क्या स्त्री केवल श्रीमती पुरुष है?
कनक तिवारी
जच्चा, बच्चा वाला दिलचस्प, विचारोत्तेजक और अभिनव मामला मध्यप्रदेश की अदालत में आया था.पत्नी के खिलाफ पति ने हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत तलाक हेतु अदालत में मामला दायर किया.
पति का आरोप था पत्नी द्वारा लगातार तीन बार गर्भपात करा लेने से पति के प्रति मानसिक क्रूरता होने से वह तलाक का अधिकारी है. प्रकरण केवल इसीलिये सनसनीखेज नहीं था. इसलिये भी नहीं कि गृहिणी के कामकाजी महिला बन जाने से पारिवारिक जीवन पर कैसी गुजरती है.
घटना के गर्भ में महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे के बीजाणु छिपे रहे. उन पर भारत क्या दुनिया की अदालतों में एवं समाजशास्त्रियों ने अनेक बार विचार किया है. लेकिन अंतिम निष्कर्ष पर पहुंच नहीं पाये.
मामले में मानवीय गरिमा और नारी की स्वतंत्रता जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पहलू छिपे रहे. सवाल था बच्चों के अभाव में पति को पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन निर्वाह करने के लिये क्या बाध्य किया जा सकता है? या पत्नी के लिये कानूनी तौर पर लाजिमी है कि विवाह के बाद पति के सहवास से संतानोतत्पत्ति करे ही?
क्या पत्नी को इस बात के लिये बाध्य किया जा सकता है कि वह अपने कैरियर, सामाजिक प्रतिबद्धताओं, महत्वाकांक्षाओं, सपनों तथा योजनाओं को मूर्त रूप देने के बदले पति की इच्छा का पालन करते संतानोत्पत्ति करे? भले ही इससे उसकी अस्मिता, अस्तित्व और भूमिका का अर्थ नहीं बचे. यह सवाल भी कि क्या हिन्दू विवाह अधिनियम जैसे कानून पुरुषपरक नहीं हैं?
समूचे वादविवाद में दोनों पक्षों की ओर से अनेक तर्क दिये जा रहे हैं. पति नामक संस्था के पक्ष में मुख्यतः निम्न तर्क वैवाहिक अधिकारों सहित अन्य सन्दर्भ में दिये जा सकते हैं:-
पत्नी की जिम्मेदारी है दाम्पत्य के निर्वाह के लिये पति की इच्छाओं का सम्मान, बल्कि शारीरिक समर्पण भी करे.
धर्म और कानून दोनों ने संतानोत्पत्ति को विवाह का मूलभूत मकसद ही है.
पत्नी को संतान की इच्छा नहीं हो और पति कम से कम दो बार संतानोत्पत्ति करना चाहे तो ऐसी स्थिति में पत्नी को पति के प्रति मानसिक कू्रता का दोषी ठहरा कर उससे पति को तलाक मिल सकता है?
पत्नी संतानहीन होने पर पति से पूछे बगैर बार बार गर्भपात कराने की अधिकारिणी नहीं है क्योंकि पैदा होने वाले बच्चे पर दोनों का अधिकार है. पति का अधिकार श्रेष्ठतर है क्योंकि विधि के अनुसार संतानों का पिता नैसर्गिक अभिभावक होता है.
स्त्री की महत्वाकांक्षा परिवार के हितों की कीमत पर नहीं हो सकती.
संतानोत्पत्ति के अभाव में पति पत्नी का शारीरिक सहवास केवल भौतिक क्रिया है. उससे मानसिक द्वंद्व पैदा होने की संभावना है.
सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाली अनेक महिलाओं ने संतानों को जन्म दिया है, बल्कि उनका पालन पोषण भी किया है.
स्त्री जाति छूटते ही इन तर्कों का उत्तर देने की निम्न मुद्रा में खड़ी हो ही सकती है:-
स्त्री पुरुष के लिए कोई भोग्य वस्तु नहीं है.
कई पुरुष समर्थक कानून यौन सम्बन्धों के लिए उसे उकसाते हैं. स्त्री लेकिन पुरुष का नारी संस्करण भर नहीं है. उसकी अपनी अस्मिता, पहचान और अस्तित्व है.
संतानोत्पत्ति पारस्परिक फैसला है. उसे पुरुष तुरुप के इक्के के रूप में इस्तेमाल कर स्त्री की हारती बाजी पर नहीं फेंक सकता.
संतानोत्पत्ति सहवास का अनिवार्य प्रतिफलन नहीं है.
गर्भ धारण करने से बच्चे को जन्म देने तक शारीरिक, मानसिक और सामाजिक यंत्रणाओं से गुजरती स्त्री का अकेला अधिकार है कि बच्चे के सम्बन्ध में सभी परिस्थितियों को देखकर खुद तय करे.
राजनीतिक, सामाजिक महत्वाकांक्षाओं का स्त्री जाति के लिये आधुनिक आमंत्रण सदियों की गुलामी के बाद मिला है. सामाजिक जड़ता के कारण पति अपनी लाठी से पत्नी को हकालने के आदिम अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकते.
गर्भपात की प्रचलित कानूनी और उससे जुड़ी नैतिक मान्यताएं कुछ भी कहें. वे स्त्री के नैसर्गिक अधिकार को खंडित नहीं कर सकतीं.
पत्नी द्वारा पति को बच्चे का जन्म नहीं दिये जाने के फैसले को मानसिक क्रूरता की संज्ञा नहीं दी जा सकती. पत्नी खुद भी तो स्वेच्छा से बांझ कहलाने का सामाजिक अभिशाप उठाती रहती है.
सांस्कृतिक विरासतें, जिनमें कानूनी मान्यताएं भी शामिल हैं, स्त्री को बराबर का अधिकार देने की हामी भर रही हैं क्योंकि वे उसे अपेक्षाकृत कमजोर मानती रही हैं. इसलिये पुराने मूल्यों को नवीनीकृत करने के आधार पर ही स्त्री पुरुष समीकरण नये ढंग समझा सकता है.
संतान की उत्पत्ति एक यौनात्मक सम्बन्ध के कारण भले हो लेकिन रिश्तों में आत्मा की गरमाहट के बारे में कानून के पंडितों ने तो कभी सोचा ही नहीं.
एक ओर पत्नी बच्चे पैदा करने के बदले अपनी क्षमताओं का आकाश छू लेना चाहती रही है. दूसरी ओर पति उसे अपनी इच्छानुसार मां बनाकर उसके पर कतर देना चाहता रहा हो. एक ओर पत्नी महत्वाकांक्षाओं की आड़ में पति के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित करने का वायदा करके गर्भपात जैसे कू्र कृत्य के कारण उसके संभावित सुखी परिवार को तहस-नहस करती जा रही हो.
दूसरी ओर पति नये सपनों के छोटे से संसार को रचने और उसमें रहने से रोक दिया गया है. अजीब गुत्थी है. विचित्र द्वंद्व है. दोनों ओर तर्कों की दोहरी और भोथरी तलवारें हैं. तर्क केवल अस्त्र हैं. उनसे युद्धों में विजय हासिल होती है. युद्धों को नकारा नहीं जा सकता. उनकी निस्सारता को समझाया भी नहीं जा सकता.
आदिम सवाल है संविधान की नजर में पत्नी ‘व्यक्ति’ या केवल ‘श्रीमती पुरुष‘ है? फिल्म ’आंधी’ की नायिका एक महत्वाकांक्षी पत्नी के रूप में पति की जायज मांगों और प्यार को ठुकराकर छब्बे बनने के प्रयास में दुबे बनती नजर आई लेकिन वह फिर आगे बढ़ ही गई.
यह फिल्म कटाक्ष नहीं है. वह कहानी समानान्तर दिखने पर भी बहुत मोटे मोटे सवालों से ही उलझी रही. उपरोक्त अदालती मामला उससे कहीं अधिक संवेदनशील रहा है क्योंकि इस कहानी के नायक ने वर्षों तक पत्नी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश नहीं लगाया और न ही यह पत्नी का आरोप था. इसलिए यह मामला स्थूल नहीं सूक्ष्म हो गया है.
इंदिरा गांधी, गोल्डा मायर, बेनजीर भुट्टो, मारग्रेट थैचर और सिरीमाओ भंडारनायके ने मां होकर भी राजनीति और ममता के सर्वोच्च शिखर छुए.
वे संभवतः सुखी दाम्पत्य जीवन की साक्षी रही होंगी, लेकिन इन उदाहरणों के बावजूद स्त्री की अस्मिता, आजादी और महत्वाकांक्षा भावी इतिहास में इसलिये लिखे जाने को हैं क्योंकि इन महान हस्तियों ने भी पारिवारिक जीवन से समझौता ही किया था. उसके खिलाफ कोई जेहाद नहीं किया था.