2 जी यानी भ्रष्टाचार जो मिट गया
2जी घोटाले से संबंधित मामले में सभी अभियुक्तों को सबूत के अभाव में बरी किया जाना हैरान करने वाला है. इससे भी ज्यादा हैरानी इस बात की है कि बहुत कम वक्त में यह मामला लोगों की याद से ओझल हो गया. दस साल से भी कम वक्त हुआ जब 2जी स्पेक्ट्रम का आवंटन पहले आओ और पहले पाओ की नीति पर हुआ था. इस पर काफी विवाद हुआ.
विभिन्न दूरसंचार कंपनियों को देश भर में टेलीफोन सेवा बेहतर करने के लिए 122 लाइसेंस जारी किए गए. उस वक्त देश दूरसंचार क्रांति के मुहाने पर खड़ा था. लेकिन यह पूरा मामला कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के भ्रष्टाचार का प्रतीक बन गया. 1.73 लाख करोड़ रुपये के संभावित नुकसान के आंकड़े ने एक तरह से उस सरकार के पतन की पटकथा लिखने की शुरुआत कर दी.
जो आरोप लगे थे, वे जगजाहिर हैं. संप्रग सरकार ने अपने पसंद के कंपनियों को बाजार भाव से काफी कम पर स्पेक्ट्रम दे दिए थे. आरोप लगा कि इसके लिए सरकार में बैठे लोगों ने पैसे लिए. इससे सरकारी खजाने को नुकसान हुआ. कुछ लोगों ने यह नुकसान 20,000 करोड़ रुपये आंका तो सीएजी विनोद राय ने इसे 1.73 लाख करोड़ रुपये आंका. माना गया कि सरकार के इस कदम से दूरसंचार कंपनियों को भारी मुनाफा हुआ.
डीएमके के ए. राजा मुख्य अभियुक्त थे. लेकिन आरोपों की आंच उनकी पार्टी और कांग्रेस के अन्य नेताओं से होते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंची. लाइसेंस देने का निर्णय लेने में मनमर्जी चलाने और अपने पसंद के लोगों के तरजीह देने की बात तो प्राथमिक साक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट हो रही थी. लेकिन नुकसान का जो भारी आंकड़ा आया, उसने इस मामले को और अहम बना दिया. यह मामला संप्रग कार्यकाल में भ्रष्टाचार के स्तर का प्रतीक बन गया और इसके आधार पर लोगों को यह लगा कि भारी रकम बुनियादी ढांचा और गरीबी उन्मूलन जैसे कार्यक्रमों से दूसरे क्षेत्रों में ले जाया जा रहा है.
कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि 2जी मामले में 1.73 लाख करोड़ रुपये के नुकसान के आंकड़े ने नरेंद्र मोदी को लोकतांत्रिक तौर पर चुने गए भारत गणराज्य के सम्राट के तौर पर स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई. ये लोग इसे एक साजिश का हिस्सा भी बताते हैं. ऐसे साजिशों की सत्यता के दावों में गए बगैर इस मामले के राजनीतिक प्रभाव तो बिल्कुल स्पष्ट हैं. इस एक मामले ने कांग्रेस और उसकी सरकार को भ्रष्टाचार की गंगोत्री के तौर पर स्थापित कर दिया. इसी पृष्ठभूमि में इंडिया अगेंस्ट करप्शन जैसे अभियानों को जनसमर्थन हासिल हुआ और लोगों को लगा कि देश की सारी समस्याओं के जड़ में भ्रष्टाचार है. यह माना गया कि गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा और भेदभाव जैसे अन्य सभ समस्याओं का समाधान तब ही हो सकता है जब भ्रष्टाचार खत्म हो जाए.
संप्रग के कार्यकाल में 2जी मामला और भ्रष्टाचार के अन्य मामलों से सीएजी और अदालत जैसी संस्थाओं का राजनीतिकरण हुआ. इन संस्थाओं में भी मीडिया की तरह एक राजनीतिक झुकाव दिखने लगा. इससे लोक नीति के बारे में यह भाव पैदा हुआ कि अगर संसाधनों का आवंटन सरकार को बगैर अधिकतम राजस्व दिए हो रहा है तो वह भ्रष्टाचार का मामला है.
ट्रायल कोर्ट के निर्णय से सर्वोच्च न्यायालय की पवित्रता पर भी सवाल खड़े होते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पेक्ट्रम आवंटन में प्रक्रियागत खामियों को वजह बताते हुए लाइसेंस रद्द कर दिए थे. हालांकि, उस वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि वह सिर्फ प्रक्रिया को देख रही है और ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही पर उसके निर्णय का कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन ऐसा कहना आसान और करना मुश्किल है. ट्रायल कोर्ट ने जो कहा उसका सार यह है कि सीबीआई किसी भी अभियुक्त के खिलाफ कुछ गलत करने का सबूत नहीं दे पाई. इससे मई, 2014 में सत्ता में आई मोदी सरकार पर भी कई सवाल खड़े होते हैं.
मोदी यह कहते थे कि वे जीतेंगे तो भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाएंगे. लेकिन इस मामले में सजा दिलाने में उनकी सरकार की नाकामी से भ्रष्टाचार के मसले पर उनकी राजनीतिक छवि को नुकसान होगा. 2जी मामले में आए निर्णय से मोदी और उनके सहयोगी यह भी नहीं कह पाएंगे कि संप्रग सरकार घोटालों की सरकार थी. बल्कि इस मामले से लोगों में यह संदेश जाएगा कि सरकारें बड़े कारोबारियों और ताकतवर लोगों को बचा लेती हैं. भ्रष्टाचार के इस मामले के गायब हो जाने के बावजूद इस बारे में कोई विवाद नहीं है कि भ्रष्टाचार और सत्ता का दुरुपयोग भारत की राजनीतिक संस्कृति का अहम अंग बना हुआ है. भारत को एक समतामूलक समाज बनाने के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग जरूरी है.
1960 से प्रकाशित इकॉमानिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय