चुनाव को लेकर उत्सुकता होना लाजिमी है.
अब थोड़ी बात आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार सोनी सोरी को लेकर. बस्तर में आप जैसी नई पार्टी को साख बनाने में काफी वक्त लगेगा. प्रत्याशी चयन में किसी भी पार्टी की स्थिति वैसी नही है कि वह कुछ नया कर सके. आप के लिए करीब 200 एनजीओ के सक्रिय होने का शोर दंतेवाड़ा से लेकर रायपुर और दिल्ली तक है. लेकिन एनजीओ के भरोसे की बात करें तो बस्तर में सबसे ज्यादा अगर कोई बदनाम हैं तो वह एनजीओ ही हैं. जिनकी विश्वसनीयता अब तक तो संदिग्ध ही बनी रही है. ऐसे में एनजीओ को विश्वसनीय साबित करना और फिर उसके सहारे वोट पाने की सोनी सोरी की कोशिश क्या रंग लाएगी, इसकी झलक 10 अप्रैल को मिल सकेगी और अंतिम हिसाब-किताब 16 मई को.
सीपीआई का अपना वोट बैंक है लेकिन विमला सोरी प्रचार में काफी पीछे चल रही हैं. किसी ज़माने में चुनावी राजनीति में सीपीआई व सीपीएम का इलाका क्रमशः कमज़ोर होता चला गया है. ऐसे में विमला सोरी को परंपरागत तौर से कितने वोट मिलेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा. सपा से शंकर ठाकुर और कुछ अन्य केवल चुनावी शोरगुल में समाते दिख रहे हैं.
सही मायने में बस्तर लोक सभा का चुनाव सीधे टक्कर वाला प्रतीत हो रहा है. एक प्रकार से देखा जाए तो दीपक कर्मा और दिनेश कश्यप के पास अपने—अपने पिता का नाम, पार्टी का झंडा और खुला मैदान है. कौन किस पर भारी पड़ता है, इसका फैसला करने के लिये जनता तैयार है.