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अद्भुत देश है भारत

ऊर्मिलेश
अद्भुत देश है भारत, खासकर अपना हिन्दी-भाषी उत्तर भारत!

एक वरिष्ठ पत्रकार-मित्र इन दिनों यूपी के तीसरे चरण के चुनाव वाले इलाकों में घूम रहे हैं. वह गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्र से आते हैं. यूपी के वह अलग-अलग शहरों, कस्बों और गांवों मे जा रहे हैं.

अलग-अलग तरह और श्रेणियों के लोगों से मिल रहे हैं ताकि चुनाव के बारे में लोगों की भिन्न-भिन्न राय जान सकें. इससे चुनाव की वास्तविक तस्वीर को समझना कुछ आसान होता है.

उनकी इस तरकीब या शैली को मैं सही मानता हूँ. मैं भी जिन दिनों चुनाव रिपोर्टिंग पर निकलता था; सच्चाई जानने के लिए ऐसे ही तरीके अपनाता था.

कुछ समय पहले मैने उक्त पत्रकार-मित्र से फोन पर बातचीत की. उन्होंने यूपी के मीडिया के संदर्भ में अपना एक बड़ा ही दिलचस्प अनुभव सुनाया. उन्होंने कहा कि

‘जिस इलाके में मैं घूम रहा हूँ , उसे सिर्फ मुख्यधारा ही नहीं, अपने को ‘वैकल्पिक’ कहने वाले मीडिया के लोग भी ‘ओबीसी लैंड’ या और स्पेसिफिक होते हुए ‘यादव बेल्ट’ कहते हैं. पर यह देखना विस्मयकारी तो नहीं पर दिलचस्प जरूर है कि इस ओबीसी लैंड या यादव बेल्ट में इक्के-दुक्के को छोड़कर सारे पत्रकार एक ही तरह के उच्च-वर्णीय हिन्दू समुदाय से हैं.

बड़े मीडिया संस्थानों के स्थानीय प्रतिनिधि तो ‘अनिवार्य रूप’ से एक ही वर्ण के हैं. मैं जिस किसी स्थानीय पत्रकार से मिल रहा हूं, उनमें 95 फीसदी एक जैसे सरनेम वाले हैं पर समाज में ऐसे सरनेम वालों की आबादी बमुश्किल 5 या 6 फीसदी से भी कम होगी!’

हमारे मित्र के लिए यह नया और दिलचस्प अनुभव है. पर मेरे लिए नहीं. सच ये है कि सिर्फ इसी इलाके में नहीं, प्राय: सभी हिन्दी भाषी राज्यों में आज भी इसी खास समुदाय के पत्रकारों की बहुतायत है.

हिन्दी और अंग्रेजी के मुख्यधारा मीडिया में तो लगभग संपूर्ण वर्चस्व है. राजनीति, कृषि, व्यवसाय और खेलकूद से लेकर सरकारी नौकरियों में भी पहले के मुकाबले सामाजिक विविधता बढ़ी है. पर हमारे मुख्यधारा और यहाँ तक कि कथित वैकल्पिक मीडिया में आज भी वह नदारद है.

इधर, सोशल मीडिया के सौजन्य दलित और ओबीसी समुदाय के कुछ युवा भी अपने वीडियो के जरिये अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं पर संसाधन और जरूरी तकनीक के अभाव में उनकी ‘पहुंच’ बहुत सीमित है. इस तरह सूचना और ज्ञान के बड़े माध्यम और महकमे पर एक ही सामाजिक श्रेणी के लोगों का संपूर्ण वर्चस्व नज़र आता है.

दशकों पहले, मीडिया-इतिहासकार और समाज-विज्ञानी प्रोफ़ेसर Robin Jefri को यही नज़र आया था(India’s Newspaper Revolution(Year-2000). तबसे भारत में न जाने कितनी सरकारें आयी और गयीं. कितना निजीकरण और उदारीकरण हुआ. समाज और राजनीति का कितना भारी ‘हिन्दुत्वीकरण’ हुआ.

कई बार दलित और ओबीसी समुदाय से उभरे नेता सरकार में मंत्री और मुख्यमंत्री भी बने. पर मीडिया और पत्रकारिता में कुछ भी नहीं बदला. कुछ ‘उच्च हिन्दू जातियों और वर्णों’ का वर्चस्व लगातार कायम रहा. उसमें भी एक ही वर्ण सबसे ज्यादा प्रभावी बना रहा!

कुछ तो बात है कि हिन्दी-पट्टी में कुछ भी नहीं बदलता—!

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