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आलू उगाने वाले किसान क्या करें?

देविंदर शर्मा
मैं आलू को लेकर पिछले 25 बरसों से लगातार एक ही बात देख रहा हूं.हर बार जब आलू की पैदावार ज्यादा हो जाती है तो अखबारों के संपादकीय लेखों में किसानों को सुझाव दिए जाते हैं कि कम दाम में सीधे-सीधे आलू बेचने की जगह उसके स्वरूप में परिवर्तन करके बेचें. किसानों को सुझाया जाता है कि सड़कों पर आलू फेंकने की जगह उनसे आलू के चिप्स बनाएं, फ्रेंच फ्राईज़ बनाएं. कई बार तो वोदका बनाने के प्लांट लगाने तक की सलाह दी जाती है.

मुझे मालूम है कि अखबारों में संपादकीय कैसे लिखे जाते हैं, इसलिए मुझे इनसे कुछ बेहतर की उम्मीद नहीं है. यह बरसों से चली आ रही परंपरा है कि अखबार की लाइब्रेरी से पिछले अंकों में छपे संपादकीय निकाल लिए जाएं, उन पर एक उड़ती सी नजर डाली जाए, इसके बाद जो समाधान बरसों से सुझाए जा रहे हैं उन्हें ही दोहरा दें. संपादकीय लेख लिखने वाले लेखक ने कभी भी बाजार में जाकर नहीं देखा कि पहले ही से आलुओं के चिप्स से भरे बाजार में क्या कोई नई संभावना है? फ्रेंच फ्राइज़ फ्रीज़ किए हुए आयात किए जाते रहे हैं और वोदका बनाने वाली डिस्टलरी को 200 टन से ज्यादा आलुओं की जरूरत नहीं पड़ती.

मैं पिछले लगभग 15 वर्षों से देख रहा हूं कि बाजार में कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने जैसी सुविधाओं की मांग तेजी से बढ़ी है. कोल्ड स्टोर बनाने के लिए बड़ी मात्रा में सब्सिडी दी गई. इसके पीछे तर्क दिया गया कि किसानों को अपनी फसल तुरंत बेचने से बचना चाहिए, उन्हें कुछ समय रूकना चाहिए ताकि बेहतर कीमत मिल सके. पर यह भी नहीं हो सका. इतने बरसों में यूपी में कुल भंडारण क्षमता 120 लाख टन ही निर्मित हो पाई जो कि 2016-18 की रिकॉर्ड 155.63 लाख टन पैदावार का 80 फीसदी ही है. सवाल यह है कि इसके बाद भी किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत क्यों नहीं मिल पाई?

आलू का उत्पादन करने वाले चार बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और पंजाब से हमें निराशाजनक तस्वीर मिलती है. किसान कोल्ड स्टोर से अपने आलू नहीं उठा रहे हैं, कोल्ड स्टोर के मालिक आलू की इन बोरियों को बाहर फेंक रहे हैं ताकि नई चीजों के लिए जगह बन सके. किसान अपने आलू निकालने में इसलिए हिचक रहे हैं क्योंकि उन्हें बाजार में 50 किलो की बोरी के बदले महज 100 रूपये मिल रहे हैं, जबकि इसी एक बोरी आलू का कोल्ड स्टोर का किराया 150 रूपये है. जालंधर, पंजाब में कोल्ड स्टोर के मालिक जस्सा सिंह ने मीडिया को बताया, मुझे 1.5 करोड़ रूपये का घाटा हुआ है. आलू के किसान पूरा किराया नहीं दे रहे हैं क्योंकि कोल्ड स्टोर में रखे आलुओं के लिए उन्हें ग्राहक नहीं मिल रहे हैं.

जालंधर में ही एक और कोल्ड स्टोर के मालिक सतनाम सिंह ने बताया कि उन्हें 7000 बोरियों फेंकनी पड़ीं. सतनाम कहते हैं, ‘किसान और कोल्ड स्टोर के मालिक, जोकि खुद आलू भी पैदा करते हैं, दोनों ही आर्थिक रुप से बदहाल हो चुके हैं. नोटबंदी के बाद से उन्हें कोई राहत नहीं मिली है.’ आलू का कारोबार नकदी पर ही चलता था, नोटबंदी की वजह से उन्हें साल भर कोई खरीदार नहीं मिला. बहुत से कोल्ड स्टोर मालिकों को लगता है कि उपज का सिर्फ कुछ हिस्सा ही बिक पाया है. ये लोग नई फसलों से उम्मीद लगाए बैठे हैं. असल में, आलू की अधिकता ने किसानों को पिछले तीन वर्षों से निराशा की भंवर में फंसा रखा था. नोटबंदी ने हालात को और बिगाड़ दिया. तीन साल पहले एक किलो आलू की कीमत 8-9 रूपये थी, 2015-16 में यह 6-7 रूपये हुई, और 2016-17 में 2 से 3 रुपये रह गई .

निरंतर गिरती आय का आलू उत्पादक किसानों के परिवारों पर क्या असर पड़ रहा है, इसकी जानकारी आम जनता को नहीं है. मीडिया और एक्सपर्ट आलू की बहुतायात, इसके नतीजे में आलुओं का फेंका जाना, अधिक उत्पादन के वर्षवार आंकड़े, कम कीमत, खाद्य कुप्रबंधन पर बातचीत करते रहते हैं लेकिन आलू किसानों के परिवार किस बदहाली से गुजर रहे हैं इसकी जानकारी किसी को नहीं है. कांग्रेस पार्टी के एक कार्यकर्ता ने मीडिया को बताया, एक किसान ने चार्टर्ड अकाउंटेंसी करने वाले अपने लड़के की पढ़ाई छुड़वा दी. बहुतों की शादी टल गई है. पश्चिमी यूपी के बहुत सारे किसानों की आजीविका का एकमात्र साधन आलू और गन्ना है. अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो पश्चिमी यूपी को बुंदेलखंड बनने में देर नहीं लगेगी.

नाराज किसानों का हाईवे पर आलू, टमाटर और प्याज फेंकने की घटना अखबारों की सुर्खियों के लिए तो अच्छा मसाला दे देती हैं, लेकिन क्या आपको याद है कि कभी कृषि मंत्री तुरंत एक्शन में आए हों और इस समस्या के समाधान के रुप में तुरंत राहत दी हो या कोई स्थायी समाधान सुझाया हो. अगस्त 2015 में जब स्टॉक मार्केट क्रैश हुआ था उस समय वित्त मंत्री अरूण जेटली ने बाजार को भरोसा दिलाया था कि सरकार हालात पर नजर रखे हुए है, उन्होंने घटना का कारण वैश्विक वजहों को बताया. इसके बाद उन्होंने दिन में एक प्रेस वार्ता करके मामले पर नजर रखने के लिए एक ग्रुप भी बनाया था. लेकिन जब किसानों की बात आती है, और वह भी जब साल दर साल कीमतें गिर रही हैं, बात आई, वह भी साल दर साल कीमतें कम होने का मुद्दा, तब मैंने कभी नहीं देखा कि वित्त मंत्री मुसीबत में फंसे किसानों की मदद के लिए आगे आए हों.

चीनी का ही मामला लीजिए. इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (आईएसएमए) ने इस साल चीनी उत्पादन में 10 लाख टन की बढ़ोतरी का अनुमान लगाया है. चीनी की कीमतें गिरने से रोकने के लिए बड़े पैमाने पर लॉबिंग शुरु हो गई है क्योंकि इससे मिलों की हालत खराब हो जाएगी. इसके लिए सब्सिडी पर चीनी निर्यात करने और आयात दरों को बढ़ाने का शोर मचने लगा है. यहां एक चीज साफ करने की जरुरत है. यह कवायद इसलिए नहीं हो रही है कि कम कीमतों का बुरा असर गन्ना किसानों पर पड़ेगा बल्कि यह चिंता इसलिए है कि इससे चीनी मिलों को नुकसान होगा.

प्राथमिकताएं एकदम स्पष्ट हैं. सरकार के एजेंडे में स्टॉक मार्केट और एग्रीबिजनेस इंडस्ट्री सबसे ऊपर हैं. किसानों का क्या होगा इस सवाल को कभी उच्च प्राथमिकता नसीब नहीं हुई. इसे प्रकृति के चक्र के तौर पर देखा जाता है जिससे भारतीय कृषि समय-समय पर प्रभावित होती है. यह माना जाता है कि किसान अनजाने ही इस दुष्चक्र में फंसे हुए हैं. मुझे पता है कि आलू संकट में इतनी क्षमता नहीं है कि वह किसी चुनी हुई सरकार को गिरा सके पर इसका यह भी मतलब नहीं कि सरकार किसानों की दुरावस्था की तरफ से उदासीन बनी रहे.

आलू उगाने में एक किसान ने जो मेहनत की वह कीमतों के अप्रत्याशित रुप से गिरने के कारण बर्बाद हो गई. अर्थशास्त्री इसकी व्याख्या सप्लाई और डिमांड के नजरिए से कर सकते हैं लेकिन यह सवाल तो जस का तस है कि उस किसान की क्या गलती है जिसने आलू की खेती में अपनी पूंजी लगाई?
*लेखक जाने-माने कृषि और खाद्य विशेषज्ञ हैं.

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