Columnist

सिकुड़ रहे हैं ग्लेशियर

देविंदर शर्मा
एक मृत ग्लेशियर के लिए एक गीत. आइसलैंड के वैज्ञानिक ठीक ऐसा ही कर रहे हैं. राइस विश्वविद्यालय और आइसलैंड के वैज्ञानिकों ने आगामी 18 अगस्त को उस पहले ग्लेशियर के लिए, जिसे ओके ग्लेशियर कहा जाता है, एक स्मारक बनाने की योजना बनाई है, जो पश्चिमी आइसलैंड में खो गया है.

स्मारक की पट्टिका पर यह मार्मिक संदेश है- ओके एक ग्लेशियर के रूप में अपनी पहचान खोने वाला आइसलैंड का पहला ग्लेशियर है. अगले दो सौ वर्षों में हमारे सभी ग्लेशियरों की स्थिति ऐसी ही होने की आशंका है. यह स्मारक इस बात की स्वीकारोक्ति है कि हम जानते हैं कि क्या हो रहा है और क्या किए जाने की जरूरत है.

आइसलैंड का ओके भले ही गायब होने वाला पहला ग्लेशियर है, लेकिन निश्चित रूप से यह आखिरी नहीं होगा. तीस वर्ष बाद 2050 में इस संदेश को पढ़ने वाले अनेक लोग ग्लेशियरों के गायब होने के लिए मौजूदा पीढ़ी को शाप देंगे. वे निश्चित रूप से जानेंगे कि हमने क्या गलत किया.

मुझे लगता है कि हमारे मृत होते ग्लेशियरों के लिए भी स्मारक बनाना एक उत्कृष्ट विचार है. लेकिन अगर ऐसा होता है, तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान और चीन तक फैली हिमालय पर्वत शृंखला स्मारकों से पट जाएगी. पानी की मीनार माना जाने वाला हिमालय पृथ्वी के ताजा पानी का करीब चालीस फीसदी हिस्सा वहन करता है.

लेकिन संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का अनुमान है कि 50 हजार से ज्यादा ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं. जिस गति से ये ग्लेशियर गायब हो रहे हैं, वह ऊंची पर्वत शृंखला के दोनों ओर रहने वाले लगभग 1.3 अरब लोगों के लिए विनाशकारी साबित होगा.

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हिमालय को तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है, क्योंकि अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद तीसरा सबसे ज्यादा बर्फ का हिस्सा इसके पास है. तो केवल इस पृथ्वी के दो ध्रुव-अंटार्कटिका और आर्कटिक ही नहीं पिघल रहे, हिमालय की स्थिति भी उतनी ही खराब है. हालांकि इसके पिघलने की गति यूरोपीय आल्प्स की तरह तेज नहीं है, जिसने पिछले दशक में कई ग्लेशियरों को मरते देखा है. संभवतः इसका एक कारण यह है कि दक्षिण एशिया की तुलना में यूरोप में तापमान बहुत पहले से बढ़ना शुरू हो गया था.

फिर भी मुझे उम्मीद थी कि कोलंबिया यूनिवर्सिटी के लामोंट-डोहर्टी अर्थ ऑब्जर्वेटरी द्वारा किए गए व्यापक अध्ययन के निष्कर्ष आने के बाद भारत में तीखी प्रतिक्रिया होगी, जिसमें बताया गया है कि वर्ष 2000 से हर साल हिमालय में डेढ़ फुट से अधिक बर्फ पिघल रही है. इससे पहले, 1975 और 2000 के बीच हिमालय में हर साल 10 इंच की सीमा तक बर्फ पिघली थी.

दिलचस्प बात यह है कि इस अध्ययन में एशिया की ऊंची पर्वत शृंखलाएं-पामीर, हिंदू कुश और तियान शान शामिल नहीं हैं. बर्फ के पिघलने का समग्र प्रभाव निश्चित रूप से पूरे एशियाई क्षेत्र के लिए विनाशकारी होगा.

हालांकि हिमालय की बर्फ के खतरनाक स्तर तक पिघलने की घटना से देश को झटका लगा है, आखिरकार यह हिंदी प्रदेश में रहने वाले लोगों के लिए एक करारा झटका होगा. लेकिन मीडिया में थोड़ी-बहुत चर्चा छोड़कर मैंने सार्वजनिक आक्रोश नहीं देखा.

अमेरिका के जासूसी उपग्रहों द्वारा खींची गई तस्वीरों के साथ-साथ, जिन्हें सार्वजनिक कर दिया गया है, क्षेत्र के 650 ग्लेशियरों की सैटेलाइट द्वारा खींची गई तस्वीरों के अध्ययन से पता चलता है कि हिमालय कैसे हर साल आठ अरब लीटर पानी खो रहा है. यह हर साल ओलंपिक आकार के 32 लाख स्विमिंग पूलों के सूख जाने के बराबर है.

जल संकट से जूझने वाले अपने देश में, जहां हाल ही में चेन्नई में जल संकट गहरा गया था, हिमालय के बर्फीले आवरण के सिकुड़ने को लेकर हमें थोड़ा गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है.

आखिरकार सबका भविष्य दांव पर है, और लोगों को जल विहीन अर्थव्यवस्था के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए, जो हम अपने बच्चों के लिए छोड़ जाएंगे. जल संकट के मुद्दे पर नागरिकों की एकजुटता देश को चौंका सकती है.

मुझे उम्मीद थी कि इस चुनौती से निपटने के लिए संसद मध्य रात्रि तक बैठेगी. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उपलब्ध जल का 78 फीसदी सिंचाई के लिए उपयोग करने का दोष कृषि क्षेत्र पर मढ़ने को छोड़कर जीवन सामान्य गति से चलता रहा.

जबकि कुछ खबरों में केंद्रीय जल आयोग के अध्ययन का हवाला देते हुए बताया गया है कि गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र यानी तीन नदी घाटियों में पानी की उपलब्धता घट गई है. ये सभी नदियां हिमालय से निकलती हैं और पूरे उत्तरी क्षेत्र से लेकर मध्य भारत तक लोगों की जीवन रेखा है, पर इस खबर का कोई संज्ञान ही नहीं लिया गया.

इन तीनों नदी घाटी में पानी की औसत क्षमता में 40 फीसदी की गिरावट आई है. वनों की स्थिति दर्शाने वाली 2015 की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि उत्तर और पूर्वोत्तर क्षेत्र में 628 वर्ग किलोमीटर वनों के कटाव के कारण नदियों का प्रवाह कम हो गया है.

ऐसी परिस्थितियों में, जहां नीचे की ओर रहने वाली विशाल आबादी नदी के सूखने की आशंकाओं का सामना करती है, और कृषि, उद्योग तथा पेयजल आपूर्ति पर मंडराने वाला जल संकट और तेज हो गया है, हिमालयी राज्यों को पहाड़ियों की रक्षा करने के लिए सामूहिक रूप से एक नीतिगत योजना बनानी चाहिए. ग्यारह हिमालयी राज्यों द्वारा जल संरक्षण और दूसरे मुद्दों पर कल ही मसूरी में एक बैठक हुई है.

केदारनाथ जैसी आपदा फिर न हो, इसके लिए उपयुक्त नीतियां क्यों नहीं बनाई जातीं और नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र की रक्षा के लिए ये राज्य हाथ क्यों नहीं मिला सकते और सामूहिक निवेश क्यों नहीं कर सकते?

पहाड़ों द्वारा मिलने वाली पारिस्थितिकी सेवाओं का मूल्य निर्धारण करना- इनमें वे सेवाएं शामिल हैं, जो पानी, वनाच्छादन की देखभाल, मृदा संरक्षण और वन्यजीवों, इत्यादि से आती हैं-और राज्य की जीडीपी गणना में इसे शामिल करना निश्चित रूप से धन को मापने का एक तरीका है, जो पहाड़ों से हमें मिलता है. विकास के नाम पर पहाड़ियों के अंधाधुंध दोहन को रोकना होगा.

इसके लिए पहाड़ी राज्यों में एक नए और विशिष्ट विकास प्रतिमान की आवश्यकता हो सकती है, जो प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा पर ज्यादा निर्भर होगा. अनुसंधान कार्यक्रमों को भी संशोधित करने की आवश्यकता है.

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