भारत बंद पर कुछ बातें
शशिभूषण | फेसबुक : कल के भारत बंद के बारे में कुछ बातें : 1. कल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों ने भारत के उच्चतम न्यायालय के एक फ़ैसले जिसमें SC/ST अधिनियम में संशोधन कर दिया गया है के विरोध में अखिल भारतीय बंद का आयोजन किया.
2. इस भारत बंद की तैयारी माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद ही शुरू हो गयी थी. व्यापक पैमाने पर अधिक से अधिक लोगों को इस बंद में शामिल होने एवं इसे सफल बनाने के लिए न केवल जागरूक किया गया बल्कि उनसे लगातार अपील की गयीं. इसके लिए सोशल मीडिया का जमकर प्रयोग किया गया.
3 . दलितों के इस आह्वान के जवाब में यानी बंद को असफल करने के लिए कुछ दूसरे नाम चीन संगठन के लोगों ने भी अभियान चलाया. उन्होंने सोशल मीडिया के इस्तेमाल से लगातार यह अपील की कि कोर्ट का संशोधन उचित है. इस एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है. भारत के सवर्ण समुदाय को संबोधित ऐसे संदेशों में यह कहा गया कि इस बंद का प्रतीकात्मक ही सही विरोध अवश्य करें यानी घरों से निकलें बंद को असफल बनाएं.
4 . मेरी जानकारी में यह पहली बार था जब किसी भारत बंद के विरोध में इतनी सक्रियता दिखी. अनुभवी लोग हो सकता है जानते हों कि यह आपसी विरोध भी होता ही है.
5. जिस एक्ट के बारे में भारत बंद आयोजित किया गया उसके बारे में एक बात कॉमन है. भारत के दलित संगठनों का मानना है कि कोर्ट का यह फैसला एक्ट को कमज़ोर करेगा. भारत की मौजूदा सरकार भी इस बात से सहमत है और उसके द्वारा उच्चतम न्यायालय में एक पुनर्विचार याचिका भी दाख़िल की जा चुकी है कि कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार हो. कह सकते हैं कि इस बिंदु पर दलित संगठन और सरकार एकमत हैं या कम से कम एकमत दिखते हैं. लेकिन यहीं यह समझ से परे है कि वे लोग कौन हैं जो सरकार को समर्थन भी देते रहे और इस बंद का विरोध भी करते रहे.
6. कल दिन भर ऐसी खबर आती रहीं कि बड़े पैमाने पर देश भर में तोड़ फोड़, हिंसा, आगजनी होती रही. सार्वजनिक संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया गया. अलग अलग गुटों ने परस्पर मारपीट की. पुलिस को भी आक्रामक रुख अपनाना पड़ा एवं मिली जुली हिंसा में कई लोगों की जान गयी.
7. एक बात समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि जब एक पक्ष बंद आयोजित करे और दूसरा पक्ष उसको असफल बनाने की सक्रिय कोशिश करे तो पुलिस प्रशासन और अमन पसंद लोगों के लिए हिंसा रोकना असंभव जैसा हो सकता है. ख़ासकर तब और जब सरकार के समर्थक और विरोधी मिले जुले प्रतीत हों. ऐसी स्थिति में जब सरकार ख़ुद कोर्ट के फैसले के विरोध में हो और सरकार के प्रबल समर्थक दलित संगठनों के विरोध में हों तब हिंसा कैसे न हो यह सोचने लायक विश्लेषण भारत में तेज़ी से कम हो रहे हैं. व्यवस्था और लोगों का यह द्वंद्व उपद्रव को ही जन्म दे सकता है खासकर तब और जब भारतीय राष्ट्रवादी मीडिया हाथ सेंकने के लिए ही टीवी की डिजिटल आग लगाता हो.
8. कल के भारत बंद के दौरान सब तरह के लोग तो सक्रिय थे ही आरक्षण विरोधी ताक़तवर संगठित अभियानी लोग विशेष सक्रिय दिखे. इन्होंने लगातार यह बहस चलाये रखी कि आरक्षणवादियों को प्रश्रय नहीं देना चाहिए. आरक्षण खत्म होना चाहिए. आरक्षणवादियों के आंदोलनों की हिंसा देश को खत्म कर देगी. बहुत हो गया अब आरक्षण को कोई जगह न हो. संभव हो आप लोगों में से भी किसी को इन आरक्षण विरोधियों और कथित तटस्थ तथा शास्वत चिंतकों ने दौड़ाया हो. यह भी संभव है कि आप अचरज से भर गए हों कि आंदोलन और बंद एससी- एसटी एक्ट पर आए फैसले को लेकर है मगर ये लोग आरक्षण विरोध का सांस्कृतिक राष्ट्रवादी ढोल लेकर क्यों बैठ गए !
9. भारत बंद के समाचारों के बीच ही अरविंद केजरीवाल के फिर यानी इस बार भारत के वित्तमंत्री अरुण जेटली से माफ़ी मांगने की ख़बर आयी और इराक से भारतीयों के शव वापस आने की खबर भी आयी. अरविंद केजरीवाल पर तो प्रायोजित कार्टून ही दिखा टीवी में मगर बहुत दिनों बाद भारतीय सेना के पूर्व जनरल वीके सिंह टीवी पर बाक़ायदा बोलते हुए दिखे.
10 . कल फिर प्रगतिशीलों को बेशुमार गालियां पड़ीं. कवियों को कलंकित किया गया. वक्तव्य जारी करनेवाले लेखक संगठनों के पदाधिकारियों को जातिसूचक अपशब्द सुनने को मिले. कल फिर नौकरीपेशा शांत लोगों को कोंचा गया. कल फिर दिलीप मंडल और रवीश कुमार को अनगिन लोगों ने बुरा भला कहा. कल फिर कुछ लोगों ने अपनी विक्षिप्तता ज़ाहिर करने के साथ ही कई बार स्टेटस लिख लिखकर साफ़ कर दिया कि हम अपनी नासमझी में किसी के सगे नहीं हैं. कल कुछ लोगों ने बंद के समर्थन में खुलकर लिखा. कुछ लोगों ने बंद का विरोध करने के लिए भोलेपन से बताया कि अपनी ट्रेन लेट हुई पड़ी है, घरों में नल नहीं आया, बच्चों को परीक्षा देने जाने में असुविधा हुई और पूरे देश को दलितों की हिंसा से भयानक भय लगता रहा. कल फिर अंजना ओम कश्यप टीवी में अपने चिर परिचित अंदाज़ में नाकामयाब चीखती रहीं. कल फिर उनके चेहरे में सामान्य विवेक खोकर व्यर्थ होते जाने की खीझ दिखी.
कुल मिलाकर कल का बंद कई कोण से ऐतिहासिक रहा. इसकी गूंज बहुत दूर तक जाएगी. हिंसा एवं जान माल के नुकसान का समर्थन किसी भी हाल में नहीं किया जा सकता लेकिन कल के दलितों के देशव्यापी आंदोलन ने यह साबित कर दिया कि भारत का दलित अब टीवी और अखबार यानी मीडिया के सपोर्ट के बिना सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरने लायक दूरदर्शी और संगठित हो चुका है. यह एक बड़ी सामाजिक चेतना की मुनादी है. आगे देखना केवल यह होगा कि हिंसा चाहे प्रायोजित हो या परिस्थितिजन्य यदि वह आंदोलन में घुसती है तो लक्ष्य कभी हासिल नहीं हो पाते.
भविष्य में भारत के दलित यदि हिंसा के बिना ऐसा कोई बड़ा आंदोलन करने की रणनीति बनाकर उसमें सफल होते हैं तो माना यही जाएगा कि भारत को बदलने से कोई रोक नहीं पायेगा. भारत को आज विकास से भी अधिक आवश्यकता संविधान के दायरे में खुद को न्यायोचित ढंग से आमूल बदलने की ही है. संविधान बदलने की चालाक कोशिशों का जवाब अहिंसक आंदोलन ही हो सकते हैं.