कला

हबीब तनवीर: अपने ही शहर ने भुला दिया

रायपुर | संवाददाता: दुनिया के जाने माने रंगकर्मी हबीब तनवीर आज होते तो 95 की उम्र होती. वे रायपुर के जिस बैजनाथपारा के घर में रहते थे, वहां से गुजरते हुये अब भी लगता है कि वे वहीं कहीं बरामदे में बैठे होंगे, आंगन की तरफ देखते हुये हाथ में सिगार थामे. चश्मे के भीतर से देख कर फिर बेपरवाही से अपने में गुम होते हुये.

शहर में अब भी हजारों लोग हैं, जो हबीब साहब को याद कर लेते हैं. याद करते रहते हैं. कभी-कभार कोई आयोजन भी होता है. लेकिन दुनिया में रंगमंच के सहारे छत्तीसगढ़ को पहली बार इतने व्यापक फलक पर ले जाने वाले हबीब तनवीर को सरकार कभी याद नहीं करती. राज्य में लगभग आधा सैकड़ा पुरस्कार अलग-अलग नामों से है लेकिन हबीब तनवीर के नाम पर सरकार को कभी कोई आयोजन करने का भी नहीं सूझता. गांव-गांव में चौराहे बनवाने वाली सरकार को अपने इस महान कलाकार के लिये कोई स्मारक बनवाने का ख्याल ही नहीं आया.

दुनिया के किसी और शहर में रंगमंच का कोई ऐसा नाम होता तो शायद हर साल उसकी याद में कोई राष्ट्रीय स्तर का आयोजन, कोई उत्सव तो जरुर होता. लेकिन रायपुर में आज कहीं किसी आयोजन की खबर नहीं है. कहीं कोई आयोजन की तैयारी होगी भी तो वह भी अलक्षित ही है. उनसे बेइन्तहा प्यार करने वाले ‘नया थियेटर’ के कलाकार भी एक-एक करके स्मृतियों का हिस्सा हो गये. जो बचे हैं, वो अपने बचे होने के लिये संघर्ष कर रहे हैं.

हबीब तनवीर का जन्म 1 सितम्बर,1932 को रायपुर में हुआ था. उन्होंने लॉरी म्युनिसिपल हाईस्कूल से मैट्रिक पास की, म़ॉरीस कॉलेज, नागपुर से स्नातक किया (1944) और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए की. बचपन से हीं कविता लिखने का शौक चढ़ा. पहले तनवीर के छद्मनाम नाम से लिखना शुरू किया जो बाद में उनका पुकार नाम बन गया.

सन् 1945 में वे मुम्बई चले गये और प्रोड्यूसर के तौर पर आकाशवाणी में नौकरी शुरू की. वहां रहते हुए उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए गाने लिखा. कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया. प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गये और कलांतर में इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन के अंग बन गये. जब ब्रिटीश शासन के खिलाफ इप्टा से जुड़े कई लोग जेल चले गये तब हबीब तनवीर को संगठन की जिम्मेदारी संभालनी पड़ी. 1954 वे दिल्ली आ गये और हिन्दुस्तानी थियेटर से जुड़ गये. उन्होंने बाल थियेटर के लिए भी काम किया. कई नाटकों की रचना की. यहीं रहते हुए उनकी मुलाकात अभिनेता-निर्देशक मोनिका मिश्रा से हुई जिनसे उन्होंने आगे चलकर शादी कर ली. उसी साल उन्होंने अपना चर्चित नाटक आगरा बाजार लिखा.

हबीब साहब ने नाटकों के साथ-साथ फिल्मों की पटकथा भी लिखी और 9 फिल्मों में काम किया. वर्ष 1982 में रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म ‘गांधी’ में भी उन्होंने एक छोटी सी भूमिका निभाई थी. उन्होंने अपने जीवन में अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते. उन्हें 1969 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड मिला. 1983 में उन्हे ‘पद्म्श्री’ से सम्मानित किया गया. 1990 में कालिदास सम्मान और 2002 में उन्हें भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ से नवाजा गया.

वे 1972 से 1978 तक राज्यसभा में भी रहे. उनका नाटक चरणदास चोर एडिनवर्ग इंटरनेशनल ड्रामा फेस्टीवल (1982) में पुरस्कृत होने वाला पहला भारतीय नाटक रहा. कुछ सप्ताह तक बीमार रहने के बाद 8 जून 2009 को उन्होंने इस धरती को अलविदा कह दिया.

हबीब तनवीर की एक ग़ज़ल

मैं नहीं जा पाऊँगा यारो सू-ए-गुलज़ार अभी
देखनी है आब-जू-ए-ज़ीस्त की रफ़्तार अभी

कर चुका हूँ पार ये दरिया न जाने कितनी बार
पार ये दरिया करूँगा और कितनी बार अभी

घूम फिर कर दश्त-ओ-सहरा फिर वहीं ले आए पाँव
दिल नहीं है शायद इस नज़्ज़ारे से बे-ज़ार अभी

काविश-ए-पैहम अभी ये सिलसिला रुकने न पाए
जान अभी आँखों में है और पाँव में रफ़्तार अभी

ऐ मिरे अरमान-ए-दिल बस इक ज़रा कुछ और सब्र
रात अभी कटने को है मिलने को भी है यार अभी

जज़्बा-ए-दिल देखना भटका न देना राह से
मुंतज़िर होगा मिरा भी ख़ुद मिरा दिल-दार अभी

होंगी तो इस रह-गुज़र में भी कमीं-गाहें हज़ार
फिर भी ये बार-ए-सफ़र क्यूँ हो मुझे दुश्वार अभी

आत्मकथा अंश

यहां हबीब तनवीर के आत्मकथा का एक अंश हम रज़ा फाउंडेशन से साभार प्रकाशित कर रहे हैं. इसे सुश्री नगीन तनवीर ने उपलब्ध करवाया और इसका लिप्यांतर उबैदुल्ला मुबारक ने किया है.

1961 में मोनिका को लेकर रायपुर आया तो अम्माँ, आपाजान, कैसर सब नयी नवेली दूल्हन को देखने के लिये झूम गयी. अम्मा ने ठुड्डी उठाकर ग़ौर से पहले चेहरा देखा, फिर बाहें, हाथ की उँगलियाँ, पाँव और पैरों की उँगलियाँ देखीं. जब ये मुआयना ख़त्म हुआ तो कहा आओ मेरे पास बैठो. अम्मा को उनका नर्म चेहरा, उसकी साँवली मलाहत, पल्लू में ढँका गोल खूबसूरत सर, उभरा सुडौल माथा, भरी-भरी स्याह भँवें, शर्मीली आँखें बहुत पसन्द आयीं.

बहनें भी उनकी बहुत गिरविदा हुईं. अम्मा ने नाम पूछा, मोनिका ने कहा, ‘मोनिका’. अम्मा ने बज़ाहिर दुहराते हुए गोया नाम को सही करते हुए कहा- ‘मलिका’. मास्साब ने बहू का नाम मनक़बत रखा. आपाजान ने उन्हें सलाम करना सिखाया, रिहर्सल करवायी और कहा मदर्से से मौलवी साहब आएँ तो तुम उन्हें अस्सलामो अलैयकुम कहना. वो जवाब देंगे वालैयकुम अस्सलाम. कहो कैसे बोलोगी? मोनिका ने दुहरा दिया.

जब हाफ़िज़ नाबीना घर आये तो मोनिका ने फ़ौरन बढ़कर कहा वालैयकुम सलाम हाफ़िज़ जी! हाफ़िज़ जी ख़ामोश! सर दायें से बायें घुमाते रहे, मुस्कराहट तो उनके चेहरे पर मुस्तक़िल रहती ही थी, जो अन्धों के चेहरे पर अक्सर बिला वजह रहती है. थोड़ी देर चुप रहने के बाद पूछा, आपका नाम?

‘मलिका!’ ये अम्मा बआवाजे़ बुलन्द बोल पड़ीं. पेश्तर इसके कि मोनिका जवाब देने के लिये मुँह खोलतीं, अम्मा खुद बोल उठी थीं ताकि मोनिका को अब और ग़लती करने का मौका न दिया जाए.

सास-बहू दोनों में बहुत जल्द बहुत गहरी दोस्ती हो गयी. अम्मा कहतीं, मलिका मेरी फलाँ चीज़ उठा कर लाना भला, मोनिका जाकर वो चीज़ ले आतीं. इसे ले जाकर वहीं रख दो भला, मोनिका उस चीज़ को रख आतीं. एक दिन कहने लगीं, मलिका मेरे साथ आओ, कुछ मिठाई ले आएँ.
रिक्शा रोकी गयी, अम्मा मोनिका को लेकर अपने खास हलवाई की दुकान पर पहुँची, खुद रिक्शे में बैठी रहीं, मोनिका से कहा, ज़रा-सी बर्फ़ी लाकर चखाओ. हलवाई अम्मा से खूब वाक़िफ था. उसने बर्फ़ी का एक छोटा-सा टुकड़ा दोने में रखकर दे दिया. बस इस तरह दो तीन मुख़तलिफ़ मिठाईयों के ज़रा-ज़रा से टुकड़े चख लेने के बाद कहा, थोड़ी-सी बालूशाही तुलवा लो. अम्मा को दो मिठाइयाँ बहुत पसन्द थीं, एक बालूशाही और दूसरी मैसूर पाक.

एक दिन कहा, मलिका ज़रा मेरे साथ कपड़े की दुकान तक चलो भला. दुकान में थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर कपड़े देखने के बाद कहने लगीं- ‘अई, मलिका यह भला कौन औरत होगी? मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती. देखने में शरीफ़ ख़ानदान की लगती हैं, कपड़े भी साफ़ सुथरे पहनी है. लेकिन जब भी मेरी नज़र उस पर पड़ती है, देखती हूँ कि मुझी पर उसकी आँखें जमी हुई हैं.’

मोनिका ने कहा, अम्मा वो आप ही हैं, वो सामने जो आईना लगा है न, उसमें आप खुद अपने आपको देख रही हैं. मोनिका बंगाली थीं मगर शिमले की उनकी पैदाईश थी. वहीं पली बढ़ीं, वहीं उनकी इब्तदाई तालीम हुई, उर्दू अच्छी ख़ासी बोल लेती थीं. सिर्फ़ कभी-कभी मुज़क्कर, मोअन्नस में ग़लती कर बैठतीं. मसलन-दाल बहुत अच्छा है. बहनें खिलखिलाकर हँस पड़तीं. मोनिका पूछतीं, मैं कुछ ग़लत बोली क्या?

बहनें और ज़ोर से हँस देतीं. कैसर कहती, नहीं-नहीं भाभी तुम बिल्कुल ग़लत नहीं बोले. इतना कहकर हँसे जाती. मैं कहता, तुम शिमले की उर्दू बोलती हो, मेरे घर में रायपुर की उर्दू बोली जाती है. उर्दू-उर्दू में फ़र्क तो होता ही है. ये सुनकर मोनिका खुद ज़ोर से हँस देतीं.

जनवरी, 1965 में मुझे देहली में ख़बर मिली, आपाजान का ख़त आया कि अम्मा की तबियत बहुत खराब है, तुम फ़ौरन चले आओ. नगीन 28 नवम्बर, 1964 को पैदा हुई थी, उस वक़्त दो महीने की थी. मैंने डॉक्टर (मिसेस) शीला मल्होत्रा को फ़ोन लगाकर पूछा कि क्या नगीन को साथ ले जाना मुनासिब होगा या उसे मोनिका के पास छोड़कर अकेला निकल जाऊँ.

उन्होंने बड़ी मुश्किलों से नगीन की पैदाईश फोरसेप्स (चिमटे) की मदद से की थी और कह दिया था इसके बाद अब मोनिका को औलाद की ख़्वाहिश नहीं करनी चाहिए. वैसे मोनिका के तीन हमल गिर चुके थे. नगीन जब पेट में आयी तो शीला ने उन्हें तकरीबन सात महीने तक पाँव के नीचे एक मोटा-सा तकिया लगाकर लेटे रहने की हिदायत की थी ताकि खून जो पहले से बूँद-बूँद टपकने लगता था, जिसकी वजह से तीन हमल न बच सके थे, वो रुक जाए और हमल कायम रहे. शीला ने कहा, तुम्हारी माँ पोती को देखकर खुश हो जाएगी. भगवान का नाम लेकर मोनिका के साथ बच्ची को भी रायपुर ले जाओ.

मैं रायपुर शाम के अँधेरे में पहुँचा. नगीन सो रही थी. अम्मा बिस्तर से उठकर बैठ गयीं, नगीन को गोद में लिया, नगीन दोनों मुट्ठियाँ बन्द किये गहरी नींद में थी, अम्मा ने उसकी उँगलियों के जोड़ की हड्डियों को अपनी शहादत की उंगली के नाखून से धीरे-धीरे मारकर उसे जगाया ताकि उसकी आँखें देख सकें. नगीन रोती हुई उठी. अम्मा ने पहले सैर होकर उसकी आँखें, पुतलियों का रंग, भँवें, नाक-नक़्श, हाथ पांव सब बग़ौर देख लिये फिर लोरी गाकर पुचकारते हुए थपकियाँ दे-देकर उसे सुला दिया.

अम्मा की हालत उसके बाद कुछ बेहतर हो गयी. कोई दस दिनों के बाद जब उनका वक़्त आ गया तो बेसुध बिस्तर पर पड़ी रहीं. कुछ कहने की कोशिश कर रही थीं. हम सब भाई-बहनें झुककर ग़ौर से सुनने और समझने की कोशिश करते रहे. आपाजान ने अपना कान उनके मुँह पर लगाकर सुना. बस फू-फू की आवाज़ मुस्तक़िल मुँह से निकल रही थी.

आपाजान दौड़ती हुई बावर्चीखाने गयीं और वहाँ से एक फुलका लेकर आयीं, उसका ऊपर का नर्म छिलका निकालकर एक छोटा-सा टुकड़ा निकालकर अम्मा को खिलाने की कोशिश करती रहीं, लेकिन न अम्मा ने कुछ खाया न उनके मुँह से फू…फू… की आवाज़ बन्द हुई. बड़ी मुश्किल से हमारी समझ में आया कि ‘फूँकवा दो’ कहने की कोशिश कर रही हैं.

मैं फ़ौरन दौड़कर मदर्से गया और मौलवी नवाब को साथ लेकर आ गया. उन्होंने सूराए यासीन पढ़ा और अम्मा के सीने पर फूँक दिया. जैसे ही मौलवी नवाब की तिलावत की आवाज़ अम्मा के कानों पर पड़ी, उनकी बेचैनी जाती रही. मौलवी नवाब ये कहकर चले गये कि इनकी हालत की ख़बर मुझे भिजवाते रहियेगा. बस चन्द घण्टों के लिए उनकी साँसें और बाक़ी थीं. बज़ाहिर चैन से सोती रहीं. इसके बाद दो एक हिचकियाँ आयीं, और कूच कर गयीं.

मरते वक़्त अम्मा का बिस्तरा कुछ ज़रा ख़राब हो गया था. आपाजान इस मामले में बहुत कच्ची थीं. उन्हें ऐसे कामों से घिन आती थी. मोनिका में नर्सिंग का जज़्बा बहुत था. उन्होंने बिला तकल्लुफ़ साफ़-सफ़ाई कर दी. इसके बाद औरतें आयीं, उन्होंने नहलाया, कफ़नाया, हम लोगों ने आखरी दीदार किया, मय्यत उठायी गयी, मुहल्ले के शुर्फ़ा, मदर्से के तमाम बच्चे और मुदर्सीन सब डोले के साथ कन्धा बदलते हुए बढ़े, कब्रिस्तान में नमाजे़ जनाज़ा पढ़ायी गयी और बिलाखिर अब्बाजी के बराबर अम्माँ को लिटाकर सुपुर्दे ख़ाक करने के बाद हम आ गये. मैं घर पहुँचा तो घर औरतों से भरा हुआ था.

वो ज़माना गुज़र गया. पहले बड़े हाफ़िज़ जी गये, फिर बड़े मौलवी साहब, उसके बाद हफ़्सा आपा, छोटे मौलवी साहब, मौलवी नवाब सब गुज़र गये. बस एक हाफ़िज़ नाबीना रह गये थे, उनका दम ग़नीमत था. तकरीबन रोज़ाना हमारे घर आते और बहुत देर तक मज़े-मज़े के क़िस्से-कहानियाँ सुनाते.

कभी उनकी बेगम आ जातीं. उनकी बेगम सभी को अच्छी लगती थीं, खूबसूरत, साँवली, खुश-खुल्क़ और कमाल ये कि मज़हबी माहौल में रात-दिन रहने के बावजूद बेहद रौशन ख़्याल. उनकी बातें बहुत दिलचस्प होतीं. हमारे घर आ जातीं तो सबका दिल बहल जाता. हाफ़िज़ जी पर जान छिड़कती थीं. हाफ़िज़ जी भी उनसे बहुत प्यार से बातें करते थे. मैं तो उन पर आशिक था. वो आतीं तो मैं खुश हो जाता. आपाजान मुझे छेड़ते हुए कहतीं, तुम्हारी वो आ रही हैं.

रफ्ता-रफ्ता बीमारी ने उन्हें घेर लिया. हाफ़िज़ जी ने बहुत दौड़ धूप की, बहुत दवा दारू करायी, उनकी सेहत गिरती ही चली गयी. तपेदिक हो गया था, मरज़ बहुत आगे बढ़ गया था.

मैंने हाफ़िज़ जी से कहा- अल्मोड़ा वाले डॉक्टर ख़जान चन्द, जो एक मशहूर टी.बी. स्पेशलिस्ट हैं, उनकी दवा मैंने चन्द मरीज़ों पर कामयाबी से आज़मायी है, वो दवा मेरे पास देहली में है. ऐसे ही मौकों के लिए मैंने कुछ शीशियाँ रख छोड़ी हैं, इंशाअल्लाह वो ज़रूर कारगर साबित होगी. हाफ़िज जी खुश हुए. जब मैं दवा लेकर रायपुर पहुँचा तो बेगम गुज़र चुकी थीं.

डॉक्टर ख़जान चन्द की इस इजाद की भी एक फ़िक्र अंगेज़ हिस्ट्री है, जो आगे चलकर लिखूँगा. इस वक़्त तो बस ये कहना चाहता हूँ कि बेगम की वफात के बाद हाफ़िज़ नाबीना जैसे टूट से गये. अन्धे की लाठी वही तो थीं. औलाद ना ख़लफ़ निकली. हाफ़िज़ नाबीना जब चल बसे तो मदर्सा भी सूना हो गया.

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