शंकराचार्य की बात
छत्तीसगढ़ पहुंचे हुए एक शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने कहा कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं क्योंकि वे दूसरे धर्म को अपना लेते हैं. उन्होंने कहा कि जो हिन्दू हैं वे कभी दूसरा धर्म नहीं अपना सकते. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि भारत के लिए आज सबसे बड़ा खतरा संस्कृति की रक्षा न करना है. लोगों को चूंकि इस देश की संस्कृति का ज्ञान नहीं है इसलिए महिलाओं के साथ अत्याचार, चोरी, भ्रष्टाचार, कत्ल, जैसे पाप हो रहे हैं. जिस दिन संस्कृति का ज्ञान हो जाएगा देश से खतरा हट जाएगा.
शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के छत्तीसगढ़ में बड़े भक्त हैं, और वे हर कुछ महीनों में यहां आते ही हैं. धर्म की गद्दी पर रहते हुए भी उनकी एक राजनीतिक विचारधारा बड़ी मुखर है, और कई लोग उन्हें कांग्रेसी शंकराचार्य भी कहते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि देश में कई दूसरे स्वघोषित संत या साधू के चोगे में घूमते लोग खुलकर भाजपा का साथ देते हैं. लेकिन राजनीतिक रूझान किसी की सोच को पूरी तरह तब्दील कर दे ऐसा भी नहीं होता. आदिवासियों के बारे में शंकराचार्य ने जो कहा है उसका एक सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी है, जिसे समझने की जरूरत है. स्वरूपानंद सरस्वती ने मिसाल तो आदिवासियों की दी है, लेकिन यह भी कह दिया है कि जो लोग दूसरा धर्म अपनाते हैं, वे हिन्दू नहीं हो सकते.
जैसा कि धर्म की गद्दी पर काबिज किसी भी दूसरे हिन्दू ब्राम्हण से उम्मीद की जाती है, स्वरूपानंद सरस्वती ने भी दलितों और आदिवासियों के बारे में ही मोटे तौर पर यह बात कही है क्योंकि ये ही दो तबके हिन्दू धर्म छोड़कर दूसरे धर्म अपनाने की तोहमत पाते हैं. यहां यह याद रखने की जरूरत है कि आदिवासियों के अपने धार्मिक रीति-रिवाज हिन्दू धर्म के पैदा होने के भी दसियों हजार साल पहले से चले आ रहे हैं, और एक वक्त उनको हिन्दू मानकर उनका शोषण करने की कोशिश हुई थी, और आज जब वे हिन्दू धर्म को न मानकर ईसाई बन रहे हैं, या कोई दूसरा धर्म अपना रहे हैं, तो शंकराचार्य ने गैरहिन्दू करार देकर यह साबित करने की कोशिश की है कि हिन्दू अगर कोई होता तो वह धर्म बदलता ही नहीं.
उनकी इस बात ने हमको धर्म छोडऩे या धर्म अपनाने पर चर्चा का सामान जुटा दिया है. जब हिन्दुओं को अपनी गिनती बढ़ाने की जरूरत लगी, और एक ऐसे तबके की जरूरत हुई जो कि धर्म की मशीन का पुर्जा बना देने पर उसके बोझ को ढोने के लिए एकदम माकूल दिख रहा था, तो उन्होंने दलितों और आदिवासियों को हिन्दू मान लिया. हिन्दू के अलावा हिन्दू धर्म के भीतर जो जाति व्यवस्था का हिंसक ढांचा था, उसने दलितों और आदिवासियों को पैरों के जूते बनाकर जूते बनाने और जूते ढोने के काम में लगा दिया. धर्म को ताकतवर तबके के हाथों कमजोर तबके के शोषण के औजार के रूप में ही गढ़ा गया था, और धर्म के ढांचे में, धर्म के दायरे में इनको लाए बिना इनका शोषण मुमकिन नहीं था. इसलिए इनको हिन्दू माना गया, और दबाकर, कुचलकर इनको सवर्ण होने का दावा करने वाली दूसरी जातियों का बोझ, और उनका मैला ढोने में भी लगाया गया.
आजाद भारत में जब कानून ने दलितों और आदिवासियों को थोड़े से कागजी हक दिए, तो दलितों ने बौद्ध होना शुरू किया, कहीं-कहीं वे मुस्लिम भी हुए. इसके पहले अंग्रेजों के यहां आने पर बहुत से आदिवासी ईसाई बने, और चूंकि राजा का धर्म ही परंपरागत रूप से प्रजा का धर्म माना जाता है, इसलिए मुगलों के वक्त भी बहुत से दलित मुगल बन गए. इसकी एक और बड़ी वजह यह थी कि हिन्दू धर्म के सनातनी और मनुवादी ढांचे में दलितों और आदिवासियों के लिए इज्जत की कोई जगह नहीं थी, इसलिए जब मुस्लिम और ईसाई शासकों ने दलितों को अछूत नहीं माना, तो उसने शायद पहली बार इस तबके को एक गौरव का मौका दिया, एक हीनभावना से उबरने का मौका दिया, और अपने आपको इंसान पाने का एक एहसास कराया.
लेकिन अब जो दलित या आदिवासी दूसरे धर्म में जा रहे हैं, उनको शंकराचार्य हिन्दू मानने से ही इंकार कर रहे हैं, जाने के बाद में ही, जाने के पहले से ही. धर्म की गद्दी से सामाजिक हकीकत और इंसाफ की कोई उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती, इसलिए शंकराचार्य की बात सुनकर अधिक हैरानी नहीं होती. लेकिन खुद हिन्दू धर्म के हितों के यह बात खिलाफ जाती है कि उसके भीतर सबसे दबकर रहने वाले, और उसकी गिनती खासी बढ़ाने वाले समुदायों को अब हिन्दू धर्म से परहेज होने लगा है, चाहे वे कभी उसने औपचारिक रूप से रहे हों, या न रहे हों, और महज उसमें गिने गए हों.
दलित या आदिवासी का हिन्दू धर्म से परे किसी दूसरे धर्म में जाना धर्मांतरण हो या न हो, वह किसी न किसी गैरहिन्दू धर्म की गिनती और उसकी ताकत बढ़ाने की बात तो है ही. हिन्दू धर्म को जो लोग महज सनातनी, सवर्णी, और ब्राम्हणवादी बनाकर चलना चाहते हैं, वे दूसरे धर्मों के हाथ मजबूत कर रहे हैं. इसमें हमको कोई नुकसान नहीं दिखता क्योंकि जो धर्म एक साजिश के तहत ऐसा करता हो कि जिनको अपना गिने उन्हीं को कुचले, तो वह धर्म धिक्कार और धक्के के लायक ही है, और आज हिन्दू धर्म अपने आपको ऐसा ही साबित कर रहा है. हिन्दू गद्दियों पर बैठे हुए लोग, हिन्दू रंग को पहने हुए अपने आपको साधू-संत कहते हुए लोग, इन लोगों ने हजारों बरस से दलित-आदिवासियों के चले आ रहे रीति-रिवाजों को कुचलने की जो कोशिश की है, उसके बाद ये तबके अगर अपने आपको हिन्दू धर्म से परे का कहना और मानना शुरू नहीं करेंगे, तो यह उनका ही नुकसान होगा. ऐसा धर्म जो संगठित रूप से लगातार किन्हीं तबकों का शोषण करे, वह धर्म उन तबकों की निष्ठा और आस्था का हकदार भी नहीं हो सकता. इसलिए यह बात अच्छी ही है कि शंकराचार्य जैसे लोग अपनी सोच को खुलकर, और अधिक मौकों पर बता रहे हैं. इससे दलितों और आदिवासियों को अपनी आस्था के संगठन चुनने की जरूरत भी महसूस भी होगी, और आसानी भी होगी.
अत्याचारी शोषक को झटका देने के लिए सामाजिक जागरूकता की जरूरत होती है. महाराष्ट्र में दलितों ने एकमुश्त बौद्ध होकर यह दिखाया है. दक्षिण के कई राज्यों में दलित मुस्लिम बने हैं, और ईसाई भी. आदिवासियों ने भी देश भर में बहुत सी जगहों पर ईसाई बनकर यह जाहिर कर दिया है कि वे या तो कभी हिन्दू थे ही नहीं, या फिर उन्होंने हिन्दू धर्म को छोड़ दिया है. दलित-आदिवासी का गैरहिन्दू धर्म अपनाना, हो सकता है कि किसी दिन जाकर हिन्दू गद्दियों को अक्ल दे सके, उन्हें सामाजिक हकीकत का अहसास करा सके. लेकिन अगर ऐसा न हो सका, तो जिस तरह हिन्दुस्तान में सबसे पुरानी और सबसे बड़ी कांग्रेस पार्टी सिमटते हुए अब जरा सी रह गई है, उसी तरह सबसे पुराना और सबसे बड़ा हिन्दू धर्म भी सीमित रह जाएगा.
हो सकता है कि इसमें हजार-पांच सौ बरस लग जाएं, लेकिन लोकतंत्र और शहरीकरण के विकास के साथ, टेक्नालॉजी के विकास के साथ अब जुल्म और ज्यादती से कोई धर्म चल नहीं सकता. धर्म का ढांचा वैसे तो अलोकतांत्रिक ही होता है, लेकिन लोगों की विकसित होती राजनीतिक समझ, और उनकी लोकतांत्रिक-अधिकारों की चाह उन्हें ऐसे तमाम धर्मों से दूर ही ले जाएगी. कुल मिलाकर यह कि दूसरे धर्मों में जाने वाले आदिवासियों को शंकराचार्य अगर यह कह रहे हैं कि वे कभी हिन्दू थे ही नहीं, तो वे आज इक्कीसवीं सदी में भी पिछले सैकड़ों या हजारों बरस के शोषण को समझने-मानने से इंकार ही कर रहे हैं. यह बात उनके अपने धार्मिक शिक्षण-प्रशिक्षण के हिसाब से एकदम सही है क्योंकि वे शोषण के एक ढांचे का एक हिस्सा हैं, सबसे ऊपर का हिस्सा.