शेख गुलाब, शरीफ मोहम्मद और गेंड़ी नृत्य
दिनेश चौधरी | फेसबुक
मुल्क के नक्शे में कालपी नाम के गाँव को ढूँढने की कोशिश करें तो यह मुश्किल से मिलेगा. मुमकिन है कि आपको न भी मिले. तब तो यह और भी छोटा रहा होगा. बहुत छोटा. अविभाजित मध्यप्रदेश के ‘पिछड़े हुए’ जिले मण्डला में. दिलीप कुमार को न जाने क्या सूझी कि वे एक दिन अचानक यहाँ आ धमके.
मुल्क को आज़ादी मिले थोड़े ही दिन बीते थे. दिलीप कुमार चेन्नई में किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे. वहाँ से नागपुर आए और नागपुर से छोटी लाइन के सबसे बड़े जंक्शन नैनपुर. नैनपुर पहुँचते न पहुँचते हल्ला मच गया कि फ़िल्म एक्टर दिलीप कुमार इलाके में देखे गए हैं.
कलेक्टर मण्डला को कोई इत्तिला नहीं थी. हालांकि काफी पहले उन्होंने कह रखा था कि किसी दिन आएंगे. उन्होंने तत्काल जिले के सारे डाक बंगलों को खाली रखने का निर्देश जारी किया कि पता नहीं किसकी जरूरत पड़ जाए. रास्ते में लोग दिलीप कुमार को लकदक कारों में तलाशते रहे, जबकि वे एक खटारा गाड़ी में बैठकर आए और टिकरिया के डाक बंगले में टिक गए.
ऊँचाई पर बना यह डाक बंगला बेहद खूबसूरत है. अभी यहाँ खड़े हो जाएं तो बरगी बाँध को देखा जा सकता है. कुछ देर में उनके ग्राम कालपी पहुँचने की खबर आई. गाँव में हुजूम इकट्ठा हो गया. दिलीप कुमार को जो भी काम रहा हो, पहले इस भीड़ से निबटना जरूरी था. वे गाँव के हाई स्कूल के मंच से भीड़ से मुखातिब हुए. कुछ कहा. थोड़े फिल्मी संवाद भी. फिर गाँव वालों को एक प्यारा-सा झूठ बोला कि उनका काम खत्म हो गया है और वे लौट रहे हैं, मुमकिन हुआ तो कल दोबारा आयेंगे.
वे लौटे नहीं बल्कि भीड़ छँटने के एक घण्टे बाद दोबारा प्रकट हो गए. इस बार इत्मीनान से बैठकर नृत्य-संगीत का कार्यक्रम देखा. खुद उठकर आधे घण्टे तक भांगड़ा करते रहे. फिर देर शाम से लेकर आधी रात तक उन्होंने धोती-कुर्ता पहनने वाले एक ठेठ गँवई शख्स के साथ बड़े ही इत्मीनान से लम्बी गुफ़्तगू की. ये शेख गुलाब थे.
लोक-कलाओं के हल्के में शेख गुलाब का बड़ा नाम रहा. उनका जन्म अविभाजित मण्डला जिले के डिंडौरी में हुआ था. अब मण्डला से अलग होकर डिंडौरी भी स्वतंत्र जिला बन गया है. तब यह गाँव बहुत छोटा था. नर्मदा के किनारे. नर्मदा के पानी से होकर इस अंचल की कला और संस्कृति जैसे शेख गुलाब की रगों में दौड़ने-फिरने लगी थी. इलाकाई नाच-गाने का उन्हें जुनून-सा था. सारा समय इसी को तलाशने, देखने, समझने, सुनने-गुनने में बीतता.
बिल्कुल शुरुआती दौर में ही उन्होंने इस बात को पकड़ लिया था कि आने वाला समय बाज़ार के साथ मिलकर पारंपरिक कलाओं की इस अनमोल धरोहर पर बड़ा हमला करने वाला है. इसीलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान दो बिंदुओं की ओर केंद्रित किया; एक तो लोक कलाओं की परंपरा, स्वरूप, शैली आदि का दस्तावेजीकरण और दूसरे नई पीढ़ी के बीच जाकर इन कलाओं को प्रायोगिक रूप में आगे बढ़ाना.
इस काम के लिए उन्हें डिंडौरी का परिवेश जरा संकुचित लग रहा था, पर रोजी-रोटी का भी सवाल था. वे तालीम वाले महकमे से जुड़ चुके थे. आला अफसरान की इनायत जरूरी थी. उन्होंने जिले के स्कूल इंस्पेक्टर को खत लिखा. वे कालपी जाना चाहते थे. कालपी में हेड-मास्टर की पोस्ट थी, वे एक दर्जा नीचे थे.
उन्होंने कहा कि वे अपने-आप को साबित कर दिखाएंगे और न कर पाए तो जीवन-भर प्रमोशन नहीं लेंगे. तब के लोगों के पास रीढ़ की हड्डी नामक दुर्लभ चीज भी हुआ करती थी और वे नियमों की लकीर पीटते बैठे नहीं रहते थे. स्कूल इंस्पेक्टर ने हेड मास्टर साहब को किसी ट्रेनिंग में भेज दिया और शेख गुलाब को कालपी में तैनात कर दिया.
यहाँ आकर वे अपने काम में इस तरह जुटे की देश भर में उनका नाम फैलने लगा और दिलीप कुमार जैसी शख्सियत को भी यहाँ आना पड़ा. वे आदिवासी लोक-जीवन पर आधारित एक फ़िल्म “काला आदमी” बनाना चाहते थे. इस फ़िल्म के नृत्य-संगीत को लेकर शेख गुलाब के साथ उन्होंने लम्बी चर्चा की. आगे यह फ़िल्म बन तो नहीं सकी पर इस मुलाकात की चर्चा के साथ शेख गुलाब का नाम वे भी जानने लगे थे, जो अब तक उनके नाम और काम से वाकिफ़ न थे.
कालपी में काम करते हुए शेख गुलाब की भेंट एक कमउम्र बालक से हुई. बालक बेहद काबिल शिष्य था. काबिल गुरु की तरह काबिल शिष्य भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं.
छतीसगढ़ी की एक कहानी है. एक गुरु अपने शिष्य बनाने के लिए कड़ी परीक्षा लेते थे. एक जिज्ञासु बालक सीखने की लालसा में उनके पास पहुँचा. गुरुजी ने नियम,शर्तें और अनुशासन की जानकारी दी. बालक हड़बड़ा गया. उसे लगा कि शिष्य बनना मुश्किल काम है. उसने हाथ जोड़ लिए और कहा, “मोला गुरु बनाई लेते महाराज!”
बहरहाल, एक बेहद काबिल शागिर्द के रूप में शेख गुलाब को जो बालक मिला, उसका नाम शरीफ मोहम्मद था. ये वही शरीफ मोहम्मद हैं, जिन्होंने आगे चलकर इंदिरा कला और संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में लोक कला संकाय के पहले रीडर का पद सम्भाला, पाठ्यक्रम तैयार किया, कोर्स मटेरियल जुटाया और संकाय की अकादमिक व्यवस्थाओं की बुनियाद रखी.
उनकी नियुक्ति हबीब तनवीर की सिफारिश पर बहुत से नियमों को शिथिल करते हुए हुई थी. उसी तरह, जिस तरह गुरु शेख गुलाब को शासन ने बहुत सारे नियमों को शिथिल करते हुए राजपत्रित अधिकारी बनाया था. उस्ताद- शागिर्द में बहुत सारी समानताएं रहीं और आगे चलकर इस जोड़ी ने खूब धूम मचाई.
इंदिरा कला और संगीत विश्वविद्यालय के लिए शरीफ मोहम्मद के नाम की सिफारिश हबीब तनवीर ने यूँ ही नहीं की थी. शरीफ उनके साथ “चरणदास चोर” और “बहादुर कलारिन” में काम कर चुके थे और हबीब साहब उनकी क्षमताओं से वाकिफ थे. कुछ नाम और भी थे पर शरीफ साहब का नाम सबसे ऊपर था.
यूनिवर्सिटी से बार-बार फोन आ रहे थे. शरीफ नहीं गए तो हबीब साहब तक भी शिकायत पहुँची. शरीफ दुविधा में थे. बीस सालों से सरकारी नौकरी में थे. उन्हें लग रहा था कि उधर पक्की नौकरी नहीं मिली तो दोनों तरफ से जाएंगे. फिर एक कार्यक्रम के सिलसिले में भिलाई जाना हुआ. हबीब साहब भी आए थे, पर दोनों को एक-दूसरे की खबर नहीं थी. संयोग से मुलाकात मंच पर ही हुई.
हबीब साहब बिगड़ गए. कहने लगे, “तुम अपने आप को बहुत बड़ा कलाकार समझने लगे हो! चुपचाप जाकर ज्वाइन करो.” शरीफ साहब ने कहा कि बच्चों को कालपी छोड़ आऊँ, फिर जाता हूँ.”
हबीब साहब ने कहा कि “जरूरत नहीं है. मैं अपने आदमी भेज दूँगा. तुम यहीं से निकल लो.” शरीफ साहब का मन नहीं माना. बच्चों को कालपी छोड़ने आए और फिर वापस गए.
लोक कला के नाम पर यूनिवर्सिटी में शून्य के अलावा और कुछ भी न था. उन्होंने यहीं से शुरुआत की. राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार किए. लोक कला के विशेषज्ञों को बुलाया और उनके व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया. कोर्स मटेरियल तैयार किया. किताबें बनीं. विधिवत तालीम शुरू हुई. उनके कुशल निर्देशन में कई शिष्यों ने डॉक्टरेट हासिल कर ली, ये बात और थी कि खुद उनकी नियुक्ति नियमो को शिथिल करते हुए हुई थी. लोक कलाओं पर विभिन्न प्रकाशनों से शरीफ साहब की कई महत्वपूर्ण किताबें छपी हैं.
शरीफ बहुत कम उम्र से ही शेख गुलाब की शागिर्दी में आ गए थे. तब उनकी उम्र कितनी रही होगी, इसका अंदाजा एक दिलचस्प घटना से लगाया जा सकता है. घटना यह भी बताती है कि बच्चों की निगाह में पहले आदमी से लेकर आखिरी आदमी तक, सब एक से होते हैं. उनका निश्छल मन किसी से भेद नहीं कर पाता.
चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया हुआ था. डेलिगेशन के सम्मान में होने वाले आयोजन के लिए कालपी से शेख गुलाब को याद किया गया. गुलाब साहब के दल को गेंड़ी नृत्य प्रस्तुत करना था. टीम में बालक शरीफ भी थे.
तीन मूर्ति भवन के प्रवेश द्वार से गुजरते हुए बालक की निगाह छोटी-छोटी साइकिल चलाते दो बच्चों पर पड़ी. सायकिल चलाना बालकों का मौलिक अधिकार है और बालक शरीफ को लगा कि इस अधिकार में समानता होनी चाहिए. उन्होंने अपने दल के एक बालसखा कमल सिंह मरकाम को अधिकारों की समानता को लेकर सचेत किया और दोनों बालकों ने सायकिल चला रहे बच्चों से उनकी सवारी छीन ली.
दोनों बालक हतप्रभ होकर इन प्रतिभावान बालकों को अपनी सवारी गाँठते देखते रहे. सुरक्षकर्मियों की नज़र पड़ी तो वे दौड़ कर आए और सायकिल सवारों को वापस नर्तक-दल में भेजा. इन्हें बाद में पता चला कि इन्होंने जिन बच्चों की साइकिल छीन ली थी उनके नाम राजीव और संजय गाँधी हैं.
पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक, प्रधानमंत्री निवास में शेख गुलाब और शरीफ मोहम्मद का इस तरह से आना-जाना रहा कि गोया दरबान भी उन्हें पहचानने लगे थे. राजीव जीवित होते तो बाल्यकाल में सायकिल छीन लेने वाले इस वीर बालक को पद्म सम्मान से जरूर नवाज़ते. गुरु शेख गुलाब को अलबत्ता पद्मश्री सम्मान मिल गया था.
सम्मान लेने के लिए उन्होंने लोगों के दबाव में एक अदद कुर्ता-सलवार सिलवाया था. वे सादगी पसंद थे. जीवन भर धोती-कुर्ता पहनते रहे. उन्हें लगा कि एक सम्मान के लिए इस तरह से भेस बदलना बहुरूपियों का काम है. आखिरी वक्त में वे मौलिक रूप में आ गए. सलवार-कुर्ता धरा रह गया.
बाज लोग तो सम्मान के लिए क्या-क्या स्वांग धर लेते हैं. इन काग के भाग में सम्मान के बदले फ़क़त कुछ मोर पंख होते हैं, जिन्हें इन्हें अपनी दुम में खोंसना होता है.
शेख गुलाब को सबसे ज्यादा मकबूलियत गेंड़ी नाच की वजह से मिली. गेंड़ी नाच की इससे पहले कोई सुदीर्घ परम्परा नहीं रही. इसकी शुरुआत संयोगवश हुई और इसी नृत्य ने शेख गुलाब को खूब नाम दिया. बारिश वाले दिनों में जब खेतों में कीचड़ होता है तब किसान गेंड़ी का इस्तेमाल यहाँ आने-जाने में करते हैं. इसीलिए गेंड़ी बाँधने की शुरुआत आषाढ़ की एक पूर्णिमा में होती है, जो बकौल शरीफ साहब ‘बकबन्धी पूर्णिमा’ कहलाती है.
फिर इन गेड़ियों को भादो की अमावस्या में पोला पर्व के दिन नृत्योत्सव के बाद नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है. अंग्रेजी में गेंड़ी को ‘स्टिल्ट’ कहा जाता है. पानियों वाले इलाके में इनके सहारे झोपड़ीनुमा घर भी खड़े किए जाते हैं. अमूमन यह बाँस से बनाई जाती है और पैर रखने के लिए इन्हीं से बनी “खप्पचियों” को रस्सी के सहारे बांध लिया जाता है. गेंड़ी की ऊँचाई कितनी होगी यह धारण करने वाले की क्षमता पर निर्भर करता है.
कुछ को तो गेंड़ी पर खड़े होने के लिए पेड़ों पर या घर की छत पर चढ़ना होता है. कुछ गैर हुनरमंद लोग, जो ज्यादातर सियासी हलकों से ताल्लुक रखते हैं, अपना कद बढाने के लिए कई किस्म की कलाबाजियां दिखाते हैं और आखिर में जमीन में लोटते नज़र आते हैं. गेड़ियों से अलबत्ता कद जरा बढ़ जाता है पर यह हुनरमंद लोगों का काम होता है.
जैसा कि मैंने अर्ज किया कि गेंड़ी नाच की कोई स्थापित परम्परा नहीं रही. वर्ष 1952 में शेख गुलाब मिडिल स्कूल के अपने छात्रों को लोक-नृत्य की तालीम दे रहे थे. गाँव के कुछ लड़के गेड़ियों में चढ़कर नाच का देखने आए थे. जब अभ्यास खत्म हुआ गेंड़ी में सवार दर्शकों में से एक बालक हू ब हू नाच की नकल करने लगा. शेख गुलाब के जेहन में उसी तरह बिजली कौंध गई जैसे बारिश में पतंग उड़ाते हुए बेंजामिन फ्रेंकलिन के जेहन में चमकी होगी.
उन्हें लगा कि लोक-नृत्य गेड़ियों पर भी किए जा सकते हैं. उन्होंने बालकों के लिए कतिपय छोटी-छोटी गेड़ियाँ बनवाई और इन पर छोटे-छोटे बालकों ने जरा बड़ा काम कर दिखाया.
गेंड़ी वाला करतब नृत्य तक सीमित नहीं रहा. गेंड़ी पर सवार होकर फुटबॉल भी खेला जा सकता है. जाने कैसे यह खबर ऑल इंडिया फुटबॉल एसोसिएशन तक पहुँच गई. उन्होंने कालपी की गेंड़ी फुटबॉल टीम को कोलकाता (तब कलकत्ता) आमंत्रित किया. फुटबॉल वहाँ के लोगों ने खूब देखा था, पर गेंड़ी फुटबॉल एक अजूबा था. पूरे शहर में गेंड़ी फुटबॉल खेलने वाले बालकों के ‘कट आउट’ लग गए थे.
बालक अपने ही होर्डिंग्स को हैरानी से देख रहे थे और यकीन नहीं कर पा रहे थे कि ये वही हैं. एमसीसी की क्रिक्रेट टीम भी वहीं थी. टीम के कप्तान हावर्ड जाफरी अपने दल-बल के साथ मैदान में मौजूद थे. मण्डला वाले इलाके में तब जंगल और भी घने हुआ करते थे, इसलिए टीम के नामकरण में थोड़ा ‘जंगलीपन’ जरूरी था. एक टीम का नाम ‘शेर दल’ था और दूसरा ‘भैंसा दल’ था.
जंगली भैंस और शेर के बीच भिड़ंत बहुत जबरदस्त होती है. यहाँ भी जबरदस्त टक्कर हुई और दोनों दलों ने मिलकर लोगों का दिल जीत लिया. जैसा शोर गोल होने पर मचता है, इस मुकाबले में वैसा शोर एक-एक ‘किक’ पर मचता था, जो गेड़ियों से लगाई जाती थी. अगले दिन के अखबार मैच के विवरण से भरे पड़े थे. उन दिनों आज वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया होता तो तीन दिनों तक ‘ब्रेकिंग’ न्यूज का रायता फैलाता.
अगले ही बरस, यानी वर्ष 1954 में दिल्ली की गणतंत्र दिवस की परेड में पहली बार लोक-नृत्यों को शामिल किया गया. मध्य-प्रदेश की टीम तैयार करने की जिम्मेदारी प्रख्यात कथक नृत्यांगना सितारा देवी को सौंपी गई. सितारी देवी के बारे में ज्यादा जानना हो तो उन पर लिखा मंटो का आलेख पढ़ना चाहिए.
सितारा शास्त्रीय कलाकार थीं और उनके जिम्मे जो टीम दी गई वो लोक-कलाकार थे. एक विधा कड़े अनुशासन और प्रशिक्षण वाली और इसके बरक्स दूसरी विधा ऐसी जो सहज जीवन शैली से आती है और थोड़ा खिलंदड़ापन लिए हुए होती है. दोनों के बीच पटरी बैठ नहीं पा रही थी. सितारा देवी भी असहज महसूस कर रही थीं. पंडित रविशंकर शुक्ल ने एक अभ्यास देखा तो वे पूरी तरह से उखड़ गए. उन्होंने शेख गुलाब का नाम सुन रखा था. आखिरकार लोक-कलाकारों की यह मंडली शेख गुलाब के हवाले कर दी गई. वे इसी काम के लिए बने थे.
कलाकारों के इस दल ने दिल्ली की परेड में जमकर नाच दिखाया. दर्शकों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के अलावा फिल्मकार व्ही शांताराम भी मौजूद थे. वे “झनक झनक पायल बाजे” की तैयारी में लगे हुए थे. व्ही शांताराम ने कलाकारों के कैम्प में आकर शेख गुलाब से भेंट की और कहा कि वे एक बार फिर से इस नृत्य की रिहर्सल देखने की ख्वाहिश रखते हैं. रिहर्सल हुई. व्ही शांताराम की पूरी टीम रिहर्सल के दौरान नृत्य देखकर झूमती रही.
फिर अगले दिन पूरी वेशभूषा के साथ शूटिंग की बात हुई. गाँव के कुछ बालक जानते भी न थे कि शूटिंग क्या बला होती है. पर वे जमकर नाचे. व्ही शांताराम ने नृत्य के इस टुकड़े को अपनी फिल्म में जगह दी. इसमें शरीफ मोहम्मद भी हैं. शेख गुलाब का एक लम्बा इन्टरव्यू भी रिकार्ड किया गया, जिसके फुटेज अब पता नहीं कहाँ हैं.
लोक-कलाओं पर शरीफ साहब की किताबें ढूँढ-ढूँढकर पढ़ी जानीं चाहिए. अद्भुत और जीवंत वर्णन हैं. ‘मध्यप्रदेश के लोक नृत्य” में ‘राई’ का एक टुकड़ा पेशे-खिदमत है- “बेड़नी राई नृत्य की नायिका होती है… नृत्य का आरंभ वाद्यों की मिली-जुली तान और धुन से होता है. इसे ‘गम भरना’ कहते हैं. कुछ देर तक वाद्यों की सुरीली लय-ताल गूंजती रहती है, जिससे समां बंधता है. एक मादक झटके के साथ लय टूटती है और इसी क्षण ढोलक पर आमंत्रण स्वरूप थाप पड़ती है. तब पंचम स्वर में बेड़नी के मुख से आलापयुक्त गीत की तान फूटती है. गीत के बोल समाप्त होते ही बेड़नी के पैर थिरकते हैं और ढोलकिया का ठेका लगता है. टिमकी, मृदंग, झांझ, मंजीरा, रमतूला सभी बज उठते हैं. मंद-मंद नृत्य की छटा बिखरने लगती है. गति शनैः शनैः बढ़ती है. वेग, अंग-मुद्राएँ, भाव-भंगिमाएं और लय ताल का विन्यास अपनी चरम सीमा को प्राप्त करता है….”
इन दिनों अलग-अलग सूबों की राजधानियों में या दीगर जगहों पर जब सरकारी जश्न होते हैं तो मुम्बई के ‘कलाकारों’ को बड़ी तवज्जो मिलती है, भले ही वे तीसरे दर्जे के क्यों न हों. इलाकाई कलाकारों की उपेक्षा की जाती है. कलाकार सिर्फ मुम्बई वाले नहीं होते. वे गाँव-कस्बों में भी पाए जाते हैं. इसीलिए कभी-कभी दिलीप कुमारों को मण्डला आना पड़ता है!