KBC-5 के विजेता सुशील कुमार क्या कर रहे हैं?
सुशील कुमार | फेसबुक
2015-2016 मेरे जीवन का सबसे चुनौती पूर्ण समय था. कुछ बुझाइए नही रहा था क्या करें.
लोकल सेलेब्रिटी होने के कारण महीने में दस से पंद्रह दिन बिहार में कहीं न कहीं कार्यक्रम लगा ही रहता था. इसलिए पढ़ाई लिखाई धीरे धीरे दूर जाती रही.
उसके साथ उस समय मीडिया को लेकर मैं बहुत ज्यादा सीरियस रहा करता था और मीडिया भी कुछ कुछ दिन पर पूछ देती थी कि आप क्या कर रहे हैं इसको लेकर मैं बिना अनुभव के कभी ये बिज़नेस कभी वो करता था ताकि मैं मीडिया में बता सकूं कि मैं बेकार नही हूँ .
#SushilKumar IS A NAME #KBC WILL NEVER FORGET!! The first incredible participant who walks away with 5 Crores! pic.twitter.com/VtjaA5zj
— KBC (@KBCsony) November 2, 2011
जिसका परिणाम ये होता था कि वो बिज़नेस कुछ दिन बाद डूब जाता था.
इसके साथ कौन बनेगा करोड़पति के बाद मैं दानवीर बन गया था और गुप्त दान का चस्का लग गया था. महीने में लगभग 50 हज़ार से ज्यादा ऐसे ही कार्यों में चला जाता था.
इस कारण कुछ चालू टाइप के लोग भी जुड़ गए थे और हम गाहे-बगाहे खूब ठगा भी जाते थे. जो दान करने के बहुत दिन बाद पता चलता था.
Sushil Kumar’s life is going to take a unique twist of fate tonight. Be prepared to witness the magic tonight. #KBC pic.twitter.com/WgE4rkSc
— KBC (@KBCsony) November 2, 2011
पत्नी के साथ भी सम्बन्ध धीरे धीरे खराब होते जा रहे थे. वो अक्सर कहा करती थी कि आपको सही गलत लोगों की पहचान नही है और भविष्य की कोई चिंता नही है. ये सब बात सुनकर हमको लगता था कि हमको नही समझ पा रही है, इस बात पर खूब झगड़ा हो जाया करता था.
हालांकि इसके साथ कुछ अच्छी चीजें भी हो रही थीं. दिल्ली में मैंने कुछ कार ले कर अपने एक मित्र के साथ चलवाने लगा था, जिसके कारण मुझे लगभग हर महीने कुछ दिनों दिल्ली आना पड़ता था. इसी क्रम में मेरा परिचय कुछ जामिया मिलिया में मीडिया की पढ़ाई कर रहे लड़कों से हुआ. फिर आईआईएमसी में पढ़ाई कर रहे लड़के, फिर उनके सीनियर,फिर जेएनयू में रिसर्च कर रहे लड़के, कुछ थियेटर आर्टिस्ट आदि से परिचय हुआ. जब ये लोग किसी विषय पर बात करते थे तो लगता था कि अरे ! मैं तो कुएँ का मेढ़क हूँ. मैं तो बहुत चीजों के बारे में कुछ नही जानता.
अब इन सब चीजों के साथ एक लत भी साथ जुड़ गया- शराब और सिगरेट.
जब इन लोगों के साथ बैठना ही होता था दारू और सिगरेट के साथ.
एक समय ऐसा आया कि अगर सात दिन रुक गया तो सातों दिन इस तरह के सात ग्रुप के साथ अलग-अलग बैठकी हो जाती थी. इनलोगों को सुनना बहुत अच्छा लगता था. चूंकि ये लोग जो भी बात करते थे, मेरे लिए सब नया नया लगता था. बाद, इन लोगों की संगति का ये असर हुआ कि मीडिया को लेकर जो मैं बहुत ज्यादा सीरियस रहा करता था, वो सिरियसनेस धीरे धीरे कम हो गई.
जब भी घर पर रहते थे तो रोज एक सिनेमा देखते थे. हमारे यहाँ सिनेमा डाउनलोड की दुकान होती है, जो पाँच से दस रुपये में हॉलीवुड का कोई भी सिनेमा हिंदी में डब या कोई भी हिंदी फिल्म उपलब्ध करा देती है. (हालांकि नेटफ्लिक्स आदि आने के बाद उन सैकड़ों का रोजगार अब बंद हो गया).
कैसे आई कंगाली की खबर (ये थोड़ा फिल्मी लगेगा)
उस रात प्यासा फ़िल्म देख रहा था और उस फिल्म का क्लाइमेक्स चल रहा था, जिसमें माला सिन्हा से गुरुदत्त साहब कर रहे हैं कि मैं वो विजय नही हूँ वो विजय मर चुका. उसी वक्त पत्नी कमरे में आई और चिल्लाने लगी कि एक ही फ़िल्म बार-बार देखने से आप पागल हो जाइएगा और, और यही देखना है तो मेरे रूम में मत रहिये जाइये बाहर.
इस बात से हमको दुःख इसलिए हुआ कि लगभग एक माह से बातचीत बंद थी और बोला भी ऐसे कि आगे भी बात करने की हिम्मत न रही और लैपटॉप को बंद किये और मुहल्ले में चुपचाप टहलने लगे.
अभी टहल ही रहे थे तभी एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार महोदय का फोन आया और कुछ देर तक मैंने ठीक ठाक बात की बाद में उन्होंने कुछ ऐसा पूछा जिससे मुझे चिढ़ हो गई और मैंने कह दिया कि मेरे सभी पैसे खत्म हो गए और दो गाय पाले हुए हैं, उसी का दूध बेचकर गुजारा करते हैं. उसके बाद जो उस न्यूज़ का असर हुआ उससे आप सभी तो वाकिफ होंगे ही.
उस खबर ने अपना असर दिखाया जितने चालू टाइप के लोग थे, वे अब कन्नी काटने लगे मुझे. लोगों ने अब कार्यक्रमों में बुलाना बंद कर दिया और तब मुझे समय मिला कि अब मुझे क्या करना चाहिए.
उस समय खूब सिनेमा देखते थे लगभग सभी नेशनल अवार्ड विनिंग फ़िल्म, ऑस्कर विनिंग फ़िल्म ऋत्विक घटक और सत्यजीत रॉय की फ़िल्म देख चुके थे और मन में फ़िल्म निदेशक बनने का सपना कुलबुलाने लगा था.
इसी बीच एक दिन पत्नी से खूब झगड़ा हो गया और वो अपने मायके चली गई बात तलाक लेने तक पहुंच गई.
तब मुझे ये एहसास हुआ कि अगर रिश्ता बचाना है तो मुझे बाहर जाना होगा और फ़िल्म निदेशक बनने का सपना लेकर चुपचाप बिल्कुल नए परिचय के साथ मैं आ गया.
अपने एक परिचित प्रोड्यूसर मित्र से बात करके जब मैंने अपनी बात कही तो उन्होंने फिल्म सम्बन्धी कुछ टेक्निकल बातें पूछीं जिसको मैं नही बता पाया तो उन्होंने कहा कि कुछ दिन टी वी सीरियल में कर लीजिए, बाद में हम किसी फ़िल्म डायरेक्टर के पास रखवा देंगे.
फिर एक बड़े प्रोडक्शन हाउस में आकर काम करने लगा. वहां पर कहानी, स्क्रीन प्ले, डायलॉग कॉपी, प्रॉप कॉस्टयूम, कंटीन्यूटी और न जाने क्या करने देखने समझने का मौका मिला. उसके बाद मेरा मन वहाँ से बेचैन होने लगा. वहाँ पर बस तीन ही जगह आंगन,किचन,बेडरूम ज्यादातर शूट होता था और चाह कर भी मन नही लगा पाते थे.
Till we meet again #India! Thank you for your love from all of us at @KBCsony <3 pic.twitter.com/LQx8Z9Of
— KBC (@KBCsony) November 17, 2011
हम तो मुम्बई फ़िल्म निदेशक बनने का सपना लेकर आये थे और एक दिन वो भी छोड़ कर अपने एक परिचित गीतकार मित्र के साथ उसके रूम में रहने लगा और दिन भर लैपटॉप पर सिनेमा देखते-देखते और दिल्ली पुस्तक मेला से जो एक सूटकेस भर के किताब लाये थे उन किताबों को पढ़ते रहते.
लगभग छः महीने लगातार यही करता रहा और दिन भर में एक डब्बा सिगरेट खत्म कर देते थे, पूरा कमरा हमेशा धुंआ से भरा रहता था. दिन भर अकेले ही रहने से और पढ़ने लिखने से मुझे खुद के अंदर निष्पक्षता से झांकने का मौका मिला और मुझे ये एहसास हुआ कि मैं मुंबई में कोई डायरेक्टर बनने नहीं आया हूं. मैं एक भगोड़ा हूँ जो सच्चाई से भाग रहा है. असली खुशी अपने मन का काम करने में है. घमंड को कभी शांत नही किया जा सकता. बड़े होने से हज़ार गुना ठीक है अच्छा इंसान होना. खुशियाँ छोटी छोटी चीजों में छुपी होती है. जितना हो सके देश समाज का भला करना जिसकी शुरुआत अपने घर/गाँव से की जानी चाहिए.
हालाँकि इसी दौरान मैंने तीन कहानी लिखी जिसमें से एक कहानी एक प्रोडक्शन हाउस को पसंद भी आई और उसके लिए मुझे लगभग 20 हज़ार रुपये भी मिले. (हालाँकि पैसा देते वक्त मुझसे कहा गया कि इस फ़िल्म का आईडिया बहुत अच्छा है, कहानी पर काफी काम करना पड़ेगा, क्लाइमेक्स भी ठीक नही है आदि आदि और इसके लिए आपको बहुत ज्यादा पैसा हमलोगों ने पे कर दिया है).
इसके बाद मैं मुम्बई से घर आ गया और टीचर की तैयारी की और पास भी हो गया. साथ ही अब पर्यावरण से संबंधित बहुत सारे कार्य करता हूँ. जिसके कारण मुझे एक अजीब तरह की शांति का एहसास होता है. साथ ही अंतिम बार मैंने शराब मार्च 2016 में पी थी उसके बाद पिछले साल सिगरेट भी खुद ब खुद छूट गई.
अब तो जीवन में हमेशा एक नया उत्साह महसूस होता है और बस ईश्वर से प्रार्थना है कि जीवन भर मुझे ऐसे ही पर्यावरण की सेवा करने का मौका मिलता रहे इसी में मुझे जीवन का सच्चा आनंद मिलता है.
बस यही सोचते हैं कि जीवन की जरूरतें जितनी कम हो सके, रखनी चाहिए बस इतना ही कमाना है कि जो जरूरतें वो पूरी हो जाये और बाकी बचे समय में पर्यावरण के लिए ऐसे ही छोटे स्तर पर कुछ कुछ करते रहना है.
धन्यवाद
सुशील कुमार
केबीसी 5 विनर