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सीमा पार करने की सजा

कुछ निश्चित अप्रवासियों के साथ जिस तरह का व्यवहार ट्रंप प्रशासन कर रहा है, वह नस्लभेदी है. ट्रंप प्रशासन द्वारा अप्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ किए जा रहे कार्रवाई के विरोध में अमेरिका में जिस तरह के प्रदर्शन हुए, वे हिला देने वाले हैं. बच्चों को उनकी मां से अलग कर दिया गया. बच्चों की बिलखती तस्वीरों के बीच डोनल्ड ट्रंप की नस्लभेदी टिप्पणियों के खिलाफ लोग उठ खड़े हुए. लॉस एंजेल्स, शिकागो, न्यूयॉर्क सिटी और वाशिंगटन में सबसे बड़े प्रदर्शन हुए.

ट्रंप ने हवा का रुख भांपते हुए अपना रुख बदल लिया. अब परिवारों को सीमा पार करने के जुर्म में एक साथ कैद में रखा जा रहा है. लेकिन जिन बच्चों को अलग कर दिया गया था, उन्हें वापस अपने परिजनों से मिलाने को लेकर स्पष्टता नहीं है. ट्रंप प्रशासन को इस बात की परवाह नहीं कि अलग होने से इन बच्चों पर कितने लंबे समय तक असर रहेगा. ट्रंप को यह भी लगता है कि जिस तरह से मुस्लिमों के यात्रा पाबंदी पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक नहीं लगाई, वहां वे न्यायमूर्ति एंथनी केनेडी की सेवानिवृत्ति के बाद और मजबूत हो जाएंगे. ट्रंप ने एक ट्विट में कहा कि अगर कोई आता है तो बगैर कोर्ट केस के उसे वहीं वापस भेज देना चाहिए जहां वे वह आया है. ऐसी नीतियां लोगों को नस्ल, राष्ट्रीयता और धर्म के नाम पर बांटने वाली हैं.

अब डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रंप के काम पर आंसू बहा रही है. लेकिन बच्चों को रोककर रखने वाले केंद्र तो बराक ओबामा के कार्यकाल में ही अस्तित्व में आने लगे थे. ओबामा ने अपने कार्यकाल में 27 लाख लोगों को वापस भेजा. जेल और इस तरह के केंद्रों में लगे कारोबारियों को काफी फायदा हो रहा है और इन्हें ओबामा प्रशासन ने ही खड़ा किया था.

मेक्सिको और मध्य अमेरिका से आ रहे लोगों की मूल वजह अमेरिका ही है. उसने इन देशों में सरकारों को अस्थिर करने के लिए हर हथकंडा अपनाया. इन देशों से अमेरिका आने वाले लोग सबसे नीचे स्तर का काम करते हैं. बाथरूम साफ करने से लेकर होटलों में बैरे के तौर पर और निर्माण क्षेत्र में मजदूर के तौर पर ये काम करते हैं. ये लोग दिन रात मेहनत करके कुछ पैसे कमाते हैं और इसमें से कुछ बचाकर वापस अपने घर भेजते हैं. सीमा पार करने के आरोप में जो भी पकड़े जाते हैं, उन्हें कई तरह के जुल्मों का सामना करना पड़ता है.

अप्रवासियों पर हमला पूरे विश्व में देखा जा रहा है. अफगानिस्तान, इराक, लिबिया, सोमालिया, सीरिया और यमन जैसे देशों से लोग हिंसा और त्रासदी से बचने के लिए भाग रहे हैं. क्योंकि अमेरिका जैसे देश ने इन देशों में युद्ध के जरिए तबाही ला दी है. यूरोप में इन देशों और अफ्रीकी देशों के अप्रवासियों को नस्लभेदी हिंसा का सामना करना पड़ रहा है. क्योंकि इटली, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, जर्मनी, हंगरी, स्लोवानिया और पोलेंड जैसे देशों में दक्षिणपंथी मजबूत हो गए हैं. जर्मनी में भी इनके खिलाफ माहौल बन रहा है. ग्रीस और इटली में शरणार्थियों के लिए खास इलाके बन गए हैं. यूरोपीय संघ में शरणार्थी शिविर बनाने की तैयारी में है.

क्या इन सबका नतीजा यह होगा कि यूरोप की सीमाएं बंद हो जाएंगी और शरणार्थियों को वापस पश्चिम एशिया और अफ्रीका के युद्ध वाले क्षेत्रों में भेजा जाएगा? भारत में भी बांगलादेशियों और रोहिंग्या मुसलमानों के साथ ठीक व्यवहार नहीं हो रहा है. लॉस एंजल्स में रैली के दौरान एक प्लेकार्ड पर लिखा था, ‘मानवाधिकारों की कोई सरहद नहीं होनी चाहिए.’ यह बात पूरी दुनिया को समझनी चाहिए.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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