Columnistताज़ा खबर

खेती में बड़ी कंपनियों की घुसपैठ का मतलब

देविंदर शर्मा
बीबीसी पर हाल ही में प्रसारित साक्षात्कार में प्रिंस चार्ल्स ने कहा- ‘जिन तरीकों से हम भोजन पैदा कर रहे हैं, उसका सीधा प्रभाव पृथ्वी की हमें बनाए रखने की क्षमता पर है, आगे इसका सीधा असर मनुष्य के स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर होता है. सस्ता भोजन पैदा करने की दुहाई, जो बेलगाम आर्थिक तरक्की पाने को लगी अंधी दौड़ का मूल आधार है, दरअसल आधुनिक औद्योगिकी-कृत खेती की ‘गुप्त कीमत’ को मूर्त रूप देने पर आधारित है.’

उन्होंने आगे कहा- ‘बेकार एवं सस्ता भोजन पैदा करने पर ध्यान केंद्रित करने से देश के छोटे खेतों के वजूद को खतरा पैदा हो गया है, अगर छोटे खेतिहर किसान गायब हो गए तो यह ब्रिटिश ग्रामीण अंचल का दिल चीरकर निकालने जैसा होगा.’

यह चेतावनी ऐसे समय में आई है, जब स्टाटिस्टा नामक वैश्विक वाणिज्यिक डाटा मंच ने पहले ही अनुमानों में कह रखा है कि ब्रिटेन में कृषि से जुड़े कामगार और किसानों की तेजी से घटती महज 1,07,700 रह जाएगी.

अनेकानेक तरह से, उक्त चेतावनियों की प्रतिध्वनि मिसाल बन गए उस किसान आंदोलन में सुनाई देती है, जो इन दिनों भारत में चल रहा है, जिसको चलाने वाले आंदोलनकारियों को आंशका है कि एक बार केंद्रीय कृषि कानून लागू होने के बाद बड़ी कृषि-उद्योग कंपनियों की घुसपैठ से, उनकी आजीविका हड़पे जाने की पूरी आशंका है.

भारत में लगभग 86 फीसदी किसानों के पास औसतन 2 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है, इससे वे लघु और हाशिए वाली श्रेणी में आते हैं. 1960 के दशक के मध्य में शुरू हुई हरित क्रांति का मकसद भूमि की प्रति इकाई पैदावार पर जोर देना था, लेकिन इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. लंबे अर्से से चली आ रही पिछली गलतियों को सुधारने के बजाय उनमें अधिकांश को बड़ी कृषि-उद्योग कंपनियों की घुसपैठ को आसान करने को थोपा जा रहा है.

यहां मुझे वर्ष 2017 में विश्व जैविक कृषि सम्मेलन में दिया अपना संबोधन याद आ रहा था, जिसका शीर्षक था ‘दुनिया को विषाक्त खेतों से खुद को मुक्त करना ही होगा.’ मैंने 6 सूत्रीय कार्य सूची में काफी तफ्सील से बताया है कि कैसे स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्योन्मुख-आधारित गतिविधियां चलाकर औद्योगिकी-कृत कृषि से पृथ्वी पर बरपे पर्यावरणीय विध्वंस को सही किया जा सकता है.

खाद्यान्न पैदावार बढ़ाने पर जोर देने की प्रवृति ने न सिर्फ प्राकृतिक स्रोतों को ध्वस्त कर हमारे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है-इसमें मिट्टी-पानी का ह्रास और मौसम में आए तीव्र बदलाव शामिल हैं-वरन इसके नतीजे में ऐसा गैर-टिकाऊ कृषि तंत्र बन गया है, जिसको पिछले कुछ सालों से दक्षता और प्रतिस्पर्धा बनाने की आड़ में बढ़ावा दिया जा रहा है, इसने बड़ी संख्या में इनसानी जिंदगियां लील ली हैं.

सस्ता अन्न पैदा करने की ‘गुप्त कीमत’ के बारे में बार-बार बात होती आई है, अनेक जाने-माने विशेषज्ञ और यहां तक कि कुछ अंतर्राष्ट्रीय समितियां, जैसे कि इंटरनेशनल एसेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर नॉलेज, साइंस एंड टेक्नोलॉजी फॉर डेवलेपमेंट (वर्ष 2009) और हाल ही में पार्थ दासगुप्त द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट ‘द इकॉनोमिक्स ऑफ बायोडाइवर्सिटी 2021’ चेताती है कि आने वाले समय में हालात पहले जैसे नहीं रहेंगे, लेकिन वैश्विक नेतृत्व ने इन चिंताओं को सरासर नज़रअंदाज़ किया है.

इसलिए यह देखना रोचक होगा कि आगामी सितंबर माह में होने जा रही फूड सिस्टम समिट में अन्न की पैदावार, प्रसंस्करण, ढुलाई और उपभोग के तंत्र में बड़े परिवर्तन लाने को संयुक्त राष्ट्र कौन-सा प्रभावशाली मार्गदर्शन पेश करता है.

लेकिन जैसा कि एक मर्तबा अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि हम समस्या को ठीक उसी सोच के साथ हल नहीं कर सकते जो हमने इसको पैदा करते वक्त बरती थी. यह वही बात है, जिसकी ओर 300 से ज्यादा सिविल सोसायटी संगठन, लघु-स्तरीय उत्पादक, जनजातीय समाज और निजी साइंसदान-विशेषज्ञ ध्यान दिलाते आए हैं और यह वही है, जिसको यूएनएफएसएस ध्यान में रखे.

तथाकथित पीपुल्स समिट का बहिष्कार करने का अभियान शुरू करते वक्त इन्होंने यूएनएफएसएस पर कॉर्पोरेट जमावड़े, गैर-टिकाऊ वैश्विकृत मूल्य संवर्धन शृंखला और सार्वजनिक संस्थानों पर कृषि-व्यापारियों के प्रभाव को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है.

इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए, वर्ष 2009 में भी विश्व आर्थिक मंच ने ‘कृषि का नया नजरिया’ नामक विचार प्रस्तुत किया था, जिसे 17 बहुराष्ट्रीय कृषि-व्यापार कंपनियों के जरिए क्रियान्वित किया जाना था.

वह समस्या जो दरअसल कई सालों से मुक्त मंडी व्यवस्था बनाने में मददगार कदमों की वजह से बनी है, उसका निवारण कॉर्पोरेट नीत मंडी आधारित प्रणाली से करना वह हल नहीं है, जिसकी दरकार आज नाजुक मोड़ पर खड़े विश्व को है. यह पुनर्विचार कि कृषि वक्त की जरूरत है और विश्व की आधी भूमि खेती के लिए उपयोग होती है, सघन कृषि तंत्र को बढ़ावा देने के परिणामस्वरूप, यह क्रिया ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में दूसरी सबसे बड़ी दोषी है.

इतना ही नहीं, रॉकफेलर फांउडेशन की सामयिक रिपोर्ट – ट्रू कॉस्ट ऑफ फूड : मेज़रिंग व्हाट मैटर टू ट्रांसफॉर्म यूएस फूड सिस्टम-यह दस्तावेज न केवल सस्ता भोजन पैदा करने की एवज में अदा होने वाली असल कीमत को परिमाणित करता है, बल्कि ‘गुप्त लागत’ को मूल्यवान बताने से काफी परे जाकर जो कुछ बताता है, वह शायद हमारे जममग करते आर्थिक विचारों को झकझोर कर रख दे.

आर्थिक सुधारों को व्यवहार्य बनाने हेतु सस्ता भोजन पैदा करना हमेशा जरूरी समझा गया है. अब तक यह इसलिए चलता आया है क्योंकि अर्थशास्त्री और नीति-निर्धारक इसकी असल कीमत नापने को तैयार नहीं हैं. लेकिन सस्ता खाद्यान्न पैदा करने के फेर में जो बड़े पैमाने के पर्यावरणीय बदलाव, जिन्होंने मनुष्य के स्वास्थ्य एवं आजीविका पर बहुत गहरा असर डाला है, वे इस कदर विकराल हैं कि झकझोर कर रख देने वाले इन आंकड़ों को अब और छिपाना किसी के वश में नहीं रहा.

अमेरिकी उपभोक्ता हर साल तकरीबन 1.1 ट्रिलियन डॉलर भोज्य पदार्थों पर खर्च करते हैं. रिपोर्ट बताती है कि खाने की इस कीमत में भोजन से उत्पन्न बीमारियों के इलाज, पर्यावरण को पहुंचा नुकसान, मिट्टी-पानी और जैव विविधता को क्षति, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन से मौसम में बदलाव, कृषि में पैदा हुए संत्रास और बहुत से अन्य नुकसानों का मूल्य शामिल नहीं है.

यदि उक्त सभी क्षतियों की कीमत जोड़ी जाए, तब कुल मिलाकर अमेरिकी खाद्य तंत्र का असल मूल्य कम से कम तीन गुणा बढ़कर यानी 3.2 ट्रिलियन डॉलर करोड़ प्रति वर्ष बनेगा.

वैश्विक स्तर पर भी, खाद्यान्न पैदा करने की वास्तविक कीमत उस मूल्य की तीन गुणा है जो उपभोक्ता अदा करता है. भारत में, जहां कृषि उत्पादन लगभग 29.19 करोड़ का होता है, कृषि को बतौर एक व्यवसाय आर्थिक सीढ़ी के निचले पायदानों पर रखा जाता है, अध्ययन करवा कर अन्न पैदा करने की वास्तविक कीमत को परिमाणित करने की जरूरत है.

सस्ता भोजन मुहैया करवाने की नीति और कृषक को उत्पाद का सही मूल्य नहीं देने से कृषि संत्रास में ही रहेगी. वह ‘आर्थिक और वैज्ञानिक’ नीतियां जिनकी वजह से कृषि संकट बना है, उससे वास्तविकता-आधारित हल देने की उम्मीद नहीं की जा सकती.

error: Content is protected !!