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आखिरी अफ्रीकी मुक्तिदाता

जिंबाब्वे के राष्ट्रपति रहे रॉबर्ट मुगाबे के पतन के जश्न में लोग व्यावहारिक सवाल पूछना भी भूल गए. मुगाबे के बाद राष्ट्रपति बने इमर्सन मनांगवा ने आजादी और समृद्धि वाले भविष्य का वादा किया है. उन्हें एक समय के अपने गुरू मुगाबे से ऐसी पार्टी मिली है जो बंटी हुई है और आपसी मतभेदों को बलप्रयोग से निपटने के लिए जानी जाती है.

मुगाबे को इस्तीफा देने का अवसर दिया गया था. सेना उन्हें सम्मानजनक विदाई देना चाहती थी. क्योंकि तकरीबन दो दशक तक मुगाबे ने मुक्तिदाता की छवि के साथ शासन चलाया है. लेकिन मुगाबे इस्तीफा देकर उत्तराधिकार संबंधित मामले में खुद को कमजोर नहीं करना चाहते थे. हाल के सालों में उत्तराधिकार के मसले पर उनका झुकाव उनकी दूसरी और कम उम्र की पत्नी ग्रेस मुगाबे की ओर दिखा था.

मुगाबे को हटाने के लिए जिंबाब्वे की संसद में उनके खिलाफ महाभियोग चलाया गया. मनांगवा का उपराष्ट्रपति पद से हटाए जाने से पूरी प्रक्रिया तेज हो गई. उन्हें कुछ समय तक दक्षिण अफ्रीका में निर्वासित होकर रहना पड़ा. अब जब वे राष्ट्रपति बन गए हैं तो यह सवाल उठता है कि एक बंटे हुए देश में वे सब कुछ ठीक कैसे करेंगे. युद्ध में लड़े पुराने लोग मुगाबे की ताकत रहे हैं. इनमें से कुछ सेना में आ गए तो कुछ खेती में लग गए. अब इन लोगों ने अपनी वफादारी मनांगवा के प्रति दिखाई है. अब यह मनांगवा पर निर्भर करते हैं कि वे मुगाबे की राह चलते हैं या फिर वाकई सब कुछ ठीक करने की कोशिश करते हैं.

सत्ताधारी जिंबाब्वे अफ्रीकन नैशनल यूनियन-पैट्रियाटिक फ्रंट का जो धड़ा ग्रेस मुगाबे के साथ गोलबंद हुआ था, उसे झटका लगा है. लेकिन वे खत्म नहीं हुए हैं. ये शहरी जिंबाब्वे में मजबूत हैं. इन लोगों को मनाने का काम मनांगवा के लिए एक कड़ी परीक्षा होगी.

वे आजादी के बाद से आंतरिक संघर्ष के दिनों में भी जिंबाब्वे के इतिहास में अहम भूमिका निभाते रहे हैं. आजादी के पहले दशक में आंतरिक सुरक्षा और न्याय मंत्री के तौर पर उन्होंने जोशुआ नकोमो की जिंबाब्वे अफ्रीकी पीपुल्स यूनियन के आजादी आंदोलन को बलपूर्वक कुचलने में प्रमुख भूमिका निभाई थी.

उस दौर में दक्षिण अफ्रीका शीत युद्ध के आपसी संघर्षों में फंसा था. दोनों महाशक्तियां अंगोला और मोजांबिक जैसे देश में एक-दूसरे के खिलाफ दूसरों के सहारे संघर्ष कर रही थीं. इन देशों के राष्ट्रवादियों ने पश्चिमी ताकतों का समर्थन किया. 1980 के दशक में जिंबाब्वे ने पश्चिम की बातों को पूरी तरह माना. गोरे लोगों की बसावट और उनके विशेषाधिकारों से छेड़छाड़ नहीं की. इस वजह से आंतरिक संघर्ष के बावजूद वहां स्थितियां ठीक रहीं.

1990 के दशक की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका में लोकतंत्र आसानी से आ पाया क्योंकि यहां शीत युद्ध का तनाव नहीं था. इस दौरान जिंबाब्वे पश्चिम का चहेता बना रहा. आर्थिक संकट की स्थिति में इसने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमफ की शर्तों के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव किए.

1998 में पहली बार जिंबाब्वे ने अलग रुख अपनाते हुए कांगो में जोसफ कबीला के समर्थन में सैन्य दखल किया. इससे यह स्पष्ट हो गया था कि जिंबाब्वे की आजादी की लड़ाई लड़ने वालों का मुगाबे के प्रति असंतोष बढ़ने लगा है. इस दखल के पीछे एक वजह कबीला का साथ था तो दूसरी वजह यह थी कि कांगो के खनिज संसाधनों पर जिंबाब्वे के आला सैन्य अधिकारियों की भी हिस्सेदारी रहे. 2002 में संयुक्त राष्ट्र की एक जांच में पाया गया कि कांगो के हीरे संबंधी सौदों में मनांगवा को काफी आर्थिक लाभ हुआ.

इससे पश्चिम का गुस्सा बढ़ा. लेकिन स्थिति तब और खराब हो गई जब 2000 में जिंबाब्वे ने तेजी से भूमि सुधार करने की दिशा में कदम बढ़ाए. मुगाबे के समर्थकों में इस बात से असंतोष बढ़ता जा रहा था कि उनकी स्थिति नहीं सुधर रही और आईएमएफ की शर्तों को आंख बंद करके माना जा रहा है. भूमि सुधार के नाम पर बलपूर्वक जमीन जब्त करने का काम शुरू हुआ. इस वजह से कारोबारी अपनी पूंजी लेकर निकलने लगे और आर्थिक संकट पैदा हो गया. इस बार आईएमएफ ने कड़ी शर्तों के साथ भी मदद करने से मना कर दिया. जिंबाब्वे भी इसके लिए तैयार नहीं था.

पश्चिमी ताकतों ने मोर्गन तसवांगिरी के नेतृत्व में मूवमेंट फॉर डेमोक्रेटिक चेंज यानी एमडीसी का साथ दिया. पश्चिम देशों से काफी पैसा और मीडिया में जगह मिलने के बावजूद एमडीसी की कोशिशें कामयाब नहीं हो पाईं. मुगाबे और मनांगवा ने इसे कामयाब नहीं होने दिया. 2008 के चुनावों के बाद मुगाबे और तसांवगिरी के बीच सत्ता के बंटवारे को लेकर समझौता कराने में मनांगवा ने अहम भूमिका निभाकर अपना राजनीतिक कद बढ़ाया. लेकिन यह सब अधिक समय तक नहीं चल पाया और मुगाबे को पश्चिम का समर्थन नहीं मिला.

अब जब आखिरी अफ्रीकी मुक्तिदाता का इतिहास में धूमिल पड़ना शुरू हो गया है तो उनके जाने से पैदा हुई खुशी थोड़े समय के लिए है क्योंकि जिंबाब्वे कई तरह की फूट का सामना कर रहा है. इसे दूर करने के लिए उनके उत्तराधिकारी में जरूरी क्षमता और इच्छा दोनों का अभाव दिखता है. लेकिन लोगों को काफी उम्मीदें हैं और इन उम्मीदों के दबाव में संभव है कि मनांगवा जरूरी कदम उठाएं और उन्हें कामयाबी भी मिल जाए.
1960 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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