छत्तीसगढ़ फैसले के लिए तैयार
दिवाकर मुक्तिबोध
मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह ने 8 नवंबर को खैरागढ़ विधानसभा क्षेत्र के विभिन्न गांवों में जनसभाओं में भाषण करते हुए स्वीकार किया कि कड़ी परीक्षा है लेकिन हम हैट्रिक लगाएंगे. अब तक के चुनाव प्रचार के दौरान यह पहली बार है जब सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति स्वीकार कर रहा है कि मुकाबला आसान नहीं है और पार्टी को कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिल रही है.
इस कथन से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा किंचित घबराई हुई है और वह जीत के प्रति बेफिक्र नहीं है. उसे कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. 11 नवंबर को बस्तर संभाग एवं राजनांदगांव जिले की कुल 18 विधानसभा सीटों के लिए मत डाले जाएंगे. यही 18 सीटें कांग्रेस एवं भाजपा दोनों का भाग्य तय करेगी. इन 18 सीटों में से 13 सीटें आरक्षित हैं जबकि सामान्य सीटें सिर्फ 5 हैं. यानी 13 सीटों के भाग्यविधाता आदिवासी एवं अनुसूचित जाति के मतदाता हैं.
इसमें बस्तर महत्वपूर्ण है, जिसने पिछले चुनाव में 12 में से भाजपा के लिए 11 सीटें जीतकर सत्ता के द्वार खोले थे. लेकिन इस बार स्थितियां बदली हुई नजर आ रही हैं. मुकाबला एकतरफ नहीं है. बस्तर और राजनांदगांव में कांग्रेस ने इतने कांटे बिछा दिए हैं कि उनका चुभना तय है. कहां और कितने चुभेंगे, अनुमान लगाना कठिन है किंतु स्थितियां 8 दिसंबर को मतगणना के बाद स्पष्ट हो जाएंगी.
दरअसल इस बार मुद्दे उतने प्रभावी नहीं हैं जिनकी उम्मीद की जाती थी. फिर भी उनका असर तो है. भाजपा विकास के मुद्दे को जनता के सामने रख रही है पर बस्तर में वह प्रभावी नहीं है क्योंकि गांव तो गांव, शहरों की भी हालत खराब है. इसलिए विकास का मुद्दा यहां नहीं चल रहा है. बल्कि भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का जरूर सामना करना पड़ रहा है जो शहरों में ज्यादा प्रभावी है.
बस्तर के ग्रामीण अंचलों में चेहरे भी प्रभावी नहीं हैं. उम्मीदवारों से कहीं ज्यादा अहमियत पार्टी के चुनाव चिन्हों की है. गरीब और अपढ़ आदिवासी, उम्मीदवारों को भले ही नाम से न पहचाने लेकिन पार्टी के चुनाव चिन्हों से वे अच्छी तरह परिचित हैं. वे कमल को भी जानते हैं और पंजे को भी. इसलिए इन इलाकों में वोट न नाम पर पड़ेंगे न काम पर, पड़ेंगे तो चुनाव चिन्ह पर.
बस्तर में भाजपा यदि ताकतवर है तो केवल एक चावल के मुद्दे पर. मतदाता को सरकार की कोई योजना आकर्षित कर रही है तो वह है दो रुपए किलो चावल. जबकि कांग्रेस के भ्रष्टाचार या कुशासन जैसे मुद्दे गौण हैं, निष्प्रभावी हैं. लेकिन शहरों की ऐसी स्थिति नहीं है. शहरी मतदाता बदलाव की मानसिकता में है इसलिए सरकार के विकास का मुद्दा यहां ढेर है. लेकिन कुशासन का प्रश्न हावी है.
चूंकि मतदान की तिथि निकट है इसलिए समझा जा सकता है कि मतदाताओं ने तय कर लिया होगा कि उन्हें किसके पक्ष में वोट करना है, हालांकि वे मौन हैं. सन् 1977 के लोकसभा चुनाव में बस्तर के आदिवासी मतदाताओं ने कांग्रेस का सफाया कर दिया था. लेकिन सन् 80 के चुनाव में उसे फिर सिर आंखों पर बैठा लिया. यही स्थिति बाद में हुए विधानसभा चुनावों में हुई. यानी यह कहना कि बस्तर के आदिवासियों को भेड़ की चाल की तरह हांका जा सकता है, गलत है. मतदान के मामले में वे उतने ही जागरुक हैं जितने की शहरी. इसलिए न तो उन्हें बरगलाया जा सकता है, न ही प्रलोभित किया जा सकता है.
बस्तर के सन्दर्भ में ही एक बात और महत्वपूर्ण है- चुनाव बहिष्कार का नक्सली फरमान और वोटों का प्रतिशत. चुनाव बहिष्कार का नक्सली फरमान नई नहीं है. सन् 2003 एवं 2008 में भी वे ऐसा कर चुके हैं. उन्होंने हिंसा भी की लेकिन इसके बावजूद वोट अच्छे पड़े, खासकर 2008 के चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से वोटों का प्रतिशत बढ़ा. सिर्फ नक्सल प्रभावित बीजापुर को छोड़कर, शेष 11 सीटों पर भारी-भरकम वोटिंग हुई. यह कैसे संभव हुआ, यह अलग विषय है किंतु इस बार चुनाव आयोग की सख्ती और तगड़े चुनाव प्रबंध को देखकर ऐसा नहीं लगता कि पिछले प्रतिशत की पुनरावृत्ति होगी. यदि वोट कम गिरेंगे तो जाहिर है भाजपा को नुकसान होगा.
इधर राजनांदगांव जिले में चुनाव समीकरण कुछ अलग तरह की तस्वीर पेश कर रहे हैं. यहां विकास, भ्रष्टाचार व कुशासन के बीच द्वंद्व है. जिले की 6 में से 4 सीटें सामान्य हैं जहां चेहरे महत्वपूर्ण है. चूंकि मुख्यमंत्री गृह जिले राजनांदगांव से चुनाव लड़ रहे हैं इसलिए भाजपा को उनकी छवि का अतिरिक्त लाभ है. जबकि कांग्रेस जीरम घाटी की घटना एवं भाजपा सरकार के दस साल को कुशासन बताकर मतदाताओं का मन बदलने की कोशिश कर रही है. कहना मुश्किल है कि उसे इसका कितना लाभ मिलेगा किंतु सत्ता-विरोधी लहर से वह कुछ ज्यादा ही आशान्वित है. पिछले चुनाव में कांग्रेस को 6 में से 2 सीटें मिली थीं. इस दफे आंकड़े निश्चितत: बदलेंगे.
कुल मिलाकर पहले चरण की 18 सीटें दरअसल सत्ता की दहलीज है. यह देखना दिलचस्प होगा कि कड़ी चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करते हुए पहला कदम कौन रखेगा- भाजपा या कांग्रेस.