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यौनिकता और बच्चे

शरद कोकास | फेसबुक
यही कोई दस बारह साल उम्र रही होगी मेरी जब बाबूजी एम एड कर रहे थे. मैं उनके लिए राइटर का काम करता था. उनका विषय फ्रायड के मनोविज्ञान और बच्चों की लैंगिकता से सम्बन्धित था.

बाबूजी अपने सामने तीन चार किताबें खोल लेते और बोलते जाते ,कभी ऑंखें बंद कर कुछ कहने लगते. मैं टेबल कुर्सी पर बैठ कर उनकी बातें एक रजिस्टर में उतारता जाता.

एक दिन फ्रायड को कोट करते हुए उन्होंने कहा “जिस समय बच्चे माँ का स्तनपान करते हैं उस समय उनके लिंग में उद्दीपन होता है, इससे सिद्ध होता है कि बच्चों में लैंगिकता की प्रवृत्ति जन्मजात होती है.“

इस कथन के विस्मृत अनुभव से गुजरने के बावजूद मेरे लिए यह जानकारी नई थी. धीरे धीरे इस विषय में मेरी रूचि जागृत हुई और मराठी की मनोहर मैगजीन के ‘कुतुहल’ कालम से शुरुआत कर आगे विस्तार से किताबों में मैंने इस विषय को पढ़ा. थोड़ी बहुत बातें मैंने माँ से भी जानीं.

बाद में मैंने प्रोफ़ेसर श्याम मानव का ‘बाल लैंगिकता और पैरेटिंग’ पर पूरा कोर्स भी किया.श्याम मानव बताते हैं कि अल्ट्रासाउंड स्टडीज से यह ज्ञात हुआ है कि गर्भाशय के भीतर भी बालक का लिंग उन्नत (इरेक्ट) हो सकता है.

जन्म लेने के उपरांत गर्भनाल तोड़ने से पहले कुछ ही मिनटों में अनेक बार बालक का लिंग उन्नत होता है. उसी तरह चोवीस घंटों के भीतर बालिकाओं का योनिस्त्राव भी होता है और भगांकुर या क्लिटोरिस में भी उद्दीपन होता है.

इसके पश्चात स्तनपान कराते समय भी बालक का लिंग उन्नत होता है और बालिका को योनिस्त्राव तथा भगांकुर में उद्दीपन होता है. शिशुओं को स्नान कराते समय, उनके शरीर पर पावडर लगाते समय, मालिश करते समय या उन्हें खेल खेल में ऊपर उछालते समय भी यह घटित होता है.

मैंने पढ़ा था कि स्तनपान कराते हुए माता के शरीर में ऑक्सीटोसिन नामक हार्मोन उत्पन्न होता है. यह वही हार्मोन है जो सेक्स के दौरान चरमोत्कर्ष के समय स्त्री देह में उत्पन्न होता है. इसीलिये स्तनपान कराते समय माता सुख महसूस करती है.

एक वर्ष की आयु तक बालक बालिकाएं अपने लैंगिक अवयवों के साथ खेलते हैं. उन्हें स्पर्श करने, हाथ से, तकिये से या किसी वस्तु से रगड़ने आदि में आनंद प्राप्त होता है. इन कामों में बच्चों को चरम आनंद की प्राप्ति भी होती है इसीलिये यदि उन्हें बीच में रोक दें अथवा यौनांगों को छूने से मना करें तो वे चिढ़ते हैं या चिल्लाते है, बार-बार हाथ वहीं ले जाते हैं.

दो वर्ष की उम्र में जब बच्चे बोलने चलने की आयु में आ जाते हैं तब वे परस्पर एक दूसरे के लैंगिक अवयवों को स्पर्श करने और देखने की इच्छा प्रकट करते हैं, वे डॉक्टर-डॉक्टर, मम्मी पापा, जैसे लैंगिक खेल खेलते हैं. मैंने तो बच्चों को खेल खेल में बच्चों को जन्म देने की प्रक्रिया भी देखी है. खेल खेल में बहुत सुन्दर रोल प्ले वे करते हैं.

बच्चों के इस तरह लैंगिक खेल खेलने का यह क्रम चार पांच वर्ष की आयु तक जारी रहता है. एक-दूसरे का लैंगिक स्पर्श उन्हें अच्छा लगता है यद्यपि छह सात वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते यह कम हो जाता है. इस उम्र में लैंगिक जोक्स, गंदे मज़ाक, अथवा ऐसे शब्द उच्चारण करना भी उन्हें अच्छा लगता है.

प्रश्न यह है कि यहाँ माता-पिता की और बड़ों की भूमिका क्या हो ? हमारे सामूहिक अवचेतन में यौनिकता को हमेशा बुरी चीज़ माना गया है. वैसे सामान्यतः हम इन बातों की ओर ध्यान नहीं देते लेकिन कभी कभी उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जो उन तक नकारात्मक सन्देश पहुँचाता है.

जब बच्चे अपने यौनांग छूते हैं, हम ’छी गंदी बात’ कह कर उनका हाथ वहां से हटा देते हैं. बच्चा समझ नहीं पाता कि आंख नाक आदि अंग छूने पर ऐसा क्यों नहीं कहा जाता ? उसी तरह शौच आदि जाने के सम्बन्ध में हम उसे गन्दा काम कहते हैं, जबकि यह खाने पीने की तरह हमारे अनिवार्य सामान्य कार्य हैं.

वैसे तो बच्चे अपने एकांत में लैंगिक खेल खेलते हैं लेकिन अगर हम उन्हें लैंगिक खेल खेलते हुए देखते हैं तो चौंक जाते हैं या डर जाते हैं. हम इसकी कल्पना बड़ों की तरह करते हैं, हम नहीं समझ पाते कि इससे उन्हें कोई नुकसान नहीं है बल्कि यह उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है. वे इसे खेल की तरह ही खेलते हैं. सामान्यतः जिस घर में या पड़ोस में बच्चे अधिक हो वहां यह सामान्य बात है.

आप पूछ सकते हैं तो फिर ऐसी स्थिति में हम क्या करें ? इसके लिए पहले तो आपको स्वयं बच्चों का लैंगिकता संबंधी यह मनोविज्ञान समझना होगा फिर बच्चों को उनकी भाषा में समझाना होगा.

“मैं कहाँ से आया?” यह प्रश्न हर बच्चे के मन में आता है. “परी तुम्हे देकर गई है” यह जवाब अब पुराना हो गया है, “अस्पताल से लाए हैं “ यह भी आउट डेटेड.

अब बच्चा जानता है कि वह माँ के पेट से आया है लेकिन वह पेट में आया कैसे इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है. फिर भी हम उसे गमले में बीज रोपने उसका पौधा बनने जैसी प्रक्रिया से यह बात समझा सकते हैं.

बच्चों को लैंगिक अवयवों के नाम बताते हुए भी हमें बहुत सोचना पड़ता है. हम उन्हें कुछ भी नाम बता देते हैं. कोशिश करें कि बच्चों को उनके सामान्य नाम बताएँ, न कि फुन्नू, नोनी, नुन्नी या पोपट जैसे शब्दों के द्वारा उनका परिचय दें. अंग्रेजी भाषा इसमें सहायक हो सकती है, उसमे हमें शर्म कम लगती है.

बच्चे जब लैंगिक शब्द का उच्चारण करें, उन्हें उसका अर्थ समझाकर बताएँ. यह भी बताएँ कि सार्वजानिक रूप से इन शब्दों का उच्चारण क्यों नहीं करना है. यह स्वाभाविक है कि बच्चे ऐसे शब्दों से उत्साहित होते हैं और मनोविनोद के लिए भी बार बार इनका उच्चारण करते हैं, इसलिए धैर्य न खोते हुए, उन्हें बिना मारे पीटे, ढंग से समझाएँ. उन्हें गालियों के अर्थ भी बताएँ और यह भी कि इनका प्रयोग क्यों नहीं करना है.

ज़रूरी है कि हम बच्चों के साथ सेक्स जैसे विषय पर सामान्य रूप से बात करें, उन्हें भाषण नहीं दें, बस सामान्य रूप से समयानुसार एक दो मिनट में अपनी बात कह दें. चित्रों द्वारा उन्हें समझाएं. उन्हें कुछ विशेष बता रहे हैं, इस तरह का भाव आपके शब्दों में कदापि न हो. इस बात से भी आशंकित न हों कि उन्हें ज़्यादा बता दिया. उन्हें जितना समझ में आया है उतना ही वे ग्रहण करेंगे बाकि दिमाग से निकाल देंगे या फिर बाद में पूछ लेंगे.

कुछ बड़े होने के बाद बच्चों के मन में और भी प्रश्न आते हैं लेकिन उन्हें जानकारी देने के लिए उनके बड़े होने की राह न देखें. किशोर अवस्था से पूर्व ही स्तन वृद्धि, मासिक धर्म, स्वप्न दोष, लड़कों के स्तन में गांठ पड़ना, लिंग उन्नत होना, योनि का उत्तेजन, स्त्री पुरुष समलैंगिकता, वेश्या व्यवसाय, प्रजनन इत्यादि के विषय में भी जानकारी दें.

इस बात की राह न देखें कि बच्चा इंटरनेट से या किताबों से खुद ही जानकारी हासिल कर लेगा. ध्यान रखिए पोर्न सामग्री व सेक्स एजुकेशन में बहुत अंतर होता है.

बच्चों के समक्ष विचार-विमर्श के लिये प्रश्न भी उठाएँ, साथ ही बेटा बेटी दोनो को मासिक धर्म, स्वप्न दोष, जैसी बातों की जानकारी एक साथ दें यह न सोचे कि लड़कों की बातें लड़कों को और लड़कियों की बातें लड़कियों को बताएँगे दरअसल यौन शिक्षा में लड़के लड़की जैसा कुछ होता भी नहीं.

बालकों द्वारा प्रश्न सहजता से पूछे जायें इस प्रकार का वातावरण बनाएं. यदि आपके पास यौनिकता सम्बंधी जानकारी नहीं है, जिसका आपके स्वयं के संस्कारों के कारण न होना स्वाभविक है, तो अध्ययन करें, जानकारों व मनोवैज्ञानिकों की सहायता लें.

सारी बातें बताने के बाद समय समय पर इस बात का परिक्षण भी करें कि उन्हें बातें समझ में आई या नहीं चाहें तो लिखित परीक्षा भी ले सकते हैं. बच्चों को टेस्ट देने की आदत तो होती ही है.

यह बताने कि आवश्यकता तो नहीं कि उनकी देह से उनका परिचय करने के अलावा उन्हें लैंगिक सुरक्षा, नैतिक मूल्य, सत्य कहने की आदत, भावनाओं का निर्माण, निर्णय लेने की क्षमता, और अन्य व्यक्तियों के साथ व्यवहार, रहन सहन जैसे विषयों पर भी बताया जाए.

एक और महत्वपूर्ण बात. माता-पिता अक्सर बच्चों के आते ही एक दूसरे से दूर बैठ जाते हैं, हाथ पकड़ा हो तो छोड़ देते हैं. उनके सामने चुम्बन, आलिंगन, सम्भोग तो बहुत दूर की बात है. मनोविज्ञान यह कहता है कि बच्चे जब माता-पिता को आपस में प्रेम करते हुए देखते हैं तो उनके मानस में प्रेम की नींव तैयार होती है.

प्रेम के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि की नीव सिद्ध हो सकती है, इसके विपरित झगड़ा करते हुये, एक-दूसरे को दूर करते हुये, धिक्कार करते हुये देखना उनके मन में नकारात्मक दृष्टिकोण के बीज बो सकता है. सोचिये इस दौर में जहाँ नफरत फैलाई जा रही है बच्चों में प्रेम के बीज बोने की कितनी जरुरत है.

इस तरह बच्चों की लैंगिकता के बहाने हम अपने आप की समझ में भी वृद्धि कर सकते हैं. बच्चों के विकास के विभिन्न चरणों के अनुसार हर अभिभावक और समाज के हर व्यक्ति को यह बात गंभीरता से समझना आवश्यक है. इसी तरह हम आगे चलकर बच्चों का एक स्वस्थ्य मस्तिष्क से युक्त मनुष्य बना पाएंगे, देश में घटित होने वाले यौन अपराधों, और स्त्रियों के दैहिक शोषण, उत्पीड़न आदि पर लगाम लगा पाएंगे.

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