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सूत न कपास, जुलाहों में लठालठी

कनक तिवारी
झीरम घाटी जांच आयोग के एकल जस्टिस प्रशांत मिश्रा द्वारा जांच रिपोर्ट राज्य सरकार को न देकर सीधे राज्यपाल को दे दी गई है. इससे दिलचस्प विवाद खड़ा हो गया है.

इसके संवैधानिक पक्षों को अपनी तरफ से विन्यस्त करते कई किरदार जनइजलास में आ गए हैं. वह सब पढ़ने से संविधान के प्रति उनकी लगन, उत्तेजना और जिज्ञासा को लेकर सोचने में अच्छा लगता है.

सबसे दमदार तर्क यह दे दिया गया यदि जांच आयोग के अध्यक्ष ने रिपोर्ट सीधे राज्यपाल को दे दी है, तब भी राज्यपाल को उसका अध्ययन करने तक की संवैधानिक आज़ादी नहीं है. अगर वे ऐसा करने के बाद कोई निर्णय लेती हैं तो वह विधानसभा के विशेषाधिकार का हनन होगा.

संविधान में राज्यपाल पद विशेष अधिकारों और कर्तव्यों के साथ उसकी गरिमा के साथ भी स्थापित किया गया है. राज्य का शासन संविधान के अनुसार राज्यपाल के नाम से चलता है, मंत्रिपरिषद या विधानसभा के नाम से नहीं.

मंत्रिपरिषद को राज्यपाल को सलाह और सहयोग करने का अधिकार है. सलाह राज्यपाल को अमूमन मानना चाहिए उन कुछ मामलों को छोड़कर जहां संविधान ने राज्यपाल को अलग से संवैधानिक अधिकार दिए हैं.

ऐसे कई प्रावधान हैं. विशेषकर अनुच्छेद 356 में तो राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति किसी राज्य सरकार को भंग कर सकते हैं. विधानसभा को भी भंग कर सकते हैं.

इसके अलावा संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची में आदिवासियों के अधिकारों का रक्षण करने में राज्यपाल को यहां तक अधिकार हैं कि केंद्र के राज्य के बनाए गए अधिनियमों तक को पूरी या आंशिक तौर पर अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं करने को लेकर भी आदेश कर सकते हैं या आंशिक रूप से उन्हें लागू कर सकते हैं या संशोधित भी कर सकते हैं.

संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-विचार, सावधानी और दूर दृष्टि से राज्यों के राज्यपालों और वहां की मंत्रिपरिषदों और विधानसभाओं के अधिकारों में संतुलन बनाने की कोशिश की है. नई-नई परिस्थितियां और चुनौतियां संविधान के प्रावधानों को लेकर उपस्थित होती रहेंगी. ऐसा भी उनका अनुमान रहा है.

ऐसी परिस्थितियों और चुनौतियों से समाधानपूर्वक निपटने की अधिकारिता इसीलिए संविधान न्यायालयों अर्थात हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को दी गई है. सुप्रीम कोर्ट में कई मुकदमे हुए हैं जहां राज्यपालों की शक्ति को परिस्थितियों के संदर्भ में परिभाषित किया गया है और उनके पद की गरिमा को संविधान की रक्षा करने की नीयत से बचाकर भी रखा गया है.

जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत झीरम घाटी के दुर्भाग्यजनक नक्सली हमले में कई कांग्रेस नेताओं की हत्या के कारण उत्पन्न परिस्थितियों में भाजपा सरकार ने 2013 में झीरम घाटी जांच आयोग नियुक्त किया. कई कारणों से इसकी कार्यवाही 8 साल तक चलती रही.

जस्टिस मिश्रा इसी बीच आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस हो कर चले गए और तब यह रिपोर्ट राज्यपाल को पेश की गई. कांग्रेस पक्ष और विपक्ष इस मामले में कूद पड़े हैं. राज्य सरकार और उसके मंत्री भी लगातार बयान दे रहे हैं. प्रकरण की परिस्थितियों को देखते हुए न्यायिक आयोग द्वारा कोई बयान दिए जाने की संभावना नहीं है.

वैसे भी न्यायिक आयोग का कार्यकाल रिपोर्ट देने से खत्म हो जाता है और वह न्यायिक आयोग नहीं रह जाता. राज्यपाल को भी राजनीतिक पार्टियों और सरकार के तमाम दिए गए बयानों से कोई सरोकार नहीं हो सकता क्योंकि उनके संवैधानिक पद की मर्यादा के वह अनुकूल नहीं हो सकता.

सवाल है क्या किसी भी परिस्थिति में कोई भी जांच आयोग इस बात के लिए बंधा हुआ है कि वह अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को ही देगा. उसमें कोई अपवाद नहीं हो सकता जब वह ऐसी रिपोर्ट राज्यपाल को देना चाहे?

सुप्रीम कोर्ट के कुछ मुकदमे हुए हैं. एक 1977 में और एक 2004 में जब संवैधानिक पीठ ने तय किया कि जांच आयोग की रिपोर्ट सीधे राज्यपाल को ही देना मुनासिब हुआ है और राज्यपाल उस पर आदेश भी कर सकते हैं.

हालांकि उन प्रकरणों में राज्य के मुख्यमंत्री या अन्य मंत्रियों के खिलाफ आयोग द्वारा जांच की गई और तब उस रिपोर्ट को राज्यपाल को देना सुप्रीम कोर्ट ने ठीक कहा.

झीरम घाटी का प्रकरण उससे बिल्कुल अलग है. यहां नक्सली हमले में कांग्रेस नेताओं की हत्या की गई और उसकी जांच हाईकोर्ट के जज द्वारा एक आयोग के जरिए कराई गई और वह रिपोर्ट दी गई.

प्रकरण के तथ्यों और परिस्थितियों को अलग करके सुप्रीम कोर्ट ने कुछ कानूनी और न्यायिक अवधारणा स्थापित की हैं और उसमें सबसे मुख्य और महत्वपूर्ण अवधारणा है कि यदि मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य के विरुद्ध कोई टिप्पणी है या जांच है तो बाकी मंत्रिपरिषद के सदस्य क्या किसी तरह की पक्षपात की भावना या तरफदारी से बच पाएंगे? यह एक मानवीय सवाल है.

सुप्रीम कोर्ट को लगा कि ऐसी तरफदारी या पक्षपात की भावना से मंत्रिपरिषद के साथी सदस्यों द्वारा बचना संभव नहीं है या कम से कम उसकी संभावना नहीं है. तब वह जांच रिपोर्ट राज्यपाल को दिए जाने का औचित्य बनता है.

झीरम
झीरम

बहुत सावधानी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने संतुलित कथन भी किया है कि राज्य मंत्रिपरिषद का यह पहला अधिकार है. शायद एकल अधिकार भी कि जांच आयोग की रिपोर्ट उसके सामने आए और वह उस पर विचार करे.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना है कि हर वक्त इस बात की संभावना नहीं होती कि राज्य मंत्रिपरिषद किसी रिपोर्ट पर विचार करते समय अपने किसी साथी मंत्री को लेकर उनके पक्ष में तरफदारी ही करने लगे. लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से तरफदारी या पक्षपात की भावना नहीं आएगी.

इस संबंध में भी कुछ निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने सद्भावनापूर्वक कहा है कि राज्य मंत्रिपरिषद एक संवैधानिक निकाय है और यह सामान्य तौर पर कुबूल होना चाहिए कि वह निष्ठापूर्वक, ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ विधि सम्मत आचरण ही करेगा.

लेकिन इसके बावजूद बहुत कम परिस्थितियों में ऐसे अपवाद भी हो सकते हैं जहां लगे कि राज्य मंत्रिपरिषद का फैसला विवेकहीन हो सकता है और उसमें पक्षपात की बू आ सकती है क्योंकि कहीं न कहीं किसी संवैधानिक अधिकारी अर्थात मंत्री के विरुद्ध कुछ कहा गया. यहां तो सिर्फ परिकल्पना है.

अभी कहां तय हुआ है कि झीरम घाटी जांच आयोग के प्रकरण में जांच आयोग ने किसी मंत्री के खिलाफ कोई विपरीत टिप्पणी की हो या जांच कराने की मंशा जाहिर की हो. अभी तो सब कुछ अंदाज से सभी तरफ से सभी पक्षों की तरफ से कहा जा रहा है.

लेकिन हर हालत में मंत्रिपरिषद के अधिकार को कुंठित कर देना उसे रिपोर्ट के पढ़ने से वंचित कर देना कतई संविधानसम्मत नहीं है. उसके साथ साथ राज्यपाल को उनको मिले हुए किसी प्रतिवेदन पत्र या रिपोर्ट को पढ़ने तक का संवैधानिक अधिकार नहीं है. ऐसा कहना भी तो एक अतिवादी दृष्टिकोण है.

हर हालत में झीरम घाटी जांच आयोग की रिपोर्ट राज्य मंत्रिपरिषद और संभवत: राज्य विधानसभा के सामने प्रस्तुत की जाएगी. इस संबंध में कोई संवैधानिक आशंका नहीं हो सकती है. लेकिन उसे राज्यपाल को प्रस्तुत कर दिए जाने से कई तरह की कल्पनाएं गूंथी जा रही हैं. उनका कोई संवैधानिक आधार भी तो नहीं बनता है.

दुर्भाग्यजनक झीरम घाटी हत्याकांड की जांच को पूरा करने में 8 साल का समय लग गया. पहले 5 साल तो भाजपा सरकार ने और बाद में करीब 3 साल कांग्रेस सरकार ने लगातार झीरम घाटी आयोग के कार्यकाल को बढ़ाया. तब भी तो इस बात को सोचा जा सकता था कि मामला बहुत ढीला हो रहा है.

जांच आयोग की धारा सात में आयोग के कार्यकाल को समाप्त कर देने का भी तो राज्य सरकार को अधिकार रहता है और विधानसभा को भी. वह भी तो नहीं किया गया. तब तो सभी पक्षों द्वारा प्रतिभागिता कर दी गई.

अब राज्यपाल द्वारा यदि यह तय किया जाता है कि उन्हें जांच आयोग की रिपोर्ट को पढ़ने का अधिकार है और उस पर कुछ कार्यवाही करने का .तब एक नया विवाद खड़ा हो सकता है.

वैसे इसे अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर के एक नाटक के शीर्षक से भी समझा जा सकता है- Much ado about nothing.

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