छत्तीसगढ़

कोयला पर सोनिया गांधी को गुमराह कर रहे हैं गहलोत?

कोरबा | संवाददाता: छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में नये कोयला खदान की अशोक गहलोत की मांग को आदिवासियों ने गुमराह करने वाला बताया है. आदिवासियों का कहना है कि अडानी के लाभ के लिए राजस्थान के मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को उजाड़ना चाहते हैं.

हसदेव अरण्य इलाके के आदिवासियों का कहना है कि परसा इस्ट केते बासन पहले से ही राजस्थान सरकार को आवंटित है और राजस्थान सरकार ने इसे एमडीओ के तहत अडानी को दे दिया है.

हसदेव अरण्य इलाके के उमेश्वर सिंह कहते हैं- “इस खदान का उत्पादन 10 मिलिटन टन से 15 टन कर दिया गया है. ऐसे में इस खदान से उत्पादन बढ़ गया है, ऐसे में कोयले की कमी का हवाला देकर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी को गुमराह कर रहे हैं.”

गौरतलब है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सोनिया गांधी को पिछले तीन महीनों में दूसरी बार एक पत्र लिख कर कहा है कि राजस्थान में बिजली संकट पैदा हो सकता है. इसका कारण 4,340 मेगावॉट क्षमता के बिजली संयंत्र के पास कोयले की कमी हो गई है. संयंत्र को छत्तीसगढ़ में आवंटित कोयला ब्लॉक से ईंधन नहीं मिल रहा.

गहलोत के दावे का सच

असल में छत्तीसगढ़ के परसा इस्ट केते बासन कोयला खदान को राजस्थान सरकार 2028 तक के लिए आवंटित किया गया था. लेकिन राजस्थान सरकार का कहना है कि सारा कोयला खत्म हो गया है.

सवाल यही है कि राजस्थान सरकार को छत्तीसगढ़ की जो कोयला खदान 15 साल के लिए दी गई थी, उससे 7 साल में ही सारा कोयला निकाल कर किसे दे दिया गया?

1700 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले हसदेव अरण्य में चोटिया के बाद परसा ईस्ट एवं केते बासेन दूसरी ऐसी कोयला खनन परियोजना है, जिसमें कोयला उत्खनन जारी है. इन दोनों कोल ब्लॉक की स्वीकृति भी हसदेव अरण्य क्षेत्र के ‘नो गो’ घोषित होने के बाद जारी हुई थी.

राजस्थान सरकार के संयुक्त उपक्रम राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को ये दोनों कोल ब्लॉक, परसा ईस्ट एवं केते बासेन वर्ष 2007 में आवंटित हुए.

कोल ब्लॉक के विकास, खनन और कोयला आपूर्ति का ठेका MDO अनुबंध के माध्यम से राजस्थान सरकार द्वारा अडानी कंपनी को दिया गया है. हालाँकि यहाँ दो अन्य कोल ब्लॉक परसा एवं केते एक्सटेंशन भी राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित हैं और इनका MDO भी अडानी कंपनी को ही दिया गया है.

21 अक्टूबर 2021 को परसा कोल ब्लॉक की वन स्वीकृति भी केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी की गई थी, जिसको लेकर काफी सवाल हैं और इसके खिलाफ स्थानीय आदिवासियों का विरोध सतत जारी है.

दरअसल हसदेव अरण्य क्षेत्र की वन समृद्धता को स्वीकारने और खनन के गंभीर दुष्प्रभावों की बात को स्वीकार करने के बाद भी विभिन्न खनन परियोजनाओं को लगातार सहमति दी जा रही हैं. ऐसे में इसे मूल रुप से एक कार्पोरेट समूह के दवाब में लिए जा रहे निर्णयों के रूप में देखा जा रहा है.

राज्य सरकार की आड़ में कार्पोरेट समूह के दवाब को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि परियोजना से सम्बंधित विभिन्न मामले न्यायालयों में लंबित हैं. इसके बाद भी खनन परियोजना के विस्तार की सहमतियाँ प्रदान की जा रही हैं.

नो गो क्षेत्र के बाद भी खनन स्वीकृति

जिन कोयला खदानों का उल्लेख किया गया है, वे सभी मध्य भारत के सबसे समृद्ध वन क्षेत्र हसदेव अरण्य में स्थित हैं. घने और प्राकृतिक वनों के साथ यहाँ की जैव विविधता बहुत ही महत्वपूर्ण है.

यह इलाका भारत सरकार की श्रेणी 1 के कई प्रमुख वन्य प्राणियों के रहवास के लिए न सिर्फ उपयुक्त है बल्कि यहां उनकी उपस्थिति भी है. यह वन क्षेत्र आदिवासियों की आजीविका और संस्कृति के साथ छत्तीसगढ़ की जीवनदायनी हसदेव नदी का जलागम क्षेत्र भी है.

उपरोक्त विभिन्न कारणों से इस सम्पूर्ण हसदेव अरण्य को “पर्यावरणीय संवेदनशील” क्षेत्र मानते हुए केन्द्रीय वन पर्यावरण, एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के द्वारा खनन हेतु “नो गो क्षेत्र” घोषित किया गया था. वर्ष 2010 में नो गो क्षेत्र घोषित होने के कारण यहाँ आवंटित सभी कोल ब्लॉको की स्वीकृति प्रक्रिया को रोकते हुए इस क्षेत्र को खनन के लिए प्रतिबंधित किया गया था.

वर्ष 2012 में राज्य सरकार और खनन कंपनी के दवाब में इस परियोजना को हसदेव अरण्य क्षेत्र के फ्रिंज अर्थात किनारे में मानते हुए वन स्वीकृति जारी की गई थी. स्वीकृति मिलने के बाद से ही यह परियोजना न सिर्फ विवादों में रही है बल्कि खनन का कार्य कर रही MDO (माइंस डेवलपर कम आपरेटर) कंपनी अडानी पर अधिक दर पर कोयले बेचने सहित विभिन्न कानूनों और नियमो के उल्लंघन के आरोप भी लगते रहे हैं.

परसा ईस्ट एवं केते बासेन का सच

कुल 2711 हेक्टेयर क्षेत्रफल की इस कोयला खनन परियोजना में 2388 हेक्टेयर क्षेत्रफल में कोयला उत्खनन के लिए 30 मई 2012 को माइनिंग लीज प्रदान की गई थी. परियोजना से सरगुजा जिले के 7 गाँव की जंगल, जमीन प्रभावित हुई है जिसमें 2 गाँव का पूर्ण विस्थापन शामिल है. कुल 2388 हेक्टेयर माइनिंग लीज में 1898.328 हेक्टेयर वन भूमि शामिल है, जिसमें दो चरणों में खनन की अनुमति की शर्त पर केन्द्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने मार्च 2012 में वन स्वीकृति जारी की.

इस वन स्वीकृति के अनुसार परियोजना के प्रथम चरण में 762 हेक्टेयर एवं द्वितीय चरण में 1176 हेक्टेयर वन भूमि में खनन की शर्त रखी गई. वन स्वीकृति की शर्त के अनुसार प्रथम चरण की समाप्ति के बाद माइनिंग क्लोजर प्लान के अनुसार खनन बंद होने और खनन जमीन के पुनर्भरण (रिक्लेमेशन) के बाद ही द्वितीय चरण में खनन की अनुमति मंत्रालय द्वारा दी जाएगी.

खनन के दुष्प्रभावों को न्यूनतम रखते हुए पर्यावरण एवं वन्य प्राणियों के रहवास को बिना सकंट में डाले संयमित कोयला उत्खनन करना ही चरणबद्ध खनन योजना का प्रमुख आधार था.

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा परियोजना की वन स्वीकृति की निरस्ती का आदेश

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 24 मार्च 2014 में सुदीप श्रीवास्तव की याचिका पर सुनवाई करते हुए केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के स्वीकृति देने के सभी आधारों को ख़ारिज किया एवं इस खनन परियोजना की वन स्वीकृति को ही निरस्त कर दिया. आदेश में ग्रीन ट्रिब्यूनल ने लिखा कि “केन्द्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय” इस सम्पूर्ण वन क्षेत्र की निर्धारित पैरामीटर के अंतर्गत अध्ययन करवाए और अध्ययन के निष्कर्षो के आधार वन सलाहकार समिति (FAC) की सलाह पर निर्णय लिया जाएगा कि इस खनन परियोजना के लिए खनन हेतु पुनः वन स्वीकृति जारी की जा सकती है या नही.

राजस्थान राज्य विद्युत निगम लिमिटेड ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका प्रस्तुत की, जिस पर शीर्ष कोर्ट ने वन क्षेत्र का जैव विविधता अध्ययन और उसके आधार पर मंत्रालय के निर्णय लेने तक खनन जारी रखते हुए ट्रिब्यूनल के आदेश पर स्टे जारी किया.

15 वर्षो तक निकलने वाले कोयले की समाप्ति 7 वर्षो में ?

दिनांक 23 दिसंबर 2021 को केन्द्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वन सलाहकर समिति द्वारा लिया गया निर्णय पर स्पष्ट रूप से खनन कंपनी के उस प्रचार का असर नजर आता है, जो उसने पिछले एक वर्ष में मीडिया के जरिए तैयार किया- राजस्थान में कोयले का संकट…सिर्फ चंद दिनों का कोयला शेष.. जैसी मनगढ़ंत ख़बरें प्रचारित-प्रसारित करवाई गईं.

दरअसल किसी भी खनन परियोजना की स्वीकृति के आधार में माइनिंग प्लान एक सबसे महत्वपूर्ण दस्तावज होता है. वैज्ञानिक अध्ययन के साथ जमीन में उपलब्ध कोयले की मात्रा को समयबद्ध निकालने का पूरा खाका खनन कंपनी द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जिसे कोयला मंत्रालय स्वीकृत करता है.

खनन कंपनी द्वारा कोयला मंत्रालय से स्वीकृत खनन योजना (माइनिंग प्लान) के अनुसार प्रथम चरण में 15 वर्षो तक 10 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन के आधार पर कुल 137 मिलियन टन कोयले के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया.

कंपनी द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों के अनुसार परसा ईस्ट केते बासेन कोयला खनन परियोजना के प्रथम चरण में कुल 137 मिलियन टन में से वर्ष 2021 तक मात्र 72.42 मिलियन टन कोयला का उत्खनन किया गया.

स्वीकृत माइनिंग प्लान के अनुसार इसे देखा जाये तो प्रथम चरण में लगभग 64 मिलियन टन कोयला शेष होना चाहिए. हालाँकि परियोजना की क्षमता विस्तार के बाद वर्ष 2018-19 से उत्पादन क्षमता 15 मिलियन टन वार्षिक की गई है जिससे लगभग 15 मिलियन टन अतिरिक्त कोयला निकाला गया. इस बढ़ी हुई क्षमता के आधार पर भी वर्ष 2025–2026 तक प्रथम चरण के लिए कोयला मौजूद है.

परन्तु राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड द्वारा छत्तीसगढ़ सरकार को लिखे गए पत्रों में कहा गया कि प्रथम चरण का कोयला वर्ष 2021 तक ख़त्म को जायेगा क्योंकि 762 हेक्टेयर जमीन में पूर्व आंकलन अनुसार कोयला उपलब्ध नही है.

कंपनी के इस तर्क पर आँख मूंदकर अगले चरण के खनन के प्रस्ताव को केंद्र सरकार द्वारा आगे बढाया गया लेकिन ये सवाल नही किया गया कि जब कोयले की उपलब्धता का आंकलन ही गलत है तो उसके आधार पर बना स्वीकृत माइनिंग प्लान सही कैसे हो सकता है? यहाँ यह भी सवाल महत्वपूर्ण है कि प्रथम चरण के तथाकथित कोयले की समाप्ति से छत्तीसगढ़ सरकार को मिलने वाले राजस्व की भरपाई कहाँ से होगी?

न्यायालयों में मामले लंबित होने के वाबजूद परियोजना का विस्तार जारी

महत्वपूर्ण है कि यह एक ऐसी परियोजना है जिसकी वन स्वीकृति निरस्त होने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा खनन जारी रखने के स्टे आर्डर को आधार बनाकर न सिर्फ इसकी उत्पादन क्षमता 10 से 15 मिलियन टन की गई बल्कि न्यायालय के अंतिम आदेश के पूर्व ही दूसरे चरण की खनन योजना को भी स्वीकृति जारी कर दी गई. न्यायालय में लंबित मामले की अपने पक्ष में व्याख्या का यह अनूठा उदाहरण है.

24 मार्च 2014 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा परियोजना की वन स्वीकृति निरस्त करने के आदेश के खिलाफ राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रेल 2014 को स्टे आदेश जारी किया था.

सुप्रीम कोर्ट के इस स्टे आर्डर में बहुत स्पष्ट रूप से यह लिखा था कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश के तारतम्य में निर्धारित शर्तो के अधीन वन सलाहकार समिति द्वारा वन क्षेत्र का अध्ययन और उसके आधार पर केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा निर्णय लिए जाने तक कंपनी खनन जारी रखा जा सकती है.

केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वर्ष 2018 तक हसदेव अरण्य क्षेत्र का कोई भी अध्ययन नही कराया गया बल्कि परियोजना की उत्पादन क्षमता 10 से 15 मिलियन टन वार्षिक बढ़ाने की सहमति दे दी गई.

हाल ही में 23 दिसंबर 2021 को भी परियोजना के दूसरे चरण में खनन की अनुमति हेतु वन सलाहकार समिति ने सहमति इस शर्त पर दी कि यह सहमति माननीय सुप्रीम कोर्ट के अंतिम आदेश पर निर्भर करेगी.

इसी परियोजना से प्रभावित ग्राम घाट्बर्रा के सामुदायिक वनाधिकार को निरस्त किए जाने के खिलाफ गाँव की वनाधिकार समिति की याचिका पर मामला छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में भी लंबित है जिस पर अंतिम फैसला आना अभी बाकि है.

विशेषज्ञ अध्ययन हाशिये पर

हालाँकि NGT के आदेश के तारतम्य में वर्ष 2019 के बाद राज्य सरकार ने देश के दो प्रमुख संस्थान ICFRE और भारतीय वन्य जीव संस्थान (WII) से हसदेव अरण्य वन क्षेत्र की जैव विविधता अध्ययन कराया. इस अध्ययन में भारतीय वन्य जीव संस्थान द्वारा हसदेव अरण्य क्षेत्र में खनन से गंभीर दुष्प्रभाव एवं मानव हाथी द्वन्द के विकराल होने की चेतावनी के साथ सम्पूर्ण हसदेव अरण्य क्षेत्र को खनन से मुक्त रखने की सिफारिश की.

ICFRE ने अपनी रिपोर्ट में वर्तमान प्रथम चरण परिचालित PEKB परियोजना के संबंध में गंभीर पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को दर्शाते हुए बतलाया था कि यह अति-आवश्यक है कि यहाँ गहन (intensive) खनन प्रणाली की ज़रूरत है जिसमें सीमित क्षेत्रफल में ही भीतर तक खनन किया जाये.

इसके विपरीत इस परियोजना में विस्तृत (extensive) माइनिंग प्रणाली का उपयोग कर ज़्यादा क्षेत्र में कम गहराई तक खनन किया जाता है, जिससे व्यापक पर्यावरणीय विनाश होता है. ऐसे में दूसरे चरण की स्वीकृति पर्यावरणीय तर्क के बिलकुल विपरीत ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रफल में जंगल-कटाई और अनावश्यक विस्थापन को भी बढ़ावा देगा.

फर्जी ग्रामसभा प्रस्ताव और आदिवासियों की वनाधिकार की जमीन की ख़रीदी

परसा ईस्ट केते बासेन कोयला खनन परियोजना को लेकर ग्राम घाट्बर्रा जिसका सामुदायिक वन अधिकार पत्र भी कानून के विपरीत जाकर जनवरी 2016 में जिला स्तरीय समिति के द्वारा निरस्त कर दिया गया, ग्रामीण आदिवासी लगातार फर्जी ग्रामसभा प्रस्ताव तैयार करने का आरोप लगा चुके हैं.

नवम्बर 2012 में विभिन्न मंत्रालयों को प्रेषित ज्ञापन में भी फर्जी ग्रामसभा प्रस्ताव की जाँच और वनाधिकार मान्यता कानून के तहत लंबित दावों पर कार्यवाही की मांग आज भी सतत जारी है.

इसी परियोजना के लिए खनन कंपनी अडानी ने 32 आदिवासियों की व्यक्तिगत वनाधिकारों की जमीनों को नियम विरुद्ध खरीदा है, जिसकी जाँच उदयपुर एस डी एम् की अध्यक्षता में उप खंड स्तरीय समिति ने की.

समिति ने दिनांक 25 अगस्त 2020 को कलेक्टर को प्रेषित अपनी जाँच रिपोर्ट में कहा कि वनाधिकार मान्यता कानून के तहत प्रद्दत वनाधिकार पत्रक की जमीने सिर्फ भूमि अधिग्रहण कानून के जरिये सरकार ले सकती है, सीधे खरीदी बिक्री नही हो सकती हैं.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि खनन कंपनी से सीधे आदिवासियों से स्टाम्प पेपर पर जमीने खरीदी गईं, जो नियमविरुद्ध है. इस जाँच रिपोर्ट पर आज भी कार्यवाही लंबित है.

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