कोल ब्लॉकः प्रधानमंत्री द्वारा हस्तक्षेप
प्रकाश चन्द्र पारख | अुनवादः दिनेश कुमार मालीः 17 जनवरी 2005 को मैं प्रधानमंत्री से मिला और उन्हें बताया कि कोयला मंत्रालय की कुछ महत्त्वपूर्ण फाइलों को जान-बूझकर विलंबित किया जा रहा है.मैंने उनके हस्तक्षेप की गुजारिश की. कैप्टिव कोल ब्लॉक आवंटन में प्रतिस्पर्धात्मक खुली बोली का प्रस्ताव उन महत्त्वपूर्ण मुद्दों में से एक था. प्रधानमंत्री ने अपने प्रिंसिपल सेक्रेटरी श्री टी.के.ए. नायर को बुलाकर कोयला मंत्री से इस विषय में बात करने की हिदायत दी. उसी शाम मैंने श्री नायर को कैबिनेट नोट की स्वीकृति की अरजेंसी जताते हुए एक नोट लिखा ताकि संसद के आगामी बजट सेशन में आवश्यक विधायी संशोधन किए जा सकें.
श्री सोरेन द्वारा खुली बोली द्वारा प्रस्ताव की हत्या
प्रधानमंत्री को श्री राव तथा श्री सोरेन द्वारा अवरोध पैदा करने की जानकारी देने के बावजूद 25 जनवरी 2005 को श्री सोरेन ने उस फाइल पर अपनी टिप्पणी लिखी- “ मैंने इस पूरे मुद्दे को अच्छी तरह से समझा और बतौर कोयला मंत्री मैं राज्यमंत्री (कोयला) की दिनांक 4.10.2004 को की गई टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ. अत: इस प्रस्ताव को और आगे बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है.”
श्री राव और श्री सोरेन दोनों ने मिलकर मेरे इस प्रस्ताव पर, जिसका उद्देश्य कोयले के ब्लॉकों का पारदर्शी तरीके से आवंटित करना था,पानी फेर दिया.
प्रस्ताव का पुनर्जीवन
दिनांक 01.03.2005 को झारखंड के मुख्यमंत्री बनने के लिए श्री सोरेन ने कोयला मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया तो प्रधानमंत्री ने फिर से कोयला मंत्रालय का प्रभार संभाला. ऐसा लग रहा था मानो तकदीर भी मेरे साथ आँख-मिचौनी खेल खेल रही है. मैंने उस प्रस्ताव को पुनर्जीवित किया और नौ मार्च को कैबिनेट नोट बनाकर इनकी स्वीकृति के लिए प्रेषित कर दिया.
इस कैबिनेट नोट को प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को स्वीकृति दे दी. इसके बाद इसे संबंधित मंत्रालयों और राज्य सरकारों के पास उनकी टिप्पणी के लिए भेजा गया. सारी टिप्पणियाँ आने के बाद मैंने 21 जून को फाइनल नोट बनाकर राज्यमंत्री के माध्यम से कैबिनेट की सहमति हेतु प्रधानमंत्री के पास भेज दिया.
राजमंत्री द्वारा इस प्रस्ताव को पटरी से उतारना
प्रधानमंत्री के पास फाइल भेजते समय राज्यमंत्री ने निम्न टिप्पणी की- “कैबिनेट को इस निर्णय से होने वाले प्रभावों पर विस्तार से गहराई में जाकर सोचने की जरूरत है. प्रतिस्पर्धात्मक बोली में भाग लेने के कारण कीमतों पर होने वाले प्रभाव की वजह से पावर कंपनियाँ विरोध कर रही है.”
खुली बोली की प्रणाली से बिजली की कीमतों पर कोई खास असर नहीँ पड़ेगा, इस मुद्दे पर कई बार विस्तार से बहस हो चुकी थी. बार-बार इन मुद्दों को उठाने का अर्थ खुली बोली प्रणाली को जितना विलंबित किया जा सके, करना था ताकि पुराने ढर्रे वाली आवंटन प्रक्रिया चलती रहे. खेद की बात है कि राज्यमंत्री अपने इस प्रयास में सफल हुए.
प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी श्री नायर ने 25 जुलाई को कोल बियरिंग राज्यों के मुख्य सचिवों तथा संघ सरकार के उपयोगकर्ता मंत्रालयों के सचिवों की एक बैठक बुलाई. इस बैठक में मैंने यह समझाया कि प्रस्तावित खुली बोली प्रणाली से कोल ब्लॉकों के आवंटन में पारदर्शिता आएगी और इससे राज्य सरकार और संबंधित केन्द्रीय मंत्रालयों की भूमिका में किसी भी प्रकार का परिवर्तन आने की आशंका नहीँ है. खुली नीलामी से जो भी राजस्व प्राप्त होगा, उससे एक विशेष फंड बनाया जाएगा,जिसका प्रयोग संबंधित कोयलांचलों में सामाजिक और दूसरी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने में किया जाएगा.इसलिए राज्यों को इस प्रस्तावित नीति का समर्थन एवं स्वागत करना चाहिए.
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इस बैठक में यह निर्णय लिया गया कि कैबिनेट नोट में राज्य सरकारों के विचारों को जोड़ा जाए और चूँकि कोल माइंस नेशनलाइजेशन एमेंडमेंट बिल को पास होने में काफी समय लगेगा,इसलिए जब तक नई प्रतिस्पर्धात्मक बोली की प्रणाली प्रभाव में नहीँ आ जाती है,तब तक प्रचलित प्रणाली से आवंटन जारी रखा जाए.
अब यह साफ हो गया था कि खुली बोली के लिए किसी की भी राजनैतिक मंशा नहीँ है, इसलिए इस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. अगर राजनैतिक मंशा होती तो अध्यादेश के जरिए कोल माइंस नेशनलाइजेशन एक्ट में संशोधन किया जा सकता था. प्रधानमंत्री कार्यालय की इच्छा के अनुरूप मैंने कैबिनेट नोट में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों के विचारों को सम्मिलित कर आवश्यक संशोधन किए और राज्यमंत्री को प्रेषित कर दिया. राज्यमंत्री ने मेरे रिटायर होने के इंतजार में दिसंबर 2005 तक वह फाइल अपने पास रोककर रखी.
मेरे रिटायर होने के बाद दिनांक 12.01.06 को प्रधानमंत्री को फाइल भेजने के बजाए निम्न टिप्पणी के साथ फाइल लौटा दी– “प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोल माइंस नेशनलाइजेशन एक्ट में आवश्यक संशोधन में होने वाली देरी को ध्यान में रखते हुए निर्देश दिया है कि जब तक एक्ट में संशोधन न हो जाए,तब तक प्रचलित पद्धति के अनुसार आवंटन की प्रक्रिया चालू रखी जाए और इस विषय में जल्दबाजी की कोई आवश्यकता नहीँ है.”
मेरे मंत्रालय छोड़ने के बाद कोल ब्लॉकों की खुली बोली को दूसरे सभी खनिजों को भी उसी पद्धति के आवंटन करने के बहाने उस विषय को कोयला मंत्रालय से खनिज मंत्रालय में ट्रांसफर कर दिया गया. चूँकि इस संशोधन के लिए दूसरे मंत्रालय की सहायता मिलनी चाहिए, इसलिए यह सुनिश्चित कर लिया गया कि प्रचलित पद्धति और कुछ सालों तक चलेगी.
उपरोक्त घटनाक्रम से साफ जाहिर है कि न तो औद्योगिक संस्थान और न ही राजनैतिक प्रणाली निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से खुली बोली को लागू करने के इच्छुक थे. उनका भरसक प्रयास यही था कि खुली बोली प्रणाली को लागू होने से जब तक संभव हो,तब तक रोका जाए.
खुली बोली के प्रस्ताव का अनुमोदन न होने के बावजूद भी मैंने प्रचलित प्रणाली में जितना संभव था, समरूपता और पारदर्शिता लाने का प्रयास किया.अखबारों में विज्ञापनों तथा मंत्रालय की वेबसाइट पर आवंटन के लिए उपलब्ध ब्लॉकों के बारे में जानकारियाँ उपलब्ध कराई. सभी आवेदकों को सामान्य दर पर जियोलोजिकल रिपोर्ट दी जाने लगी,ताकि आवेदन करने से पूर्व वे इस संपदा के बारे में अच्छी तरह जांच-परख कर सकें.
कोयले के खनन के लिए सफल आवेदकों को ज्वाइंट वेंचर बनाने के लिए प्रेरित किया,ताकि छोटे आवेदकों को भी कैप्टिव माइनिंग का लाभ मिल सके.जहाँ ज्वाइंट वेंचर बनाना संभव नहीँ था,वहाँ लीड पार्टनर चयन करने की सुविधा दी गई, जो कोयले का खनन करके दूसरे सहयोगियों को वितरित करेगा. नीति निर्देशों में उपरोक्त परिवर्तन करने से सारे योग्य आवेदकों को समावेश करना संभव हो सका. खुली बोली प्रणाली के अभाव में इससे ज्यादा निष्पक्ष विकल्प संभव नहीँ था.