छत्तीसगढ़: धान के कटोरे से गायब होता स्वाद
आलोक प्रकाश पुतुल
छत्तीसगढ़ के बालोद ज़िले के दुर्गीटोला गांव के रहने वाले कार्तिक भूआर्य से आप धान की खेती की बात करें तो वो पुरानी यादों में गुम हो जाते हैं, “अब कहां वो धान! खेत से ही खुशबू आती थी. चावल पके तो कई घरों तक उसकी खुशबू फैल जाए. पेट भर के भात खा लो तब भी मन नहीं भरता था. किसी का स्वाद अनूठा तो किसी की खुशबू. अब तो गांवों में पूछने से भी पुराने धान की कोई किस्म नहीं मिलती.”
लगभग 65 साल के कार्तिक भूआर्य बताते हैं कि उनके गांव में पहले लोग पपीता सफरी, नागपुरी, लुचई, गुरमटिया, रामजीरा जैसी धान की किस्में लगाते थे लेकिन अधिक से अधिक उत्पादन के कारण ऐसी किस्में धीरे-धीरे कम होने लगीं और सरकारी कृषि केंद्र से अधिक उत्पादन वाले धान के बीज का चलन बढ़ता चला गया. अब खेतों में 1004, 1010, महामाया, सरना मासूरी, नंदिनी जैसी धान की क़िस्में लगाई जाती हैं.
उनके पास ही बैठे बंजारी पंचायत के रहने वाले संतराम जोड़ते हैं कि गांव में बुढ़िया, सुरमतिया, गुरमटिया, डोकरा-डोकरी, जैसे धान की किस्में लगाई जाती थीं. पहले के धान में रोग कम था. झुलसा, ब्लास्ट, तना छेदक जैसी समस्या नहीं थी. लेकिन बीज बदले तो पूरी स्थिति ही बदल गई. नई किस्म में अब कीटनाशक के छिड़काव के बिना खेती की कल्पना नहीं की जा सकती. धान की खेती के खर पतवार की सफाई के लिए अब मज़दूर भी नहीं मिलते, इसलिए उसके लिए भी खरपतवार नाशक का छिड़काव करना पड़ता है. धान की अधिक से अधिक उपज ले कर उसे बेचने के चक्कर में कृषि केंद्र के धान बीज पर निर्भरता बढ़ गई और परंपरागत बीज अब ढूंढने से भी नहीं मिलते. यह हाल उस राज्य का है जहां के एक विश्वविद्यालय में 20,000 से अधिक धान की प्रजातियां संग्रहित हैं.
छत्तीसगढ़ के जाने-माने समाजवादी नेता आनंद मिश्रा, कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने के बाद पिछले 50 सालों से मुंगेली ज़िले के अपने गांव में खेती-बाड़ी कर रहे हैं.
आनंद मिश्रा कहते हैं, “सरगुजा के इलाके में जीराफूल, छतरी, श्यामजीरा, रायगढ़ के इलाके में जवाफूल, जीराधान, नगरी के इलाके में चिन्नौर, माई दुबराज, दुबराज, कारीगिलास, बस्तर के इलाके में आत्माशीतल, कस्तूरी, अंतर्वेद, कपूरसार, बादशाह भोग, कालीकमोद, गंगाबारु, जैसी कई प्रजातियां थीं. मैदानी इलाकों में कुबरीमोहर, तिल कस्तूरी, बिसनी, इलायची, तुलसीमंजरी, तुलसीप्रसाद, जवाफूल, जयगूंडी, गोपालभोग, समुद्रफेन, लोहंडी, केरागुल उगाई जाती थी. लेकिन अब तो नई पीढ़ी को इनके नाम तक नहीं पता. ”
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में धान की 23,250 से अधिक प्रजातियां संग्रहित हैं. रायपुर के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के संग्रहण केंद्र में इन धान की प्रजातियों के जर्मप्लाज्म उपलब्ध हैं. लेकिन अब इनमें से अधिकांश प्रजातियां महज प्रयोगशालाओं में सिमट कर रह गई हैं. चावल की अलग-अलग किस्में, उनकी गुणवत्ता और खुशबू बीते दिनों की बात हो गई है. यह तब है, जब धान की खेती का रकबा साल दर साल बढ़ता जा रहा है. वर्ष 2018-19 में धान का रकबा 25 लाख 60 हजार हेक्टेयर था, जो 2021-22 में बढ़ कर 29 लाख 84 हजार हेक्टेयर हो गया.
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर सत्येंद्र सिंह सेंगर बताते हैं कि विश्वविद्यालय में एकत्र धान की प्रजातियों में से अधिकांश का संग्रहण डॉक्टर राधेलाल हरदेव रिछारिया ने लगभग पचास साल पहले किया था. 1971 से धान पर काम करने वाले डॉक्टर रिछारिया 1975 से 1978 तक मध्यप्रदेश धान अनुसंधान केंद्र, के निदेशक भी रहे.
डॉक्टर सत्येंद्र सिंह सेंगर ने मोंगाबे हिंदी से कहा, “विश्वविद्यालय में धान का जो संग्रह है, उसी से हम धान की नई प्रजातियां तैयार करते हैं. धान की विभिन्न प्रजातियों पर शोध के अलावा हमने पिछले 30-40 सालों में कई नई प्रजातियां विकसित की है, जो गुणवत्ता और उपज के मामले में पुरानी प्रजाति से बेहतर हैं. यह सिलसिला लगातार जारी है.”
धान कैसे कैसे!
विश्वविद्यालय के दस्तावेज से विभिन्न प्रकार के धान की संरक्षित प्रजातियों का पता चलता है. रायपुर के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में प्रक्षेत्र पर संरक्षण परियोजना के अंतर्गत धान की 705 अलग-अलग प्रजातियां संकलित की गईं. ये प्रजातियां कृषि विश्वविद्यालय के पास मौजूद जमीन पर उगाई जाती हैं. वहीं राष्ट्रीय कृषि प्रौद्योगिकी परियोजना के अंतर्गत धान की 1052 प्रजातियों का संकलन किया गया.
इसी तरह देशी धान से चयनित 938 प्रजातियां, 849 प्रजनन प्रजातियां, 210 जंगली धान की प्रजातियां और उच्चहन, विशिष्ट व अन्य 955 प्रजातियां विश्वविद्यालय में संकलित हैं. लेकिन इनमें धान का सबसे बड़ा संग्रह उन 20,298 देसी प्रजातियों का है, जो कभी छत्तीसगढ़ में उगाई जाती थीं. विश्वविद्यालय में संरक्षित देशी धान जनन द्रव्य यानी जर्मप्लाज्म समूह की बात करें तो यहां 125 दिनों में पकने वाली 5,557 प्रजातियां हैं. 126 से 140 दिनों में पक कर तैयार होने वाली धान की 5,069 प्रजातियां हैं. जबकि 7,915 प्रजातियां ऐसी हैं, जो 140 दिनों में तैयार होती हैं.
राज्य के अलग-अलग किसानों से बात करें तो छत्तीसगढ़ में पाई जाने वाली धान की क़िस्में चकित कर देती हैं. यहां 11.4 मिलीमीटर की लंबाई वाली धान की सुगंधमति प्रजाति भी मिलती है तो 5.2 मिलीमीटर की लंबाई वाली गंगाबारु की किस्म भी पाई जाती है. धान की रघुनाथ, रामदीन, छीनमोहरी, कालाजीरा, देवर्धन जैसी कई प्रजातियां सूखे को भी बर्दाश्त कर लेती हैं तो पूस बंगला जैसी कुछ प्रजातियां ऐसी हैं, जिन्हें तालाब में बोया जाता है और जिसे डोंगी में बैठ कर काटना पड़ता है. नारबेल और बइदराज जैसी प्रजातियां भी फसल कटने तक पानी में डूबी रहती हैं.
राज्य के अलग-अलग इलाकों में राम-लक्ष्मण, लव-कुश और डोकरा-डोकरी के नाम से चर्चित धान की एक प्रजाति इस मायने में अनूठी है कि इसके एक बीज में चावल के दो दाने पाये जाते हैं. पिंउरा मुंदरिया के दाने हल्के पीले होते हैं तो रतन भंवरा, हरहर पदुम, जल कोक जैसी प्रजातियों के दाने लाल होते हैं. बरही, ठुमकी, भुसुवाकोरा, मरहन, गुड़मा, तुलसी घाटी, करियाझिनी समेत कई प्रजातियां ऐसी हैं, जिसके दाने काले होते हैं.
चावल की अलग-अलग किस्मों में अलग-अलग औषधीय गुण भी हैं. राज्य के किसान तो ऐसे बहुत स्वास्थ्य संबंधित फायदे गिनाते ही हैं पर सरकारी दस्तावेज में भी इसका जिक्र है.
राज्य में धान को लेकर होने वाले शोध से धान की कई प्रजातियों के विशेष गुण सामने आये, वहीं नई-नई किस्में भी विकसित की गईं.
भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र और इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के शोध के बाद यह प्रमाणित हुआ है कि छत्तीसगढ़ में मिलने वाली धान की गठवन, महाराजी और लाईचा प्रजाति में फेफड़े व स्तन कैंसर की कोशिकाओं को खत्म करने के गुण पाए जाते हैं.
फेफड़े के कैंसर में लाइचा धान ने कैंसर कोशिकाओं को पूरी तरह से नष्ट करने में सफलता पाई, वहीं गठवन और महाराजी से कैंसर कोशिकाओं को 70 प्रतिशत तक नष्ट कर दिया. इसी तरह स्तन कैंसर में भी लाइचा धान ने 65 प्रतिशत तक कैंसर कोशिकाओं को नष्ट किया. महाराजी प्रजाति के चावल से भी 35 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने में सफलता मिली. गठवन प्रजाति ने भी स्तन कैंसर की 10 फीसदी कोशिकाओं को नष्ट कर दिया.
राज्य के वैज्ञानिकों ने पिछले 20 सालों के शोध के बाद धान की चार ऐसी प्रजातियों को विकसित करने में सफलता पाई, जिसमें प्रोटीन, जिंक और मल्टी विटामिन हों. कोरोना काल में वैज्ञानिकों ने जिंको राइस एमएस, छत्तीसगढ़ जिंक राइस वन नाम से धान की एक ऐसी प्रजाति तैयार की, जिससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है. चावल की इस प्रजाति से शरीर के लिए ज़रुरी जिंक, प्रोटीन और मल्टी विटामिन्स आसानी से मिल सकते हैं.
निजी स्तर पर पारंपरिक धान बचाने की कोशिश
राज्य के कई ज़िलों में किसानों ने धान के पारंपरिक बीजों का बैंक बना रखा है, जिसके कारण पीढ़ी दर पीढ़ी धान की कई किस्में बची हुई हैं. बस्तर ज़िले के जगदलपुर से लगे हुए छोटे गारावंड की प्रभाती भारत ने 400 पारंपरिक प्रजाति की किस्मों को संरक्षित किया है. वे हर साल इन बीजों से धान उगाती हैं और उन्हें दूसरे किसानों को भी देती हैं.
मुंगेली के तरुण साहू ने अपने मित्र किशोर राजपूत के साथ मिल कर कृषि युग नामक संस्था बनाई और अब वे पारंपरिक बीजों का संग्रहण कर रहे हैं. उनके पास धान की लगभग 150 किस्में हैं, जिनके बीज वे किसानों को मुफ्त में देते हैं.
बिलासपुर के गनियारी के जन स्वास्थ्य सहयोग से संबद्ध कार्यकर्ताओं ने भी एक बीज बैंक बनाया है. दुर्ग के किसान संजय प्रकाश चौधरी भी पिछले कुछ सालों से चर्चा में हैं. उनके संरक्षित किए धान की प्रजाति इंद्रभेश दुबराज में 30 पीपीएम जिंक और 22 पीपीएम आयरन मिलने के बाद कृषि विश्वविद्यालय ने उनके संरक्षित बीज को अपने ब्रीडिंग प्रोग्राम में शामिल किया है.
कृषि विज्ञान में स्नातक तरुण साहू कहते हैं, “आज से पचास साल पहले तक देश में धान की डेढ़ लाख प्रजाति थी. लेकिन धीरे-धीरे सारी प्रजातियां ख़त्म होती चली गईं. आज की तारीख में मुख्य रुप से 600 के आसपास धान की प्रजाति चलन में है. ऐसा क्यों हुआ, इस बात पर हम सबको चिंतन करने की ज़रुरत है.”
समर्थन मूल्य और अधिक उपज के पेंच
रायपुर के अभनपुर इलाके के किसान तीरथराम साहू का कहना है कि पुरानी किस्मों में भले उत्पादन कम होता था लेकिन लागत भी कम थी. पुरानी किस्मों में स्थानीय मौसम की मार को बर्दाश्त करने की क्षमता भी थी और उनमें रोग प्रतिरोधक भी था.
तीरथराम साहू कहते हैं कि नई किस्मों ने उत्पादन तो बढ़ाया लेकिन रासायनिक खाद और कीटनाशक की ज़रुरत को भी बढ़ा दिया. इस तरह खेती की लागत भी बढ़ गई और अब यह लागत साल दर साल बढ़ती जा रही है. 70 साल के तीरथराम का मानना है कि छत्तीसगढ़ में समर्थन मूल्य पर धान ख़रीदी के कारण परंपरागत बीजों के प्रति लोगों में उदासीनता बढ़ती गई और अब इन परंपरागत बीजों की कोई पूछ-परख नहीं है.
पिछले साल फरवरी में विधानसभा में सुगंधित धान की किस्म ‘विष्णुभोग’ का रकबा कम होते जाने को लेकर पूछे गये एक सवाल के जवाब में कृषि मंत्री रविंद्र चौबे ने भी स्वीकार किया कि लघु-सीमांत श्रेणी के कृषकों द्वारा ग़ैर सुगंधित धान किस्म के उपयोग से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन प्राप्त कर सीधे अच्छे दर पर विक्रय करने से, सुगंधित धान के उत्पादन में कमी आई है.
लेकिन पारंपरिक बीजों के कम उपयोग के दूसरे ख़तरे भी हैं. कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर संकेत ठाकुर कहते हैं कि धान की खेती में विविधता खत्म हो रही है और मोनोक्रापिंग की अपनी मुश्किलें हैं. डॉक्टर संकेत कहते हैं, “कोई एक बीमारी आती है और टमाटर की पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो जाती है. यही हाल धान का भी हो सकता है. धान की विविध प्रजातियां थीं, तो ख़तरा किसी एक प्रजाति पर होता था. अब ऐसा नहीं है.”
डॉक्टर संकेत ठाकुर कहते हैं कि अधिक से अधिक उत्पादन वाली बेस्वाद धान की किस्मों को उगाने की होड़ में दूसरी फसलों का रकबा भी कम हुआ है. कोदो, कुटकी, रागी जैसे अनाज की उपज प्रति एकड़ 4-5 क्विंटल होती है, इसके मुकाबले ख़राब से ख़राब स्थिति में भी धान की नई प्रजाति का उत्पादन 10 क्विंटल प्रति एकड़ होता है.
वे सवाल करते हैं कि सुगंधित, औषधीय, परंपरागत, पतला, मोटा सभी तरह के धान का समर्थन मूल्य एक ही है तो आख़िर किसान अधिक से अधिक उत्पादन वाली कोई मोटी प्रजाति क्यों न उगाए? अगर परंपरागत धान की प्रजाति को बचाना है तो सरकार को उच्च गुणवत्ता वाली किस्मों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी अलग क़ीमत तय करनी ही होगी.