सावरकर की माफी पर तेरा बयान गांधी!
कनक तिवारी
सावरकर की माफी को लेकर राहुल गांधी के बयान से नया विवाद छिड़ गया है.गोदी मीडिया के लिए ईश्वरीय वरदान है. उसके अनुसार राहुल ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है.
कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रही शिवसेना के एक धड़े के नेता उद्धव ठाकरे ने राहुल के बयान से किनाराकशी कर ली है. इस बात में कोई विवाद नहीं है कि सावरकर ने माफी लिखकर मांगी थी. कई जानकारियां चखचख बाजार में हैं.
सावरकर ने बार बार याने संभवतः 1911, 1913 और 1920 को माफीनामे लिखे थे. इसमें भी शक नहीं कि सावरकर क्रांतिकारी थे और उनका अंगरेजों के खिलाफ हिंसा में भरोसा था, ताकि अंगरेजों को भारत से रुखसत किया जा सके. उन्हें खतरनाक और जोखिम भरे रास्तों पर चलते भी अंगरेजों ने पकड़ा और अंदमान की जेल में लंबी सजा पर भेज दिया.
और बातों को छोड़ें तो 6 जनवरी 1924 को रत्नागिरी जिले से बाहर नहीं जाने और पांच साल तक किसी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेने की शर्त पर ही सावरकर बंधुओं को छोड़ा गया था. उसके पहले 2 मई 1921 को सावरकर को अंदमान जेल से रत्नागिरी की, फिर यरवदा सेंट्रल जेल में स्थानांतरित किया गया.
अपने अंतिम माफीनामे 30 मार्च 1920 को सावरकर ने विस्तार से परिस्थितियों और कारणों का वर्णन तथा अपनी राजनीतिक विचारधारा को भी उल्लेखित करते दस्तखत किए. वह अंगरेज हुकूमत द्वारा 1919 के फरमान की जानकारी के कारण था.
सावरकर ने यह लिखा था कि “अगर सरकार मुझसे और कुछ चाहती है तो मैं और मेरा भाई एक निश्चित अवधि के लिए, जैसा कि सरकार उचित समझे, राजनीति में भाग नहीं लेने का वचन देने के लिए तैयार हैं. इसके अलावा मेरा स्वास्थ्य लगातार खराब हो रहा है. मैं अपने परिजनों के मधुर शुभाशीष से वंचित हूं. अब मैं शांति से एक सेवानिवृत्त व्यक्ति की तरह अपने जीवन के बचे खुचे हुए दिन गुजारना चाहता हूं. अब मेरी जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं है जो मुझे सक्रिय गति के लिए प्रेरित करे. इन सभी आधारों पर मुझे विश्वास है कि सरकार गौर करेगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूं. सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत तथा प्रतिबद्ध हूं. इसलिए सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूंगा. मेरा प्रारंभिक जीवन उदार संभावनाओं से परिपूर्ण था. लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बर्बाद कर दिया. मेरी ज़िंदगी का यह बेहद खेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है. मेरी रिहाई मेरे लिए नया जन्म होगी. सरकार की यह संवेदनशील दयालुता मेरे दिल और भावना को गहराई तक प्रभावित करेगी. मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊंगा. भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूंगा.”
सच्चाई जो हो लेकिन एक क्रांतिकारी के साथ जब असाधारण जेल यातनाएं होती हैं, तो इतिहास में बहुत कम लोग हुए हैं, जो टूटे नहीं हैं. मौत का फंदा जिन्होंने खुद होकर अपने गले में डाल लिया है. हालांकि सावरकर वैसा नहीं कर सके.
शायद उन्हें उम्मीद न रही हो कि अंगरेज सरकार उनके साथ कितनी कड़ाई करेगी. अब जो हो गया सो हो गया. इतिहास के तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना नहीं चाहिए. अपने निष्कर्ष निकालने में ऐसा कुछ नहीं हो कि जो कुछ सावरकर ने कहा उससे भी इन्कार कर दिया जाए.
इसी सिलसिले में इस पूरी घटना और कवायद के सबसे प्रमुख किरदार और हमारी कौम के सबसे बडे़ मसीहा गांधी की जुबानी और लेखी सावरकर के मुद्दे को लेकर पढ़ने समझने की ज़रूरत है.
सावरकर ने लगातार ताबड़तोड़ माफीनामे लिखकर अंगरेजी सल्तनत से बेचैन होकर अपनी रिहाई मांगी. उन्हें आखिरकार अन्दमान की कठिन जेल सज़ा से 1921 और 1924 में निजात भी मिली. ऐसी राजनीतिक घटनाएं लेकिन जनयुद्ध के योद्धा गांधी की माइक्रोस्कोपिक और टेलेस्कोपिक नज़रों से ओझल नहीं होती थीं.
केन्द्रीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की उपस्थिति में हिन्दुत्व के जमावड़े की रक्षा करते दरअसल यह कह दिया था कि महात्मा गांधी के कहने से सावरकर ने (सावरकर बंधु भी कहा जा सकता है) अपना माफीनामा लिखा था.
संघ परिवार और भाजपा नेता झूठ बोलने के सिद्धहस्त महारथी हैं कि बेचारा झूठ उनसे पनाह मांगता रहता है. टेलीविजन के चैनल ‘आज तक‘ पर बापू के प्रपौत्र और मेरे मित्र तुषार गांधी और सावरकर के पौत्र रंजीत सावरकर की बहस वाचाल एंकर अंजना ओमकश्यप संचालित कर रही थीं. दोनों वंशज अपने अपने पूर्वजों की शैली में कहते लग रहे थे.
मोदी भक्त पक्षपाती एंकर को मौका नहीं मिला क्योंकि तुषार गांधी ने लगातार अपने कथनों और पुस्तकों में गांधी को जीवित रखा है. गांधी का प्रपौत्र होने से सावरकर की चरित्र हत्या भी नहीं की. सत्य के आधुनिक मसीहा गांधी पर झूठ का लबादा ओढ़ाने की अजीब घिनौनी कोशिशें होती रहती हैं!
जिस गांधी ने अपने ऊपर अदालत की तौहीन का मुकदमा चलने पर अंगरेज जज से माफी तक नहीं मांगी. वह सावरकर को माफी मांगने कहेगा, राजनाथ सिंह जी.
दरअसल दिसंबर 1919 में अंगरेजी शाही आदेश लन्दन से निकला था. अंगरेज ने चतुर और कुटिल रणनीति के चलते सभी तरह के कैदियों को रिहा करने के इरादे का ऐलान किया था.
कई कारण रहे होंगे. जेलों का खर्च बढ़ रहा था. कई अपराधियों की तो सजा की अवधि खत्म भी हो चली थी. अपराधियों को चुनकर अंगरेजपरस्त बनाने का भी चस्का रहा होगा. यह भी जांचना चाहते रहे होंगे कि जेल अत्याचार के कारण कितने मुलजिम वतनपरस्ती में टिक भी पाएंगे, या सियासत और आजादी की लड़ाई से बेरुख होकर गुलाम रियाया में तब्दील हो जाएंगे.
गांधी ने ‘यंग इंडिया‘ 26 मई 1920 में लिखा ‘‘मैं भारत सरकार और प्रदेश सरकारों का भी शुक्रिया अदा करता हूं जिनके कारण कई लोगों को इस सार्वजनिक माफीनामे का फायदा मिला है. लेकिन कई मशहूर राजनीतिक सजायाफ्ता अभी छूटे नहीं हैं. उनमें मैं सावरकर भाइयों को शामिल करता हूं.‘‘
गांधी ने आगे लिखा ‘‘दोनों भाइयों ने अपने राजनीतिक विचारों का खुलासा कर दिया है. दोनों ने कहा है उनके मन में किसी प्रकार के इन्कलाबी इरादे नहीं हैं. अगर उन्हें छोड़ दिया गया तो वे 1919 के रिफाॅम्स आदेशों के तहत काम करना पसन्द करेंगे. उनका खयाल है इस गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 के तहत लोगों को भारत के लिए राजनीतिक जवाबदेहियां मिल जाती हैं. दोनों ने बिना शर्त कह दिया है कि वे ब्रिटेन से आज़ादी नहीं चाहते. इसके बरक्स उन्हें लगता है कि भारत की तकदीर ब्रिटेन के साथ रहकर ही बेहतर गढ़ी जा सकती है. किसी ने भी उनके बयानों या ईमानदारी पर शक नहीं किया है. मेरा ख्याल है कि उन्होंने जिन इरादों का खुलासा किया है, उन पर ज्यों का त्यों भरोसा कर लेना चाहिए. गांधी ने आगे लिखा कि दोनों भाइयों को जेल में नजरबंद रखने का यही एक कारण हो सकता है कि वे लोकसुरक्षा के लिए खतरा हैं. गांधी ने कहा कि जब इस बात का मुकम्मिल सबूत नहीं मिले कि दोनों भाई राज्य के लिए खतरा होंगे, तब उन्हें बंद रखना ठीक नहीं है. वे काफी दिन जेल में काट चुके. उनका वजन भी कम हो गया है और उन्होंने अपने इरादों का ऐलान कर दिया है.‘‘
गांधी के इस लेख को डूबते सावरकर का तिनका बनाया जाता है. समझा जा सकता है जब कोई व्यक्ति
(1) खुद अपनी क्रांतिकारिता को जमींदोज कर रहा है.
(2) छूट जाने पर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1919 के तहत आचरण करने की प्रतिबद्धता का ऐलान कर रहा है.
(3) ऐलानिया कह रहा है कि अंगरेजी अधिनियम के तहत उसे देश के लिए कुछ करने की राजनीतिक जिम्मेदारी मिल जाएगी.
(4) दोनों भाई ब्रिटेन से भारत की आजादी भी नहीं चाहते.
(5) उनका यह भी कहना है कि ब्रिटेन की सोहबत में रहकर ही भारत की तकदीर गढ़ी जा सकती है.
अंगरेज की कुटिलता यही थी कि वह उन्हें ही माफी देता
(1) जिनके ‘मन की बातें हों कि अंगरेजी हुकूमत के लिए पारस्परिक कड़वापन ही खत्म है.
(2) जिन्होंने अपनी राजनीतिक तरक्की के जोश में कानून तोड़ा लेकिन भविष्य में उसका पालन करने पाबंदगी कही.
(3) सरकार को भरोसा हो कि उसकी दरियादिली ऐसे लोगों के लिए माकूल होगी जो सरकार के खिलाफ अपराध करने की गुंजाइश को ही निर्मूल कर देंगे.
(4) ऐसी रिहाई सशर्त ही होनी है.
(5) अंगरेज शायद रिहाई प्राप्त कैदियों में से ही मुखबिर बनाना चाहते थे. हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वगैरह से जुड़े लोगों ने यही तो किया. अब इसके बाद क्या बचा? ऐसे शाही हुक्म को सिर पर लादकर, जेल से रिहाई पाकर, इन्कलाब को रफादफा कर गांधी का कंधा पकड़ने की ज़रूरत कहां बची?
गांधी यहां साफ करते हैं कि आज़ादी की लड़ाई और क्रांतिकारिता से कुछ लोगों द्वारा कन्नी काट ही ली गई है. तो ऐसे सभी लोगों को (जिनमें सावरकर बंधु भी शामिल हैं, शाही फरमान के तहत रिहा कर दिया जाना चाहिए. उन्हें छोड़ने की गांधी ने अपनी ओर से कोई तजबीज नहीं की. गांधी बैरिस्टर थे.
उनका कहना था जब बाकी राजनीतिक कैदी पंजाब में छोड़ दिए गए, तो सावरकर बंधुओं को तो छोड़ा ही जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने जंगे आजादी का अपना इरादा तो खत्म ही कर दिया है. गांधी ने साफ किया कि शाही फरमान संदेहजनक प्रकरणों सहित सभी प्रकरणों के लिए लागू था.
वाइसरॉय को इतनी ही टीप लिखनी है कि ऐसों के छोड़ दिए जाने से लोकसुरक्षा को खतरा नहीं होगा. साफ है केवल उन्हें छोड़ा जाना था जिनकी आत्मा में ही क्रांति और अंगरेजों से लड़ने की ताब खुदकुशी कर चुकी हो. इतिहास गवाह है कि वही तो सावरकर ने किया. इस हताश व्यक्ति से लोकसुरक्षा को क्या खतरा हो सकता था?
यह भी सही है कि वाइसरॉय मांटेग्यू ने तब तक सावरकर बंधुओं से मिले माफीनामे पर विचार करने से इंकार भी कर दिया था. इसलिए गांधी जी ने जोर देकर कहा कि उनके भी मामले आलमारियों में बंद कर नहीं रखे जा सकते.
देश को जानने का हक है कि शाही फरमान के बावजूद ऐसा क्या है जिसकी वजह से उनको नहीं छोड़ा जा रहा है. अंगरेजों की नीयत, कानूनों की मंशा और भारतीय संघर्षकथा में सावरकर की भूमिका तथा सजा को लेकर इतिहास की नजर से गांधी हर मकड़जाल निकाल देते हैं.
सरल हृदय के कम्प्यूटरनुमा दिमाग के गांधी दो टूक कहते हैं कि मनुष्य की स्वायत्तता और आजादी पर किसी भी तरह की गैरकानूनी सरकारी बंदिश लगाए जाने की गुलाम भारत में भी वे संवैधानिक भाषा में मुखालफत करते हैं.
यह गौरतलब है सावरकर बंधुओं की तथाकथित हिंसात्मक गतिविधियों को लेकर गांधी ने उन्हें कभी नहीं बख्शा. गांधी के वक्तव्य में द्वैध और श्लेष की कूटनीतिक रॉकेटनुमा प्रहारशक्ति दोनों पढ़ी जा सकती है.
गांधी के मुताबिक जनता को भी सावरकर भाइयों पर लगाई गई हिंसात्मक या अन्य कानूनतोड़क कार्यवाहियों की पूरी जानकारी होने का जनतांत्रिक अधिकार है. गांधी की समझ में इसके बावजूद सावरकर बंधुओं और जनता दोनों के कुदरती अधिकारों को रहस्यमयता का कानूनी लबादा ओढ़कर अंगरेज कुचल रहे थे.
आज इतिहास को मालूम होना चाहिए. सावरकर की रिहाई के लिए दिए जाने वाले माफीनामे के समर्थन में गांधी से दस्तखत की गुंजाइश की गई थी. गांधी ने दस्तखत करने से इंकार किया.
सयानेपन तथा मानवीय उदारता के चलते अपनी भूमिका का सचनामा गांधी ने 27 जुलाई 1937 के बॉम्बे क्रॉनिकल में लिखा ‘‘सावरकर मानते होंगे मैंने उनकी रिहाई के लिए भरसक कोशिश तो की थी. वे यह भी मानेंगे कि मेरे और उनके बीच लंदन में हुई पहली मुलाकात के वक्त आत्मीय रिश्ते थे.‘‘
शेगांव से 12 अक्टूबर 1939 को लिखे पत्र में गांधी ने फिर खुलासा किया वे अपनी बात समझाने के लिए सावरकर के घर भी गए थे. भले ही उसे ठीक नहीं समझा गया हो.
गांधी की नज़र से हिन्दू महासभा और उसके नेताओं (जिनमें प्रमुख सावरकर ही थे) की गतिविधियां ओझल नहीं होती थीं. गांधी की कालजयी, वस्तुपरक और सयानी नस्ल की टिप्पणियां भारतीय इतिहास का अनिवार्य हिस्सा हैं. उन्हें संदर्भ से अलग कर समझने की कोशिश इतिहास को ही समझने की कोशिश के साथ नाइन्साफी होती है.
बीसवीं सदी के भारत के सबसे बड़े विचारक और मसीहा की राय को आज भी तटस्थ लेकिन उर्वर समझ में लाना हो तो शब्दकृपण लेकिन भाव से भरपूर गांधी के लफ़्ज इतिहास के कूडे़दान पर कुछ लोग फेंकने की कोशिश कर रहे हैं. वे अपने मुंह मियां मिट्ठू तो बन सकते हैं. लेकिन वक्त उनकी हैसियत को खुद ही समझा कर उन्हें दाखिलदफ्तर कर देता रहेगा.