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खतरे में हैं नीलगिरी लंगूर

नई दिल्ली | इंडिया साइंस वायर: भारतीय शोधकर्ताओं ने पश्चिमी घाट के जंगलों में रहने वाले नीलगिरी लंगूर की आंत में परजीवी बैक्टीरिया की तेरह किस्मों का पता लगाया है जो मनुष्य और मवेशियों को संक्रमित करने के लिए जाने जाते हैं. ट्रिच्यूरिस ट्रिच्यूरा के बाद स्ट्रॉन्गलॉयड्स एसपी.नामक परजीवी की मौजूदगी इन लंगूरों की आंतों में सबसे अधिक पायी गई है.

ट्रिच्यूरिस ट्रिच्यूरा एवं स्ट्रॉन्गलॉयड्स एसपी. के अलावा बैक्टीरिया की इन किस्मों में एंटेरेबियस एसपी., ब्यूनोस्टोमम एसपी., गॉन्गिलोनेमा एसपी., ट्राइकोस्ट्रोंगाइलस एसपी., ओएसफैगोस्टोमम एसपी., ऐस्कैरिस एसपी., हाइमेनोलेपिस नाना, स्कीस्टोसोमा एसपी., साइक्लोस्पोरा एसपी., निओबैलेंटिडियम एसपी. और कॉकसीडिया एसपी. शामिल थे.

जनवरी 2014 से सितंबर 2015 के बीच किए गए इस अध्ययन में पश्चिमी घाट पर अन्नामलाई पर्वतमाला के आठ विखंडित वर्षा वनों में रहने वाले नीलगिरी लंगूरों के मल के 283 नमूने एकत्रित किए गए थे. लंगूरों की आंत में मौजूद परजीवियों का पता लगाने के लिए फीकल फ्लोटेशन एवं सेडिमेंटेशन तकनीक से नमूनों का विश्लेषण किया गया है.

अध्ययन में शामिल हैदराबाद स्थित कोशकीय एवं आणवीक जीव-विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक प्रोफेसर गोंविदस्वामी उमापति ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “परजीवी बैक्टीरिया का प्रभाव मानवीय दखल से ग्रस्त वन्य क्षेत्रों में अधिक पाया गया है. इसी तरह मनुष्य एवं मवेशियों की मौजूदगी वाले जंगल के बाहरी हिस्सों में भी इन परजीवियों की मौजूदगी अधिक दर्ज की गयी है. हालांकि लॉयन टेल मकाक की अपेक्षा नीलगिरी लंगूरों पर वन क्षेत्रों के विखंडन का असर नहीं पड़ा है. वैज्ञानिक इसके लिए मानव संशोधित वातावरण में नीलगिरी लंगूरों की जीवित रहने की क्षमता को जिम्मेदार मान रहे हैं.”

पश्चिमी घाट के ज्यादातर सदाबहार वन मानवीय गतिविधियों के कारण बड़े पैमाने पर विखंडित हो रहे हैं. इस कारण जीवों की स्थानीय प्रजातियों को अत्यधिक अशांत वातावरण वाले विखंडित वन क्षेत्रों में रहना पड़ रहा है. इन परिस्थितियों में स्थानीय जीव प्रजातियां विपरीत पर्यावरण दशाओं और जनसांख्यकीय असंतुलन के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं और उन्हें सीमित संसाधनों में रहते हुए बढ़ती प्रतिस्पर्धा एवं अन्य जीवों के आक्रमण का सामना करना पड़ता है.

प्राकृतिक आवास स्थलों के विखंडित होनेके लिए जंगलों में मानवीय दखल के बढ़ने को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है. आवास स्थलों के विखंडित होने से वन्य जीवों का संपर्क मनुष्य एवं पालतू पशुओं से होता है तोउस क्षेत्र में रहने वाली मूल प्रजातियों में संक्रमण, बीमारियों एवं मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है. इसके साथ ही जीवों की आनुपातिक संरचना भी प्रभावित होने लगती है.

अध्ययनकर्ताओं के अनुसार “यह शोध एक दीर्घकालीन अध्ययन का हिस्सा है जिसमें जानने की कोशिश की गई है कि मनुष्य एवं मवेशियों में पाए जाने वाले वे कौन से परजीवी हैं, जो पश्चिमी घाट के नीलगिरी लंगूर जैसे वृक्षीय स्तनधारी जीवों को संक्रमित कर रहे हैं.”सदाबहार वनों में रहने वाला नीलगिरी लंगूर एक लुप्तप्राय जीव है. इसे वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत संरक्षित जीवों की श्रेणी में रखा गया है.

शोधकर्ताओं के अनुसार वनों से छेड़छाड़ और वहां पर पशुओं की चराई पर लगाम लगाया जाना जरूरी है. इसके अलावा वन्य क्षेत्रों के आसपास के इलाकों में रहने वाले मवेशियों को कीटों से मुक्त करना भी आवश्यक है.

प्रोफेसर गोंविदस्वामी के अलावा अध्ययनकर्ताओं की टीम में कोशकीय एवं आणवीय जीव-विज्ञान केंद्रसे जुड़े सुनील तिवारी, डी. महेंदर रेड्डी और मुथुलिंगम प्रदीप्स और हैदराबाद स्थित कॉलेज ऑफ वेटरनरी साइंस के वैज्ञानिक गुब्बी शमान्ना श्रीनिवासमूर्ति शामिल थे.

इस अध्ययन के लिए आर्थिक मदद भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग एवं केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण की ओर से दी गई है.यह अध्ययन हाल में शोध पत्रिका करंट साइंस के ताजा अंक में प्रकाशित किया गया है.

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