जीना मुहाल करेगी जीएसटी
देविंदर शर्मा
पैकेट बंद आटा, चावल, दही, लस्सी जैसे खाद्य पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने के बाद इन तमाम उत्पादों के दाम बढ़ गए हैं. अभी तक हम महंगाई को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और थोक मूल्य सूचकांक के पैमाने पर नापते रहे हैं, मगर अब लगता है कि इसमें जीएसटी का तीसरा मापक भी जोड़ देना चाहिए और यह पता करना चाहिए कि जीएसटी से कितनी महंगाई बढ़ी है?
इससे यह धारणा भी टूटेगी कि महंगाई बढ़ने की बड़ी वजह किसान हैं, क्योंकि सरकार की तरफ से कथित तौर पर उन्हें कई तरह के समर्थन दिए जाते हैं. चूंकि अब जीएसटी के दायरे में गेहूं, धान, राई, बार्ली, ओट्स ही नहीं, बल्कि लस्सी, दही, छाछ, पनीर जैसे तमाम उत्पाद आ गए हैं, इसलिए उपभोक्ताओं को यह जानने का हक होना ही चाहिए कि इस टैक्स व्यवस्था ने उनके घर का बजट कितना बिगाड़ा है?
असल में, जीएसटी किसानों के लिए भी परेशानी का कारण है. इससे उनके कृषि उपकरण तो महंगे हो ही गए हैं, उनकी लागत बढ़ गई है. विशेषकर हिमाचल प्रदेश में सेब उत्पादन करने वाले किसान तो इसलिए आंदोलित हैं, क्योंकि फलों के डिब्बे पर भी जीएसटी लग गया है.
जाहिर है, दुग्ध उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने के बाद डेयरी उद्योग पर भी तमाम तरह के संकट आएंगे. मगर विडंबना है कि इस मूल्य-वृद्धि से किसानों को कोई लाभ नहीं होने वाला.
देश में जब जीएसटी की शुरुआत हुई थी, तब राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) की एक रिपोर्ट के हवाले से दावा किया गया था कि इससे सभी सेक्टर को फायदा होगा. मगर उस वक्त भी मैंने यह अंदेशा जताया था कि सारी मलाई उद्योग जगत चट कर जाएगा, और उपभोक्ताओं के हिस्से कुछ नहीं आएगा.
आज हम साफ-साफ देख रहे हैं कि जीएसटी का फायदा मूलत: उद्योग जगत को ही मिला. एक्साइज ड्यूटी, वैट, लग्जरी टैक्स, सेल टैक्स जैसे तमाम कर या तो खत्म कर दिए गए या जीएसटी में शामिल कर दिए गए. इससे कारोबारी घराने फायदे में रहे, पर तमाम करों का बोझ उपभोक्ताओं के कंधे पर आ गया.
जीएसटी के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि यह देश के 160 देशों में लागू है, लेकिन सच यह भी है कि इससे ऑस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ जैसी अर्थव्यवस्थाएं संकट में हैं और ऑस्टे्रलिया, कनाडा जैसे तमाम देशों में महंगाई बढ़ी है. दावा किया जाता है कि जीएसटी से महंगाई कुछ समय तो बढ़ती है, पर दीर्घावधि में इसका फायदा होता है.
मगर यह भी सिर्फ शब्दों की बाजीगरी है, क्योंकि आज अगर जीएसटी के कारण महंगाई में तेज उछाल आती है, तो आने वाले दिनों में इसमें स्थिरता ही आएगी, जिसकी वजह से महंगाई का आधार बढ़ जाएगा. जाहिर है, उपभोक्ताओं को जीएसटी से राहत मिलने के शब्द बस आश्वासन हैं, इनका हकीकत से कोई वास्ता नहीं.
जीएसटी में हुए नए बदलाव के बाद अब देश का हर नागरिक किसी न किसी रूप में टैक्स चुकाने को मजबूर है. पहले कहा जाता था कि वेतनभोगी तबका ही कर देता है, जिससे देश चलता है, मगर आज स्थिति यह है कि कोई मजदूर यदि एक जोड़ी चप्पल भी खरीदता है, तो उसे पांच फीसदी टैक्स चुकाना पड़ता है. इसका अर्थ है कि टैक्स की नई व्यवस्था ने सभी के लिए कर चुकाना अनिवार्य बना दिया है.
इसके समर्थक यह भी कहते हैं कि इससे किसानों को फायदा होगा. यह बात भी सही नहीं है, क्योंकि एक उद्योगपति जब टैक्स चुकाता है, तो कहीं न कहीं उसकी ‘रिकवरी’ कर लेता है, किसानों को यह सुविधा हासिल नहीं होती. कृषि उपकरण से उनकी फसल-लागत जरूर बढ़ गई है, पर उनके पास ऐसा कोई माध्यम नहीं कि वे इस लागत की भरपाई कर सकें.
सरकार ने 23 सदस्यों की एक कमेटी बनाई है, जो किसानों को मदद करने संबंधी उपायों की सिफारिश करेगी. दरअसल, किसान आंदोलन के बाद सरकार ने कहा था कि वह ऐसी कमेटी बनाएगी, जो यह जानने के प्रयास करेगी कि एमएसपी को किस तरह से प्रभावी बनाया जाए या किसानों की लागत कैसे कम की जाए?
इस कमेटी का एक मकसद यह पता लगाना भी है कि देश के सभी किसानों तक किस तरह से एमएसपी का लाभ पहुंचाया जाए? गौरतलब है कि शांता कुमार की रिपोर्ट बताती है कि देश के छह फीसदी किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिलता है. शेष 94 फीसदी किसान बाजार के हवाले हैं. यदि बाजार इतना ही अच्छा होता या किसानों का भला करता, तो आज खेती पर संकट पैदा ही नहीं होता.
साफ है, आज हमें एमएसपी बढ़ाने की जरूरत है. कोशिश यह होनी चाहिए कि देश के हरेक किसान को इसका लाभ मिले. इसके लिए सबसे पहले हमें मंडियों का विस्तार करना होगा. अभी देश भर में तकरीबन 7,000 कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) मंडी हैं, जिनको बढ़ाकर 42,000 करना होगा.
इसके अलावा, सरकार अभी 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है. मगर इसका लाभ सिर्फ कागजों पर मिलता है, असल में धान, गेहूं और कुछ हद तक कपास किसानों को ही इसका फायदा मिल पाता है. ऐसे में, जरूरी यह भी है कि सभी 23 फसलों पर किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार मिले, ताकि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसलों की कोई सरकारी या निजी खरीद न हो सके.
अगर ऐसा हो सका, तो निस्संदेह किसानों की आमदनी बढ़ेगी, जिसका फायदा अंतत: अर्थव्यवस्था को होगा. याद कीजिए, जब सातवां वेतन आयोग लागू हुआ था, तब देश की पांच-छह फीसदी आबादी को ही इसका लाभ मिला था, उस वक्त उद्योग जगत ने कहा था कि सरकार का यह कदम देश की अर्थव्यवस्था के लिए ‘बूस्टर’ का काम करेगा, क्योंकि पैसा आने के बाद लोग बाजार में उसे खर्च करेंगे.
कल्पना कीजिए, यदि देश की 50 फीसदी आबादी (किसान) के हाथों में पैसा आता है, तब वह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए कितना फायदेमंद होगा. जाहिर है, देश को आर्थिक तरक्की करनी है, तो ‘सबका साथ, सबका विकास’ संबंधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्द हमें जमीन पर उतारने होंगे, और किसानों को उनकी फसल की उचित कीमत देकर उनका साथ देना होगा. तभी सभी का विकास हो सकेगा.