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विपक्षी एकता का गणित

उत्तर प्रदेश उपचुनाव के नतीजे विपक्ष के लिए उम्मीद जगाने के साथ विपक्ष की परेशानियों का भी संकेत दे रहे हैं. उत्तर प्रदेश के कैराना संसदीय क्षेत्र और नूरपुर विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनावों के नतीजों ने फूलपुर और गोरखपुर के नतीजों को ही बरकरार रखा है. यह स्पष्ट हो गया है कि अगर विपक्ष एकजुट रहे तो वह भाजपा को हरा सकती है. इन उपचुनावों में पश्चिमी, मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह प्रयोग सफल रहा. अगर कैरान और नूरपुर में विपक्षी पार्टियां अलग-अलग लड़तीं तो भाजपा को निर्णायक बढ़त मिली रहती.

इससे 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए क्या मतलब निकाला जाए? उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक 80 लोकसभा सांसद चुने जाते हैं और इनमें से 2014 में 73 भाजपा और उसकी सहयोगी अपना दल के पास थे. क्या ये नतीजे यह बता रहे हैं कि धर्म पर अर्थव्यवस्था भारी पड़ रही है? धर्म हमेशा से उत्तर प्रदेश में नाजुक मसला रहा है क्योंकि कोई भी बयान तेजी से मतों का धु्रवीकरण करता है.

यह भी पता चलता है कि फूलपुर और गोरखपुर में धुर विरोधी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के एक साथ आने से भाजपा की हार का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह बरकरार है. कैराना में अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना और नूरपुर 2013 के दंगे से प्रभावित हुए थे. विपक्ष को यह आशंका थी कि भाजपा धर्म के आधार पर धु्रवीकरण की कोशिश कर सकती है. इसलिए मुद्दा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था की बुरी स्थिति के आसपास केंद्रित रहा.

कैराना और नूरपुर में बसपा थोड़ा पीछे रही. मायावती ने कोई सीधी अपील नहीं की. जबकि जाटव-दलित समीकरण की वजह से बसपा इस क्षेत्र में मजबूत रही है. मायावती ने अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा करके क्या यह संकेत दिया है कि भाजपा को हराने के लिए वह विपक्ष का साथ देंगी? इस उपचुनाव में भीम सेना ने विपक्ष का साथ दिया. चंद्रशेखर आजाद रावण के नेतृत्व वाली इस सेना का उदय कुछ महीने पहले ही हुआ है. आजाद ने लिखित में लोगों से अपील की कि वे विपक्ष का साथ दें. उनकी मां ने इस संदेश का प्रचार-प्रसार कैराना में किया. कांग्रेस पार्टी ने भी अपना उम्मीदवार नहीं दिया और अखिलेश यादव ने प्रचार नहीं किया. माना जा रहा था कि अगर वे प्रचार करेंगे तो मुस्लिमों के पुराने घाव हरे हो जाएंगे क्योंकि इन्हें लगता है कि 2013 के दंगों में बतौर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई.

कैराना सीट लोकदल को दी गई. उसकी उम्मीदवार तबस्सुम बेगम उस राजनीतिक परिवार से हैं जिसका संबंध भाजपा को छोड़कर हर पार्टी से रहा है. उन्हें उम्मीदवार बनाकर विपक्ष और खास तौर पर लोक दल ने दो संकेत दिएः पहला यह कि इस धारणा को तोड़ा जाए कि मुस्लिम उम्मीदवार से मुस्लिम मत तो गोलबंद होते हैं लेकिन हिंदू वोट भी दूसरी तरफ गोलबंद हो जाते हैं और दूसरा संकेत यह कि तबस्सुम बेगम को उम्मीदवार बनाकर लोक दल ने यह संकेत दिया कि वह सिर्फ जाटों की पार्टी नहीं है. हार के बावजूद दोनों सीटों पर भाजपा को अच्छे-खासे वोट मिले जिससे यह पता चलता है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में वह मजबूत है.

अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चैधरी ने घर-घर जाकर प्रचार किया. उन्होंने राष्ट्रीय के बजाए स्थानीय मुद्दों को तरजीह दिया. उन्होंने किसानों के गुस्से को मुद्दा बनाया जिन्हें गन्ने का बकाया नहीं मिला था. भाजपा ने 2017 के घोषणापत्र में यह कहा था कि उत्पाद बेचने के 14 दिनों के अंदर किसानों को पैसे मिल जाएंगे. इसे क्रांतिकारी नीति बताया जा रहा था. हालांकि, इसका प्रावधान 1953 के गन्ना संबंधित पुराने कानून में भी है. 2017-18 में 23,319 करोड़ रुपये के बकाये में से चीनी मिल वाले किसानों को 6,691 करोड़ रुपये का बकाया नहीं चुका पाए हैं. लोकदल ने नारा दियाः गन्ना या जिन्ना? भाजपा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में लगी अली जिन्ना की तस्वीर को मुद्दा बनाने की कोशिश की थी.

अभी गणित तो उत्तर प्रदेश में गैर-भाजपा विपक्ष के अनुकूल है. लेकिन अगर विपक्ष को केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार की विफलताओं को ठीक से लोगों के सामने लाना है तो उसे साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करना होगा. इसमें पुराने अंतर्विरोध शामिल होंगे. जैसे जाटों, यादवों और गुर्जरों तक जमीन का स्वामित्व सीमित होना. वहीं दलित अब भी हाशिये पर हैं. बहुत कुछ मायावती के रुख पर भी निर्भर करेगा. विपक्ष के लिए यह भी चुनौती होगी कि वह कैसे हिंदुत्व के मसले को चुनावी चर्चाओं से दूर रखे.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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