अमित जोगी के लिये
दिवाकर मुक्तिबोध
कांग्रेस छत्तीसगढ़ को लेकर बड़ी दुविधा में है. प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बागी तेवर एवं विरोधी खेमे के कांग्रेसी नेताओं की उनके खिलाफ शिकायतों पर क्या कार्रवाई की जाए, नेतृत्व असमंजस में है. राज्य विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं और ऐसे में जोगी के खिलाफ कोई भी अनुशासन की कार्रवाई राजनीतिक समीकरणों को बिगाड़ सकती है. जाहिर है केंद्रीय नेतृत्व के सामने धर्मसंकट की स्थिति है.
यदि जोगी के खिलाफ कठोर कार्रवाई की गई, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया गया तो प्रदेश कांग्रेस में विभाजन की नौबत आ जाएगी और यदि कार्रवाई नहीं की गई तो चुनावों तक असंतुष्ट गतिविधियां चलती रहेंगी जिसका परिणाम भीतरघात के रुप में अंतत: पार्टी को भुगतना पड़ेगा. केंद्रीय नेतृत्व यह भी जानता है कि नवंबर 2013 के राज्य विधानसभा चुनावों में पार्टी की संभावनाएं बेहतर है. अत: ऐसे समय जब चुनावों के लिए मात्र तीन – साढ़े तीन महीने रह गए हों, अनुशासन के नाम पर जोगी पर कार्रवाई भारी पड़ सकती है.
इस स्थिति में बेहतर यही है कि बीच का रास्ता निकाला जाए. जोगी पर निलंबन जैसी कठोर कार्रवाई न करते हुए केवल चेतावनी दी जाए और संगठन के नेताओं को भी हिदायत किया जाए कि वे जोगी को बर्दाश्त करें तथा कठोर प्रतिक्रियाएं देने से बचें.
केंद्रीय नेतृत्व जोगी को ‘बर्दाश्त’ करने के हक में इसलिए है क्योंकि छत्तीसगढ़ की राजनीतिक स्थिति अन्य प्रदेशों की तुलना में खास कर आंध्रप्रदेश से अलग है. यद्यपि घटना पुरानी है लेकिन जोगी के संदर्भ में उसका उल्लेख प्रासंगिक है. आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी के बगावती तेवरों को पार्टी ने बर्दाश्त नहीं किया और उनके तगड़े जनाधार के बावजूद उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया. अजीत जोगी भी छत्तीसगढ़ के जननेता हैं और उनका भी जनाधार व्यापक है लेकिन उन्हें बर्दाश्त करना पार्टी की फिलहाल मजबूरी है. इसके पीछे मूल कारण है राज्य में दस वर्षों से कांग्रेस का सत्ता से बेदखल रहना जबकि आंध्रप्रदेश में कांग्रेस की सत्ता थी और अभी भी है.
फिर जोगी के असंतोष का लावा ऐन चुनाव के वक्त खदबदा रहा है. निष्कासन की स्थिति में यदि वे अलग पार्टी बनाते हैं तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही होगा तथा वह रमन सिंह की भाजपा सरकार को लगातार तीसरी बार सत्ता के आने से रोक नहीं पाएगी. इन स्थितियों को देखते हुए यह प्रतीत होता है कि केंद्रीय नेतृत्व कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहा है.
दरअसल चरणदास महंत के प्रदेशाध्यक्ष बनने एवं पार्टी में अपनी उपेक्षा से आहत जोगी ने अपनी नई राह चुन ली है. अब उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि पार्टी यदि उन्हें निलंबित करती है तो उनका भविष्य क्या होगा. उन्हें अब अपने भविष्य की चिंता नहीं है. उनकी सारी कवायद बेटे अमित जोगी को राजनीति में स्थापित करने एवं उसका राजनीतिक भविष्य संवारने की है. प्रदेश कांग्रेस में अमित को पद न मिलने से उनकी उम्मीदों को धक्का लगा जबकि स्व. प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार पटेल के प्रदेश कार्यकारिणी सूची में अमित जोगी का नाम महासचिव के लिए प्रस्तावित था.
इन घटनाओं की वजह से जोगी ने आक्रामक रुख अख्तियार किया और विरोध नेताओं पर जमकर हल्ला बोला. वे जानते है कि अनुशासनहीनता के आरोप में उन्हें पार्टी से निकाला भी गया तो वे घाटे में नहीं रहेंगे. उनकी तथा बेटे की तैयारियां नई पार्टी बनाने की है. चूंकि प्रदेश कांग्रेस एवं उसकी युवा शाखाओं में बाप – बेटे का वर्चस्व है, लिहाजा नई कांग्रेस बनाने में उन्हें दिक्कत नहीं है. इसकी पूरी तैयारियां हैं. रणनीतिक कौशल से उन्होंने गेंद कांग्रेस हाईकमान के पाले में डाल रखी है यानी चित भी मेरी, पट भी मेरी. कांग्रेस के फैसले पर उनका फैसला निर्भर है.
वैसे जोगी जानते हैं, कांग्रेस हाईकमान कोई कठोर कदम उठाने की स्थिति में नही है. लिहाजा वे जब तक चाहे, दबाव बनाए रख सकते हैं. मिनी माता पुण्यतिथि पर विभिन्न स्थानों पर आयोजित सभाओं में उन्होंने अपने भाषणों में विरोधियों पर तगड़े प्रहार किए लेकिन अंतिम दो सभाओं में खिलाफ गर्जना धीमी पड़ गई और उन्होंने कांग्रेस के लिए वोट मांगे. इससे साफ जाहिर है वे चतुराई से अपने पत्ते खोल रहे हैं.
वे यह भी जानते हैं कि हाईकमान उन्हें, उनकी पत्नी तथा बेटे यानी एक ही परिवार से तीन को टिकट नहीं देगा. चूंकि वे अमित का राजतिलक चाहते हैं इसलिए इस बात की पूरी संभावना हैं कि वे स्वयं विधानसभा का चुनाव न लड़ें तथा बेटे को टिकट दिलाएं, जो बिलासपुर जिले की किसी सामान्य सीट से लडऩे तत्पर हैं. इस स्थिति में जोगी आगामी मई-जून में प्रस्तावित लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे.
कुल मिलाकर उनकी सारी मशक्कत बेटे का राजनीतिक भविष्य संवारने की है. दबाव बनाने की रणनीति के पीछे मकसद यही है कि उनकी उपेक्षा पार्टी को महंगी पड़ेगी. अत: उन्हें समुचित महत्व दिया जाए. वे आश्वस्त है कि आर-पार की इस लड़ाई में यदि उन्हें पार्टी से निकाला भी जाता है तो भी वे तीसरे मोर्चे की बड़ी ताकत बनकर कम से कम इतनी सीटें जरुर निकाल लेंगे जिससे सत्ता में भागीदारी के लिए उन पर निर्भर रहना पड़े. फिलहाल उनके दोनों हाथों में लड्डू है.