आदिवासियों ने कहा-हसदेव का आंदोलन जारी रहेगा
रायपुर | संवाददाता: हसदेव अरण्य के आदिवासियों ने साफ़ कहा है कि नये कोयला खदानों के रद्द होने तक उनका आंदोलन जारी रहेगा. 2 मार्च से हसदेव में चल रहा धरना भी ख़त्म नहीं होगा.
आदिवासियों ने कहा है कि वे एक दशक से भी अधिक समय से संघर्ष कर रहे हैं और ऐसी चिट्ठियां अब भरोसा नहीं पैदा करतीं.
गौरतलब है कि दो दिन पहले छत्तीसगढ़ सरकार ने परसा कोयला खदान की वनभूमि व्यपवर्तन की स्वीकृति निरस्त करने के लिए केंद्र से अनुरोध किया है.
इसके अलावा सरकार ने राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक को केते एक्सटेंशन कोल ब्लॉक के वन भूमि व्यपवर्तन प्रस्ताव के पंजीयन की कार्रवाई नहीं करने के निर्देश दिए हैं.
इन दोनों कोयला खदानों को राजस्थान राज्य को आवंटित किया गया है, जिसका एमडीओ अडानी समूह के पास है.
राज्य की विधानसभा ने इसी साल जुलाई में हसदेव अरण्य में आवंटित सभी कोयला खदानों को निरस्त करने का संकल्प पारित किया था. लेकिन केंद्र ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया. इसके बाद राज्य सरकार ने अब जा कर केंद्र को फिर से पत्र लिखा है.
सवाल भरोसे का
पिछले वर्ष अक्टूबर में हसदेव के आदिवासी 300 किलोमीटर की पदयात्रा करके राजधानी रायपुर पहुचे थे.
राज्यपाल और मुख्यमंत्री द्वारा उन्हें आश्वस्त किया गया था कि उनके साथ अन्याय नही होगा.
लेकिन इन आश्वासनों के कुछ ही महीनों के बाद हसदेव के इलाके में पेड़ों की कटाई शुरु कर दी गई.
हसदेव अरण्य को बचाने चल रहे आन्दोलन का कांग्रेस नेता राहुल गाँधी भी लगातार समर्थन करते रहे हैं.
कुछ माह पूर्व ही केम्ब्रिज कॉलेज, लंदन में पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि “हसदेव के आदिवासियों का आन्दोलन जायज है और हम उसके शीघ्र समाधान का प्रयास कर रहे है.”
2015 में हसदेव के केंद्र मदनपुर पहुंचकर हसदेव के आन्दोलन का उन्होंने न सिर्फ समर्थन किया था बल्कि आदिवासियों की कीमत पर खनन परियोजना पर सवाल खड़े किए थे. लेकिन ये सारे दावे बयानों में उलझ कर रह गए.
राज्य की भूमिका पर सवाल
राज्य सरकार द्वारा 31 अक्टूबर 2022 को लिखे पत्र का स्वागत करते हुए भी सवाल उठाये जा रहे हैं कि क्या कोयला खनन परियोजना को रोकने के लिए राज्य सरकार के पास कोई अधिकार नही है? जब जंगल संविधान की समवर्ती सूची में शामिल है तो राज्य सरकार स्वयं कार्यवाही क्यों नही कर रही है?
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के रामलाल करियाम का मानना है कि परसा ब्लॉक के लिए जारी हुई वन स्वीकृति ही गैरकानूनी है क्योंकि कभी भी उनकी ग्रामसभाओं ने सहमति नही दी थी. यह वन स्वीकृति ग्राम सभा का फर्जी प्रस्ताव बनाकर हासिल की गई थी.
उनका कहना है कि आज भी प्रभावित गाँव में वनाधिकार मान्यता कानून की प्रक्रिया लंबित है. दरअसल राज्य सरकार इन पत्रों को माध्यम से न सिर्फ अपनी जवाबदेही से बचना चाहती है बल्कि अडानी की खनन परियोजना को बचाने की कानूनी कोशिश भी सरकार द्वारा की जा रही है.
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक उमेश्वर सिंह अर्मो मानते हैं कि चूँकि हसदेव के लोग कांग्रेस पार्टी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में शामिल राहुल गाँधी से मुलाकात करने वाले हैं, इसीलिए यह पत्र लिखा गया है. सरकार अभी भी हसदेव के संरक्षण के लिए गंभीर नही है.
कानून के पेंच
आदिवासी, खनन और पर्यावरण मामलों की जानकार अधिवक्ता शालिनी गेरा का मानना है कि 31 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के वन विभाग के अवर सचिव का लिखा पत्र अत्यन्त विचित्र है.
शालिनी गेरा का कहना है कि राज्य सरकार, केन्द्र सरकार से उस वन स्वीकृति को निरस्त करने की मांग कर रही है, जो राज्य सरकार को वन भूमि को गैर वन प्रयोजन के लिये उपयोग करने के लिये केवल अधिकृत करती है, पर किसी भी तरह से उसे बाध्य नहीं करती है.
शालिनी गेरा का कहना है कि केन्द्र सरकार द्वारा जारी की गई इस वन स्वीकृति को प्राप्त करने के बाद ही राज्य सरकार द्वारा वन विभाग को संदर्भित वन भूमि के व्यपवर्तन के लिये आदेश जारी किया जाता है. इसके उपरान्त वन विभाग पेड़ विदोहन की प्रक्रिया कर, उस भूमि को किसी गैर वानिकी परियोजना के लिये व्यपवर्तित करता है.
अधिवक्ता शालिनी गेरा का कहना है कि किसी भी परियोजना के लिए केंद्र से वन अनुमति मिलने के बाद भी राज्य सरकार अपने वन विभाग को उचित आदेश दे सकती है कि वन भूमि का व्यपवर्तन नहीं करे या दिए गए अंतिम आदेश को वापस ले सकती है. इसमें केन्द्र सरकार द्वारा कोई रोक नहीं है.
राज्य सरकार द्वारा लिखे गए इस पत्र का स्वागत करते हुए छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं कि राज्य सरकार को अपने क्षेत्राधिकार की कार्यवाही करनी चाहिए.
आलोक शुक्ला कहते हैं- “वन संरक्षण अधिनियम की धारा 2 के तहत दिनांक 26 अप्रेल 2022 को परसा खुली कोयला खनन परियोजना हेतु वन विभाग द्वारा जारी किए गए अंतिम आदेश को ही वापिस लेना चाहिए. इसके लिए केंद्र की अनुमति की आवश्यकता नहीं है.”
आलोक शुक्ला इसके लिए पुराने उदाहरण देते हुए कहते हैं- “मार्च 2020 में छत्तीसगढ़ के वन विभाग ने बेलाडीला के 13 नंबर लोहा खदान के पक्ष में जारी अंतिम वन स्वीकृति के आदेश को वापिस लेने के लिए आदेश जारी किया है. परसा और केते एक्सटेंशन के मामले में जारी स्वीकृतियों को आख़िर रद्द करने से राज्य सरकार क्यों घबरा रही है?”