कौन करता है किसान की परवाह
देविंदर शर्मा
यह सर्वविदित है कि हम ऐसे देश में रहते हैं, जो इंडिया और भारत में बंटा हुआ है. इंडिया मेट्रोपोलिटन शहरों में रहता है, जिसमें छह लेन के राजमार्ग हैं, गंगनचुंबी इमारते हैं, महंगी कारें हैं और जाने क्या क्या है. इसके उलट भारत, 6.40 लाख गावों में रहता है, जहाँ धूल भरी सड़के हैं, जहाँ ट्रैक्टर और बैल गाड़ियों के साथ कई हज़ार गरीब लोग दिखते हैं, जो अधिकांशतः किसान हैं.
आप पूछेंगे कि मैं इंडिया और भारत की बात क्यों कर रहा हूँ. आखिरकार हम सभी इंडिया और भारत के बीच की गहरी खाई से भली भांति परिचित हैं. मैंने ये विषय इसलिए उठाया क्योंकि मुझे लगता है कि शहरी इंडिया और ग्रामीण भारत के बीच बहुत दूरी है- दोनों एक दूसरे को नहीं समझते हैं और ये खाई बढ़ती ही जा रही है. शहरों में रहने वाले लोग ग्रामीण परिवेश से बहुत दूर होते चले गए हैं. उन्हें गाँव की जीवनशैली का ज़रा भी आभास नहीं है. उन्हें लगता है कि ग्रामीण भारत एक तरह से अलग ही देश है- अफ्रीका जितना दूर. यहाँ तक कि अब बॉलीवुड भी भारत की बात नहीं करता है.
कभी कभी तो मुझे घिन आने लगती है. जब भी मैं किसानों द्वारा आत्महत्याओं के मामलों में इजाफे के बारे में ट्वीट करता हूँ, मुझे चौंकानेवाले ही नहीं बल्कि भयावह उत्तर मिलते हैं. कुछ लोग लिखते हैं की इन लोगों को तो यूँ भी मर ही जाना चाहिए क्योंकि ये देश पर भार हैं, कुछ कहते हैं कि किसान पैरासाइट हैं जो देश का खून चूस रहे हैं, कई कहते हैं कि किसान सरकार की खैरात पर ज़िंदा हैं और उन्हें उद्यमिता न अपनाने की कीमत तो चुकानी ही होगी. संवेदना की ये कमी इतनी ज्यादा है कि सोशल मीडिया पर मुझसे बात करने वाले कई लोग कहते हैं कि मुझे किसानों के बारे में बात करनी ही बंद कर देनी चाहिए और आर्थिक उन्नति कर रही शहरी जनसँख्या पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
जब मैं उत्तर पूर्वी क्षेत्र के बाढ़ प्रभावित किसानों की बात करता हूँ या मध्य और दक्षिण भारत में सूखे से जूझ रहे किसानों को मुद्दा उठता हूँ तो उन लोगों को कतई दुख नहीं पहुँचता है . जब कीमतें गिरतीं हैं , जब किसान सड़कों पर टमाटर फ़ेंक देते हैं, जब किसान कीमतें गिरने के कारण हृदयाघात से मर जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं तो मुझे कहा जाता है कि ग्रामीण भारत में तो ये सामान्य घटनाएं हैं, मुझे इनके बारे में इतना लिखने की आवश्यकता नहीं है.
जब मैं इस प्रकार की बकवास को सुनता हूँ तो मुझे ये चिंता सताती है कि शहरी इंडिया और किसानों के बीच इतनी दूरी कैसे हो गयी? किसानों के नेताओं ने क्यों इस दूरी को इतना बढ़ने दिया, क्यों नहीं ऐसा कुछ किया की शहर के लोग गावों के मुद्दों से जुड़े रहे. मेरे पास इसका उत्तर नहीं है पर मुझे शिद्दत से लगता है कि शहरी लोगों से दूरी बढ़ने के लिए कहीं न कहीं किसान नेताओं को भी अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकारनी होगी.
क्यों किसानों ने अपने संघर्षों, अपनी तकलीफों को किसान समुदायों तक ही सीमित रखा, क्यों नहीं उन लोगों ने समाज के अन्य वर्गों तक अपनी बात पहुँचाने का प्रयत्न किया? स्कूलों और कॉलेजों की बात करें तो उन छात्रों के मन मस्तिष्क में, उन्हें दी जा रही शिक्षा में किसानों की कोई ख़ास भूमिका नहीं है. मात्र पाठ्यक्रम की पुस्तकों से उन्हें किसानों के बारे में टूटी फूटी जानकारी मिलती है. क्यों नहीं छात्रों और किसानों के बीच सीधे बातचीत के सत्र रखवाए जाते हैं. वार्षिक महोत्सवों अथवा अन्य पाठ्येतर कार्यक्रमों में विरले ही मैंने किसानों और छात्रों में बीच कोई विचार विमर्श होते देखा है.
युवाओं के लिए किये गए कार्यक्रमों में भी शहरी युवाओं पर ध्यान केंद्रित रहता है, ग्रामीण युवक तो जैसे महत्वहीन हैं. हर बात शहरी भारत के बारे में होती है, जैसे कि ग्रामीण भारत का कोई वजूद ही नहीं है. एक दिन मैं नयी दिल्ली में एक निजी विश्वविद्यालय में व्याख्यान दे रहा था. मैंने पूछा कि आप में से कितने लोग कभी गाँव गए हैं. 60 लोगों से अधिक की क्लास में मात्र 3 हाथ ऊपर उठे. वे तीनों भी किसी शादी में गाँव या तहसील मुख्यालय गए थे और एक अपनी माँ के साथ अपने नाना नानी से मिलने गाँव गयी थी. जब मैंने उनसे कहा कि उन्हें गाँव तक पहुंचने के लिए नोएडा से मात्र 40 किलोमीटर बाहर जाना पड़ेगा तो उन्हें ये मज़ाक के रूप में भी अच्छा नहीं लगा. इन युवाओं के लिए उनका जीवन शहरों में सिमटा हुआ अच्छा था. वे शहरों में ही खुश थे.
यही आज के शिक्षित युवा हैं जो किसी दिन नौकरशाही चलाएंगे अथवा किसी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी या किसी निर्णायक मंडल में अवस्थित होंगे. उन्हें 70 प्रतिशत आबादी युक्त ग्रामीण भारत के बारे में कुछ पता नहीं है. उन्हें क्यों दोष दें. आज के निर्णयकर्ता , जिनमें जाने माने अर्थशास्त्री जो आये दिन टीवी चर्चाओं में हाज़िर होते हैं अथवा अंग्रेजी के अखबारों में नियमित कॉलम लिखते हैं, उनका भी गावों से कोई सीधा नाता नहीं है. एक अर्थशास्त्री जो अब प्रधानमंत्री की परामर्शदात्री समिति के सदस्य हैं उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में एक आर्टिकल में किसानों के बारे में अपने तर्कों के समर्थन में ये कहकर मुझे भौचक्का कर दिया कि उनकी जानकारी इसलिए पुख्ता है क्योंकि उनकी पत्नी मशरुम की खेती कर रही अंशकालिक किसान है. खेती के बारे में उनकी जानकारी केवल वहीं तक सीमित थी जितनी उनकी पत्नी ने उन्हें दी थी जो खुद शहरी समृद्ध वर्ग से ताल्लुक रखती थी और शौकिया तौर पर मशरुम की खेती करती थी.
बात यहीं ख़तम नहीं होती है. जब भी मैं कृषि संकट और किसानों द्वारा आत्महत्या में बढ़ोतरी की बात करता हूँ ट्रोल मुझसे पूछते हैं कि क्या कांग्रेस के समय पर आत्महत्याएं नहीं हो रही थीं? जब मैं किसानों पर सूखे की मार की बात करता हूँ तो मुझसे पूछा जाता है कि क्या बारिश न आने के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार है? पब्लिक डिबेट का इतना ध्रुवीकरण हो गया है कि बाढ़ और सूखे समेत हर मुद्दे को राजनीतिक रुझान के नज़रिये से देखा जाने लगा है.
अब तो बाजार की अर्थव्यवस्था भी धर्म का अंग बन गयी है. जो इस पर विश्वास रखते हैं वो राष्ट्रीयकृत बैंकों के कॉर्पोरेट डिफॉल्ट्स का भी समर्थन करने के लिए तैयार हैं. यहाँ तक कि आर्थिक सलाहकार ने भी कह दिया कि कॉर्पोरेट ऋण की माफ़ी आर्थिक विकास का हिस्सा है जबकि किसानों की ऋण माफ़ी से ऋण अनुशासनहीनता बढ़ती है और राष्ट्रीय बैलेंस शीट ख़राब होती है. प्रति वर्ष कई सौ करोड़ के बैंक डिफॉल्ट्स के बारे में यदि आप तथ्यपरक बहस करो तो वो आप को सीधे सीधे कम्युनिस्ट भी कह सकते हैं और नहीं तो सोशलिस्ट का तमगा तो दे ही डालेंगे. इतनी चतुराई से इस प्रकार की बातें लोगों के मन में बैठाई गयी हैं. क्या ये खाई कभी भी पट पाएगी?
* लेखक कृषि और खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं.