कृषि का सबसे बुरा दौर
देविंदर शर्मा
जब रूप सिंह और उनके छोटे भाई बसंत सिंह अपने पिता का अंतिम संस्कार करके लौटे, तो उन्हें यह पता नहीं था कि नियति ने उनके लिए भी यही रास्ता तय कर रखा है.
उनके पिता अवतार सिंह ने कर्ज के बढ़ते बोझ के कारण खुदकुशी कर ली थी. और पिता के अंतिम संस्कार के एक दशक बाद इन दोनों भाइयों ने भी वही घातक कदम उठाया.
खेती के लिये ली गई कर्ज ने परिवार की दो पीढ़ियों को लील लिया. दोनों भाई 2.5 एकड़ जमीन के मालिक थे और 30 एकड़ अन्य जमीन पर वे अनुबंध खेती करते थे.
यह कोई इकलौता मामला नहीं है लेकिन ऐसी घटनायें बताती हैं कि किस तरह से खेती को लगातार नुकसान पहुंच रहा है, जिसने दशकों से बड़ी संख्या में किसानों की जान ली है.
पंजाब के खेतों में मौत का तांडव लगातार जारी है. किसानों से जुड़े संगठनों का कहना है कि कांग्रेस सरकार द्वारा कर्ज माफी की घोषणा के बावजूद एक वर्ष में 430 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है.
यही कारण है कि हाल ही में जारी एक रिपोर्ट हैरान नहीं करती कि कृषि आय 15 वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है.
द सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) ने भी भविष्यवाणी की कि वर्ष 2018-19 में कृषि आय नकारात्मक होगी. यह एक तरह से नीति आयोग के निष्कर्षों का विस्तार है, जिसने वर्ष 2011-12 से 2015-16 के बीच पांच वर्षों की अवधि के वास्तविक कृषि आय पर अध्ययन कर बताया था कि प्रति वर्ष कृषि आय आधी फीसदी (0.44 फीसदी) रही.
इस तरह के निराशाजनक परिदृश्य को देखकर मुझे हैरानी होती है कि किस तरह से कृषक समुदाय साल-दर-साल जीवित रहते हैं.
किसानों की आत्महत्या अतिरिक्त नुकसान तो है ही, लेकिन उन लोगों के बारे में क्या कहा जाए, जो हार नहीं मानते और सारी बाधाओं के खिलाफ संघर्ष जारी रखते हैं? खासकर तब, जब आम तौर पर माना जाता है कि लगभग चार दशकों में कृषि की वास्तविक आय में गिरावट आई है.
आर्थिक सहयोग संगठन (ओईसीडी) के हालिया अध्ययन के मुताबिक, 2000 से 2017 के बीच उपज का कम मूल्य दिए जाने के कारण किसानों को अनुमानतः 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है.
अंकटाड द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन ने पहले अनुमान लगाया था कि फसल की कीमत को मुद्रास्फीति से समायोजित करने की कोशिश का नतीजा यह हुआ कि दुनिया भर में फसल की कीमत 1985 और 2005 के बीच 20 साल की अवधि में लगभग स्थिर रही.
जाहिर है कि खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने के लिए सरकारों ने किसानों को निरंतर उनकी वाजिब आमदनी से वंचित रखा है. खाद्य कीमत कम रखने का पूरा बोझ किसानों पर डाल दिया गया. यानी उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने की पूरी लागत किसानों ने वहन की है.
किसानों को जान-बूझकर कम भुगतान किया जा रहा है, ताकि उद्योगों को सस्ते में कच्चा माल उपलब्ध कराया जा सके. इस तरह से किसानों की मात्र दो भूमिका है-उपभोक्ताओं को सस्ता खाद्य उपलब्ध करवाना और उद्योगों को सस्ता कच्चा माल उपलब्ध करवाना.
कर्ज में पैदा होना और जीवन भर कर्ज में डूबे रहना नर्क में रहने जैसा है. जबकि हर साल कहा जाता है कि सरकार ने किसानों के लिए ऋण सीमा बढ़ाई है. जैसे-जैसे कर्ज बढ़ता जाता है, संकट बढ़ता जाता है, पर मैंने कभी अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं को किसानों को उचित आय देने की बात करते नहीं देखा.
हिंदी प्रदेशों में किसानों को राहत
हिंदी प्रदेशों में प्रतिकूल चुनाव परिणाम के बाद सरकार ने पहली बार छोटे किसानों को वार्षिक छह हजार रुपये की प्रत्यक्ष आय सहायता देने के कार्यक्रम की शुरुआत की है. यह अल्प राशि आर्थिक सोच में महत्वपूर्ण बदलाव का सूचक है-यानी कर्ज से आय समर्थन की ओर.
लेकिन जो बात बहुत कम समझ में आती है, वह यह कि कृषि आय में गिरावट उस आर्थिक मॉडल का परिणाम है, जिसका हम पालन करते हैं. आर्थिक सुधारों को जीवित रखने के लिए कृषि को जान-बूझकर दरिद्र बना दिया गया है.
इसी त्रुटिपूर्ण आर्थिक सोच के साथ आगे बढ़ते हुए मुख्य आर्थिक सलाहकार ने उद्योग में और अधिक निवेश करने का आह्वान किया है, ताकि युवाओं को ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में लाया जा सके.
यह ठीक वही काम है, जो करने का 1996 में विश्व बैंक ने भारत को निर्देश दिया था. यह मुख्य रूप से इस कारण से है कि 2011 और 2017 के बीच कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश जीडीपी के 0.3 से 0.5 प्रतिशत के बीच बना हुआ है. सार्वजनिक और निजी, दोनों तरह के कुल निवेश में भी लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है-2011-12 में निवेश जीडीपी का 3.1 प्रतिशत था, जो घटकर 2016-17 में 2.2 प्रतिशत रह गया.
अब इसकी तुलना उद्योगों को दी जा रही रियायतों से करें, जो जीडीपी के पांच फीसदी के बराबर है. इसलिए कृषि को मारने का सबसे अच्छा तरीका इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में भारी कटौती करना है, जो देश की आबादी को 52 प्रतिशत रोजगार देता है.
सीएमआईई की गणना के अनुसार, हैरानी की बात नहीं कि पिछले बारह महीनों में 56.6 लाख रोजगार का नुकसान हुआ है, उसमें से 82 फीसदी या 46 लाख रोजगार का नुकसान ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ है.
यह उस आर्थिक नीति का नतीजा है, जो ग्रामीण बेरोजगार युवाओं को शहरों में धकेलना चाहता है, जिसे दिहाड़ी मजदूरों की जरूरत है. इस नीति पर गंभीरता से पुनर्विचार करने की जरूरत है. खेतों में घटता स्वामित्व कोई समस्या नहीं है, बल्कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य न मिलना बड़ी समस्या पैदा करता है.
कृषि की जान-बूझकर उपेक्षा ने खेती को अलाभकर और पर्यावरणीय रूप से अस्थिर बना दिया है. जिस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, वह यह कि भूख, गरीबी, युवाओं की बेरोजगारी, जबरन विस्थापन और जलवायु परिवर्तन, जिनसे भारत जूझ रहा है, उसका दीर्घकालीन समाधान ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश ही है.
इन तमाम समस्याओं की गहरी जड़ें ग्रामीण क्षेत्रों में हैं. चूंकि कृषि प्रधान ग्रामीण व्यवसाय है, इसलिए किसी भी समझदार आर्थिक नीति का जोर कृषि को एक आर्थिक गतिविधि के रूप में मानने से शुरू होता है. अकेले इसमें लाखों आजीविका को बनाए रखने की क्षमता है और इस तरह से यह अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूत बना सकता है.