राजा सोचे ग्लोबल की, प्रजा रही बिलखाय
बिकास के शर्मा | ग्वालियर: नाटक के इतर भी यह आलोचना विरोधी समय है. कितनी भी ईमानदार आलोचना हो, उसे बर्दाश्त कर पाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. क्या घर, क्या बाहर, सब जगह एक जैसा हाल है. कम से कम सत्ता का चरित्र तो ऐसा ही है, जहां आलोचना और सत्य जैसे शब्द सत्ता विरोधी मान लिये गये हैं.
एक व्यक्ति चाहे घर, मुहल्ले, गांव या फिर देश-दुनिया की सत्ता से ही क्यों न जुड़ा हो, राज करने की लालसा उसे अंधदौड़ में कब घकेल देती है वो खुद नहीं भांप पाता और न ही उसे उस वक्त सकारात्मक रास्ता दिखलाने वाला कोई पसंद आता है. इसी के मध्य उसके सामने, अनजाने और बाहर से आए लोग दिखावा कर उसे महान कहने का ढोंग कर दें तो उसे लगता है कि वे ही दुनिया का अंतिम सत्य बोल रहे हैं.
सत्ता मनुष्य को अहंकार की काली गुफा में घकेलती है. ज्यादा देर तक वहां रहने के बाद जब कोई उस अंधेरी गुफा से बाहर निकलता है, तो भी वह बाहर की रोशनी नहीं देख पाता क्योंकि वो खुद अंधा हो जाता है और तभी उसे ठगी का एहसास हो उठता है.
चीनी आख्यान ‘द एम्परर्स न्यू क्लोथ्स’ पर ‘उजबक राजा तीन डकैत’ नाम से मध्यप्रदेश के प्रख्यात रंग निर्देशक अलखनंदन ने 90 के दशक में एक नाटक परिकल्पित एवं निर्देशित किया था. जिसे देश के अनेक स्थानों में मंचित भी किया गया. अलखनंदन देश के उन मुट्ठी भर निर्देशकों में गिने जाते थे, जो ‘सटायर’ की शैली में काम करते थे. उनके द्वारा देश के ख्यातिलब्ध रंग निर्देशक ब.व. कारंत की महान कृति ‘महानिर्वाण’ एक नजीर के रूप में रंगमंच की दुनिया में विशिष्ट स्थान रखती है.
विगत दिनों विश्व रंगमंच दिवस के उपलक्ष्य में ग्वालियर स्थित राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय के नाटक संकाय के विद्यार्थियों द्वारा ‘द एम्परर्स न्यू क्लोथ्स’ कहानी पर ही आधारित नाटक ‘ग्लोबल राजा’ को मंचित किया.
नाटक का निर्देशक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित योगेन्द्र चौबे ने किया. चौबे की एक खासियत है कि वे अपने रंग समूह के साथियों को पूरा स्पेस देते हैं और अभिनय से लेकर मंच सज्जा तक में एक खाका बताकर मुक्त हो जाते हैं, जिसके कारण अभिनेता रिहर्सल में सिखाई-बताई गई बातों को ध्यान तो रखता ही है, साथ ही उसमें मंचन के दौरान आवश्यकतानुसार खुद को एक परिधि से बाहर लाकर अपनी अभिनय क्षमता को उन्मुक्तता के साथ विस्तार देने की चेष्टा करता है.
‘ग्लोबल राजा’ उस अभिजात्य वर्ग का प्रतिनिधि है, जिसके सरोकार के केंद्र में विलासिता है. अरनाखेड़ा राज्य का मंदबुद्धि एवं चापलूसी पसंद राजा रेशमलार बाढ़ के प्रकोप से जुझ रही अपनी प्रजा को कोई मुआवजा तो नहीं देता किन्तु निकट प्रदेश खंडाला के राजा से प्रतिस्पर्धा करने के नशे में कुछ विदेशी ठगों के कुचक्र में फंसकर अपना सब कुछ लुटा देता है. इसके बाद उसके शरीर पर पहनने को कपड़े तक नहीं बचते हैं. वे ठग ही हैं, जो राजा से कहते हैं कि उन्होंने राजा के लिए विशेष परिधान तैयार किए हैं, जो किसी भी मूर्ख व्यक्ति को दिखाई नहीं देते.
हर पहर अपना चोंगा बदलने वाले राजा से जनता त्रस्त हो उठती है क्योंकि वह कर भी बढ़ा देता है, बिना इस बात की चिंता किए कि जनता बिलख रही होगी. राजा विदेशी दर्जियों द्वारा बनाए गए नये परिधान (केवल हॉफ पेंट) पहनकर अधनंगा हो जाता है, जिसके बाद भी उसके दरबारी चापलूसी करते हुए राजा के खुबसूरत दिखने की बात करते हैं. प्रजा उसे देख कर हंसती है तो वह उन्हें दंडित करता है किन्तु खंडाला के राजा से साक्षात्कार होने के बाद ठगे जाने की बात दोनों राजा स्वीकार लेते हैं और खुद को कोसते हैं.
नाटक में व्यंग्य सब तरफ व्याप्त नज़र आता है. रंग-संगीत का प्रयोग भी चमत्कारी प्रतीत होता है. व्यंग्य नाटक की अपनी एक शक्ति होती है कि वह गंभीर विषय पर भी हलके-फुलके अंदाज में प्रहार करता है और मीठे दर्द की तर्ज पर पसंद भी आता है.
बकौल निर्देशक मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा बनाई गई नकली दुनिया कब असली लगने लगती है, हमें खुद ज्ञात नहीं होता और हम एक ‘टूल’ बनकर रह जाते हैं.
चौबे कहते हैं, “सत्ता में बैठे लोगों द्वारा देशी वस्तुओं को बढ़ावा न देने और उनकी अवहेलना करने से ही विदेशी वस्तुओं के अधिक आयात ने हमें बाजारवाद के आगे घुटने टेकने को मजबूर कर दिया है. इसका नतीजा यह हुआ कि देश के अंदर रहकर भी विदेशी सोच के व्यापारियों ने बाजार की लगाम को कसकर ऐसा पकड़ा कि देशी कुटीर व लघु उद्योगों से जुड़े लोग या तो इस बाजार से बाहर हो गए या फिर वे भी बस एक ‘टूल’ बनकर रह गए.
यह नाटक आज के राजनैतिक संकट पर भी प्रहार करता है और कई संवादों में देश में मौजूद सत्ता सहयोगी व्यापारियों पर भी बड़ी सहजता से कटाक्ष करता है, जिनका मकसद येन केन प्रकारेण मुनाफा कमाना है.
अभिनेता के तौर पर धीरज सोनी, जो कि इस नाट्य प्रस्तुति के सहायक निर्देशक भी हैं, ने राजा के रूप में बेहतर अभिनय किया. पात्रों की पोशाक का चयन एवं मंच की प्रकाश व्यवस्था प्रभावित करती है. राजा से लेकर उसके दरबारी, सभी को सर्कस के जोकरों जैसी पोशाक देना नाटक में एक मेटाफर की तरह है ,जहां समूचा राज्य ही सर्कस के घेरे के रूप में परिवर्तित हो जाता है. धीरज के कार्य का उल्लेख इसलिए भी कि उन्होंने एक साथ कई ज़िम्मेदारियों का वहन किया है.
रूप सज्जा से लेकर गीतों में लोक से जुड़ी शब्दावली नाटक के कथानक का प्रवेश द्वार बनी थी, जो कि एक अप्रतिम प्रयास माना जाना चाहिए. नाटक की शुरुआत एक कोरस शैली में गाये गीत- देखो अरनाखेड़ा के राजाजी, आज सभा में आ रहे हैं, से हुई जिसके दौरान ही सफेद रोशनी मंच के दाहिनी ओर फोकस की गई जहां से मुख्य पात्र राजा रेशमलाल का प्रवेश होता है और सभी नाटक प्रेमियों का ध्यान मंच के इतर राजा के आगमन दृश्य की ओर जाता है, जहां निर्देशक की सोच स्थापित होती है और प्रस्तुति को भी बल मिलता है.
प्रस्तुति के दौरान बीच-बीच में तालियों की गुंज पूरे सभागार में थी, तो वहीं नाटक समाप्ति पर बतौर मुख्य अतिथि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक डॉ वामन केंद्रे ने कहा, “नाटक की सबसे बड़ी विशेषता रही कि स्नातक पाठ्यक्रम के छात्र-छात्राओं ने इतनी सारगर्भित प्रस्तुति दी है यह कोई एमेच्योर ग्रुप लग ही नहीं रहा. नाटक किसी भी राष्ट्रीय मंच पर खेले जाने वाली नाटक से कमतर नहीं, जिसके लिए ये बधाई के पात्र हैं.”