Facebook जी, आप क्या कर रहे हैं?
उर्मिलेश | फेसबुक : Facebook जी, पिछले कुछ हफ़्तों से मेरे साथ आप ये क्या कर रहे हैं? सुना है, मेरी तरह और भी मित्रों के साथ ऐसा हो रहा है! पर ज्यादातर मित्रों की तरह मैं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के तकनीकी पहलुओं और तौर-तरीकों से ज्यादा वाक़िफ नहीं हूं.
मैं तो बस इन मंचों पर अपनी बात साफ और संयत ढंग से लिखने और अन्य मित्रों की बात पढ़ने भर से मतलब रखता हूं! पर पिछले कुछ सप्ताहों से देख रहा हूं, चीजें पहले से बदल रही हैं!
जब मैं भारतीय राजनीति के तात्कालिक संदर्भों पर कुछ लिखता हूं तो वह पोस्ट बहुत कम लोगों तक पहुंचती है या उस पर मेरे अपेक्षाकृत कम मित्र पहुंच पाते हैं!
लेकिन किसी स्थान, समय, मौसम, बादल, समंदर, भोजन या बाजार पर लिखता हूं तो उस पर पहुंचने यानी उसे पढ़ने या उस पर प्रतिक्रिया लिखने वालों की संख्या पहले की तरह ठीक-ठाक होती है!
अगर शासन या सत्ता राजनीति से जुड़े किसी जरूरी सामाजिक संदर्भ पर तथ्यात्मक या विश्लेषणात्मक ढंग से लिखता हूं तो उसकी पहुंच बहुत कम मित्रों तक होती है!
सभी मानेंगे कि मैं भाषा या विचार में कभी असंयत या अभद्र नहीं होता. मेरे विचारों से आपकी या किसी की असहमति हो सकती है (जो किसी लोकतांत्रिक समाज में स्वाभाविक और जरुरी भी है!) पर उन्हें व्यक्त करने के अंदाज या तरीके पर शायद ही किसी की असहमति या आपत्ति हो!
फिर आप ही बताइए Facebook जी, आप मेरे हजारों मित्रों से मुझे क्यों काट रहे हैं? मेरी बात के पहुंचने का दायरा आप क्यों सीमित कर रहे हैं?
आप तो अपने को लोकतांत्रिक मूल्यों और प्रक्रियाओं से जुड़ा एक ‘निष्पक्ष’ प्लेटफार्म बताते हैं! फिर पिछले काफी समय से आपकी ‘निष्पक्षता’ को ये क्या हुआ जा रहा है? दूसरे मुल्कों और समाजों में भी आप पर तरह तरह-तरह के सवाल उठे हैं!
मैं यहां उनके विस्तार में नहीं जाना चाहता. पर आपको एक बात ज़रूर याद दिलाना चाहता हूं कि आपके प्लेटफॉर्म की ‘लोकप्रियता’ ही आपकी पूंजी रही है, जिसके बल पर आपने बेशुमार पूंजी और धन कमाया है! आप उसे किसी भी कीमत पर गंवाइये नहीं!
बाकी आप तो स्वयं ही बहुत समझदार और ‘शक्तिमान’ हैं. पूरी दुनिया में छाये हुए हैं, किसी ‘ब्रह्म’ की तरह! इसलिए धरती के हम जैसे साधारण जीवों को इतना महत्व क्यों दे रहे हैं कि शालीन और संयत ढंग से व्यक्त हमारे विचार या संदेश की पहुंच का दायरा सीमित किया जाय!
विचार कीजिएगा! वैसे आप को फुर्सत ही कहां है? फिर भी!