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दीप्ति आप न होतीं तो…

दिनेश श्रीनेत | फेसबुक: जब ये फिल्में आयीं तब मैं छोटा था. किशोरावस्था में प्रवेश से पहले का वक्त. लेकिन आज सोचता हूँ तो लगता है कि हम अगर Deepti Naval को नहीं देखते तो कभी अपने आसपास की उन स्त्रियों को समझ न पाते जो दीप्ति नवल की तरह सहज, सुंदर और आत्मचेतस थीं.

वो हमारे आसपास की एक आत्मविश्वास से भरी लड़की के जैसी थीं. जिसे प्रेम करने में संकोच नहीं था मगर बाकी फिल्मों की तरह प्रेम उसके लिए अंतिम सत्य नहीं था, उसके पास अपना एक वजूद था. जहां वह संगीत सीखती थी, कोई छोटी सी नौकरी करती थी. अपने छोटे भाई या रिटायर्ड पिता के साथ वक्त बिताती थी. उसमें समर्पण था मगर अपने स्वाभिमान को बनाए रखने भर का अहं भी था.

वो एक स्निग्ध और सुंदर सा चेहरा थीं. एक बिना मेकअप वाली लड़की जो साधारण से कपड़ों में अपनी रोजमर्रा की भागदौड़ में व्यस्त दिखती थी. वो ‘चश्मे-बद्दूर’ हो या ‘साथ-साथ’ या ‘कथा’… या ऐसी कितनी ही फिल्में… ये सिर्फ मध्यवर्गीय जीवन पर बुनी मीठी-मीठी सी फिल्में नहीं थीं. निर्मल वर्मा ने कभी कहा था कि यह जरूरी नहीं है कि किसी महान साहित्यिक रचना दर्शाया गया किरदार वास्तविक जीवन में भी हो… बल्कि उस रचना की महानता इस बात में है कि उसे पढ़ने के बाद हम इंसान के भीतर बसे उस किरदार को भी पहचानना सीख जाते हैं.

इन फिल्मों ने भी हमें अपने आसपास के कितने चेहरे पहचानना सिखाए.अस्सी के दशक की वो लड़कियां जिनकी दुनिया विस्तार ले रही थी. जिनके पास जीवन की अपनी खुद की समझ थी. जिनके पास रिश्तों की अपनी परिभाषाएं थीं. जिनके पास जीवन को जीने का अपना एक तरीका था.

उनकी बात बहुत कम लोग सुनते थे मगर वो हर किसी को अपनी बात नहीं सुनाना चाहती थीं, वो बस खुद के लिए जीने का प्रयास कर रही थीं. दीप्ति ने ऐसे न जाने कितने किरदार साकार किए.

…और हर शुरुआत की बहुत सी खामोश कहानियां होती हैं. दीप्ति की फिल्में भी उन खामोश कहानियों की तरह हैं, जिनकी वजह से आज हम बहुत से सपनों को और किरदारों को जीवन में शामिल होता देख पा रहे हैं.

तो दीप्ति. हमें आपको याद करने के लिए कोई बहाना नहीं चाहिए. बस यह पता है कि आपका बहुत कुछ हमारे और हमारे जैसे बहुत से लोगों के भीतर बसा है. आप न होतीं तो हमारे जीवन में बहुत कुछ न होता.

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