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सुरुज बाई खांडे होने का मतलब

बिलासपुर | संवाददाता: सुरुज बाई खांडे ने 6 दिन पहले ही तो कहा था- मैं भले मर जाउं, भरथरी जिंदा रहनी चाहिये. जब सुरुज बाई भरथरी गाती थीं तो जैसे काल भी घड़ी दो घड़ी ठहर जाता था-सुनिले मिरगिन बात/ काल मिरगा ये राम/ मोला आये हे ओ/ एक जोगी ये न/ ओ कुदवित है ओ. भरथरी को जैसे वे जीती थीं.

पिछले सप्ताह जब उनसे रिकार्डेड बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि गायिकी से उन्हें बड़ी ताकत मिलती है. कुछ साथी कलाकार भी अब इस दुनिया में नहीं है, सबकी याद आती है. हमने उनसे कुछ गाने का अनुरोध किया, देखा, भरथरी गाते हुए सुरुज बाई की पलकें भीग जाती हैं. कई बार तो ऐसा लगता है कि सुरुज भरथरी की शोक कथा गाते हुए अपना दर्द बयान कर रही हों. मंच नहीं मिलने की वजह से अकेलापन महसूस होता है लेकिन वे लोगों को भरथरी गाकर सुनाना और सिखाना चाहती थीं. लेकिन उनकी यह इच्छा अब कभी पूरी नहीं होगी.

भरथरी की महान गायिका सुरुज बाई खांडे का शनिवार की सुबह हृदय गति रुकने से निधन हो गया. 6 दिन पहले एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि भले ही वे इस दुनिया में न रहे लेकिन भरथरी गायन हमेशा जीवित रहना चाहिए. यही उनकी एकमात्र और अंतिम इच्छा है. उनके पति लखन खांडे के मुताबिक मौत के अंतिम क्षणों में भी सुरुज ने यही बात दोहराई. 69 वर्ष की आयु में भी उनमें गाने का वहीं जुनून और दम खम था तभी तो उन्होंने सरकार से कार्यक्रम देने का आग्रह किया था.

बिलासपुर जिले के बिल्हा ब्लॉक के हिर्री के पास ग्राम पौंसरी में पैदा हुई सुरुज बाई खांडे ने महज सात साल की उम्र में अपने नाना रामसाय धृतलहरे से भरथरी, ढोला-मारू, चंदैनी जैसी लोक कथाओं को सीखना शुरू किया. जब बड़ी हुई कुछ साथियों के साथ सुरमोहिनी लोक गायन समिति बनाई. सबसे पहले रतनपुर मेले में गाने का मौका मिला. इसके बाद मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद ने उनके हुनर को पहचाना और वे 1986-87 में सोवियत रूस में हुए भारत महोत्सव का हिस्सा बनीं. वे भारत महोत्सव में बड़ी कलाकार के तौर पर पेश की गईं थी.

2000-01 में सुरुज को मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने देवी अहिल्या बाई सम्मान तो बाद में दाऊ रामचंद्र देशमुख और स्व. देवदास बंजारे स्मृति पुरस्कार मिले. अविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री रहे बीआर यादव ने एसईसीएल से सुरुज की नौकरी के लिए सिफारिश की. वह पढ़ी-लिखी नहीं थी,इसके बावजूद एसईसीएल ने उन्हें कल्चरल आर्गनाइजर बनाया. हालांकि उनकी अशिक्षा उनके तरक्की के आड़े आई. लेकिन सुरुज ने इस बात की भी परवाह नहीं की. इतनी बड़ी लोकगायिका होने के बावजूद जो भी जिम्मेदारी दी गई, उसका पूरी तरह पालन किया. कई बार कार्यक्रमों में जाने के मौके भी गंवा दिए.

2009 में वे एसईसीएल से रिटायर हो गईं और पेंशन से उनका जीवन बसर हो रहा थी. वे शहर से लगे ग्राम पंचायत बहतराई में रहती थीं. इस मकान के एक कमरे में उनकी साधना अंतिम दिनों तक जारी रही. उन्हें बड़े कार्यक्रमों में शिरकत किए जमाना हो गया लेकिन आज भी वे ऐसे तैयार होती थीं, जैसे बस किसी मंच पर जाना हो.

उन्हें तो इस बात की चिंता रहती थी कि कहीं उनकी मौत के साथ भरथरी गायन विलुप्त न हो जाए. कुछ लोग गा रहे हैं लेकिन उन्हें न तो पूरी कथा आती है और न ही वे पूरी शिद्दत के साथ गा ही पा रहे हैं. कुछ लोग सीखने आए लेकिन बीच में ही चले गए. सुरुज की जिंदगी भी राजा भतृहरि के जिंदगी की तरह ही दुख से अछूती नहीं रही. उनके दो बेटे थे, जो असमय ही इस दुनिया से गुजर गए. उनकी मौत से सुरुज को गहरा दुख हुआ लेकिन वह टूटी नहीं.

पिछले सप्ताह हुई बातचीत में उन्होंने अपनी मौत को लेकर चर्चा की और कहा कि दुख होता है कि कहीं मेरे बाद भरथरी गाने वाले ही न बचें. उनके पति ने भी यह कहा था कि अब उम्र हो चली है. सरकार कार्यक्रम नहीं दे रही है और न ही सम्मान. कई लोगों को पद्मश्री मिल गया गया लेकिन सुरुज को नहीं. कई बार आवेदन और चार बार मुख्यमंत्री से मिलने के बावजूद भी ध्यान नहीं दिया गया. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी घर तक आए थे. उन्होंने सत्ता में आने पर सम्मान दिलाने का आश्वासन दिया था. लेकिन अब सुरुज बाई खांडे इन सब के लिये हमारे सामने नहीं हैं.

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