मानवता की पुकार
रोहिंग्या संकट से निपटने के लिए कुछ नहीं करने को इस्लाम का डर और संसाधनों की कमी जैसे बहानों को सही नहीं ठहराया जा सकता. आज पूरी दुनिया में इस्लाम को आतंकियों के धर्म तौर पर स्थापित करने की कोशिश हो रही है. वहीं बौद्ध धर्म को शांतिप्रिय, तार्किक और वैज्ञानिक धर्म माना जा रहा है. लेकिन जिस तरह से म्यांमार में अल्पसंख्यक मुस्लिमों को बहुसंख्यक बौद्धों द्वारा वहां की सेना की मदद से सताया जा रहा है उससे यह धारणा दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में टूटती दिख रही है. इसके बावजूद भारत समेत कई देशों ने इस मसले पर ऐसी प्रतिक्रियाएं दी हैं जिनसे लगता है कि ये इस्लाम के डर से प्रेरित हैं.
म्यांमार में हालिया हिंसा 25 अगस्त को तब शुरू हुई जब अराकन रोहिंग्या सैल्वेशन आर्मी ने म्यांमार में पुलिस पोस्ट और सेना बेस पर हमले किए. इसके बाद न सिर्फ सैन्य कार्रवाई हुई बल्कि एक बार फिर से रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति नस्लभेदी हिंसा होने लगी. अनुमान है कि उस वक्त से अब तक 90,000 से अधिक रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थी के तौर पर बांग्लादेश पहुंच गए हैं और तकरीबन 20,000 इस देश की सीमा पर घुसने की ताक में हैं. म्यांमार ने संयुक्त राष्ट्र की राहत एजेंसियों को राहत पहुंचाने से रोक रखा है. साथ ही मीडिया को भी प्रतिबंधित कर रखा है. इसके बाद कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि वहां सरकार समर्थित नरसंहार चल रहा है. इसके बावजूद म्यांमार के पड़ोसी देश रोहिंग्या लोगों को शरण देने को तैयार नहीं हैं. भारत सरकार इन लोगों को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बता रही है.
1962 की सैन्य तख्तापलट के बाद म्यांमार में रोहिंग्या लोगों ने लगातार अत्याचार झेले हैं. न सिर्फ उनकी नागरिकता ले ली गई बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और रोजगार से भी उन्हें वंचित रखा गया. 2011 के बाद उनके खिलाफ हिंसा काफी बढ़ गई. यह वही दौर था जब म्यांमार तथाकथित लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा था. आम लोगों का समर्थन अपने प्रति बनाए रखने के लिए सेना ने खुद को बौद्धों का रक्षक बनाकर पेश किया और उन्हें इस बात के लिए उकसाया कि रोहिंग्या लोगों पर हमले करें.
अभी जो हिंसा चल रही है, उसकी असल शुरुआत तो अक्टूबर, 2016 में ही हुई थी. संयुक्त राष्ट्र की एक टीम ने फरवरी, 2017 में जारी की गई अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुरक्षा बलों ने रोहिंग्या लोगों के खिलाफ जो अत्याचार किए हैं उन्हें ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ और ‘संभावित नस्ली नरसंहार’ की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. म्यांमार सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया. जब मई, 2017 में संयुक्त राष्ट्र ने दूसरी टीम भेजने की बात कही तो म्यांमार सरकार ने वीजा देने से इनकार कर दिया. लोकतांत्रिक तौर पर चुनी गई नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू की ने दावा किया कि संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप से म्यांमार के विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्यता बढ़ सकती है. अगस्त की हिंसा पर लंबे समय तक चुप्पी साधे रहने के बाद अब उन्होंने कहा है कि नस्लभेदी हिंसा जैसी कोई बात नहीं है और लोग आतंकवादियों के मकसद को कामयाब बनाने के लिए गलत सूचनाओं का प्रसार कर रहे हैं.
इस मामले में भारत सरकार की प्रतिक्रिया शर्मनाक रही है. इसने कहा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में 40,000 रोहिंग्या लोग अवैध तरीके से रह रहे हैं और इन्हें वापस म्यांमार भेजा जाएगा. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरन रिजिजू ने इसे यह कहते हुए सही ठहराया है कि शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र की संधि का हिस्सा भारत नहीं है, इसलिए इसके नियम यहां लागू नहीं होते. लेकिन कई बार सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने यह कहा है कि अगर शरणार्थियों के मूल देश में उनके खिलाफ अत्याचार की स्थिति हो तो उन्हें वापस जाने को बाध्य नहीं किया जा सकता. अंतरराष्ट्रीय कानूनों में यह स्वीकार्य बात है. इसे भारत सरकार दरकिनार नहीं कर सकती. रोहिंग्या लोगों को वापस भेजने के सरकार के कदम का विरोध करने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
इससे भी अधिक चिंता की बात मौजूदा सरकार की वह कोशिश है जिसके तहत 1955 के नागरिकता कानून में संशोधन करने की योजना है. इसमें मुस्लिम लोगों को शरण लेने से रोकने की कोशिश की जा रही है. यह संविधान के अनुच्छेद-14 के प्रतिकूल है जिसके तहत सबको बराबरी का अधिकार दिया गया है.
जरूरत इस बात की है कि सरकार पर इस बात को लेकर दबाव बनाया जाए कि संसाधनों की कमी और शरणार्थियों के वेश में आतंकवादियों के घुस जाने का बहाना करके मानवता के खिलाफ चल रहे एक नरसंहार में मूकदर्शन बने रहना ठीक नहीं है. मौत और अत्याचार के डर से भागकर आ रहे लोगों को शरण देना चाहिए. धर्म या नस्ल के आधार पर इसमें भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए. वैश्विक स्तर पर संसाधन जुटाकर उन्हें या तो वापस अपने देश में या अगर वहां स्थिति खराब बनी रहती है तो जिस देश में वे आ रहे हैं, वहां उनका पुनर्वास ठीक से किया जाना चाहिए. लोगों को वापस मौत के मुंह में धकेलना स्वीकार्य नहीं है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद